गुरुवार, 1 सितंबर 2011

हरतालिका तृतीया के महापर्व पर : मैं तो बनूगी शिव की पुजारन:नंदिता पाण्डेय के स्वर में.



हरतालिका तृतीया :

सकल विश्व की माताओं को सतत प्रणाम !!!

कालिदास का यह छंद मुझे अत्यंत प्रिय है और मेरे द्वारा किया गया  इसका अनुवाद भी  मुझे अतिशय प्रिय है..आप सभी इसे ज़रूर पढ़ें और अपने विचार लिखें .

कुमार संभव में कालिदास :

तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांगयष्टिः
निक्षेपणाय पदमुद्ध्रितमुद्वहन्ती
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेवसिन्धु:
शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ.

मेरा अनुवाद:

उन्हें देखकर पुलक-सुगन्धित,कम्पितदेह शिवानी.
तत्पर जो अन्यत्र गमन को,शिव-सरसांग भवानी.
पथ-स्थित-अचलारुद्ध नदी सी आकुल,पर,आनंदित.
न तो स्थित रहीं न तो कहीं अन्यत्र हो सकीं प्रस्थित.

यह दृश्य उस समय का है जब शिव-प्राप्ति हेतु किया जा रहा जगन्माता पार्वती का तप पूर्णप्राय हो चुका होता है.भगवान शिव, वटु-वेश में वहां आते हैं और शिव-निंदा करते हुए पार्वती को तप से निवारित करने का प्रयास करते हैं..पहले तो माता उन्हें तर्क से परास्त करने का प्रयास करतीं हैं.किन्तु, वे रुकते नहीं..पुनः कुछ कहना चाह रहे होते हैं..माता अपनी सखियों से कहती हैं-

निवार्यतामालि किमप्ययं वटु: 
पुनः विवक्षु: स्फुरितोत्ताराधर:
न केवलं यो महतोSपभाशते
शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक.

इतना कह कर वे अपना पैर वहां से हट जाने के लिए उठाती ही हैं कि वटु-वेशधारी सदाशिव उनके सामने प्रकट हो जाते हैं..उस समय माता की जो स्थिति होती है उसी का वर्णन कालिदास ने उक्त छंद मे किया है जो सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के सर्वोत्तम काव्य में माना जाता है.भारतीयों द्वारा ही नहीं , भारतविद्या के जर्मन, अंग्रेज,आदि विद्वानों द्वारा भी.

कुमारसंभवं का यह प्रसंग मेरे पिता जी बचपन से ही मुझे सुनाया करते थे.

इतना सरस प्रसंग -- वह भी अपनी माता और पिता का प्रेम प्रसंग ..कितना समाधिकारक है यह..

आज माता के पर्व पर यह प्रस्तुत करने की इच्छा हुई






अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

अल्लाह की नेमत से हर इक सांस मेरी ईद.

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन .
.
अलिफ़ लाम मीम 

सर्वेश्वर, बस तुम्हीं प्रणम्य.
-----------------------------

हर शब ही शब-ए-कद्र सी आती है मेरे पास.
अल्लाह की नेमत से हर इक सांस मेरी ईद.

हिन्दू  हो, मुसल्मां  हो, ईसाई  या   यहूदी .
हर  शख्स  को  ईमान  सिखाती है मेरी ईद.

शुभ शुक्र हो, होली हो , दिवाली हो या पोंगल,
इंसान की खुशियों में ही मनती है मेरी ईद.

मज़हब मेरा इस्लाम , मुसल्मां है मेरा नाम.
हंसते हुए बच्चे में, पर,  हंसती है  मेरी  ईद.

जब दिल में दूरियां हों, मज़हबों में दुश्मनी .
फिर, अम्न का इक चाँद ले आती है मेरी ईद

तुमको भी अगर इश्क की ख्वाहिश हो मेरे दोस्त.
आना  मेरे  घर ,  तुमको  बुलाती  है मेरी ईद.

-- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 20 अगस्त 2011

आदमी बस चल रहा है.


आदमी बस चल रहा है.

यह बिना जाने
 कि जाना है कहाँ , कैसे , किधर,

वक़्त उसका बेवजह ही ढल रहा है.

आदमी बस चल रहा है.

खुद उसी की आरजू ने 
आग दिल में जो लगाईं,

वह उसी दोज़ख में बेबस ,
रात दिन बस जल रहा है.

आदमी बस चल रहा है.

-- अरविंद पाण्डेय 

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दोज़ख = नरक  

सोमवार, 15 अगस्त 2011

मुझे तो चाहिए बस आज वही हिन्दुस्तां.


जो लाखों लोग हिफाज़त तुम्हारी करते हैं.
कड़कती धूप, ठण्ड, शीतलहर सहते हैं.
तुम जिनके दम पे अब लेते हो दम आज़ादी का.
उन्हें भी देखना किस हाल में वो रहते हैं.

अगर अवाम के तन पर नहीं कपडे होंगे,
अगर गरीब हिन्दुस्तान के भूखे होंगे.
समझ लो फिर ये आज़ादी अभी अधूरी है.
अभी मंजिल में और हममे बहुत दूरी है.

अगर बारिश हो तो हर शख्स नाच नाच उठे .
अगर जो शाम ढले, सबके दिल में गीत उठे.
सभी बेख़ौफ़ घूमते हों रात , राहों में.
हर एक दिल हो यहाँ इश्क की पनाहों में.

हर एक दिल में ही जब ताजमहल सजता हो.
हर एक शख्स ही जब शाहजहां लगता हो.
हर एक दिल में हो खुदा-ओ-कृष्ण का ईमां.
मुझे तो चाहिए बस आज वही हिन्दुस्तां.

हर एक शख्स में जब शायराना मस्ती हो.
हर एक शय खुद अपने आपमें जब हस्ती हो.
तभी आज़ादी का सपना मेरा पूरा होगा.
ज़रा भी कम जो मिले, लक्ष्य अधूरा होगा.

अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

एक हुए भाई बहन , धन्य धन्य यह प्रीत.

 
रक्षाबंधन विजयते

स्वारथ के संसार में , देखी अद्भुत रीत.
एक हुए भाई बहन , धन्य धन्य यह प्रीत.

कृष्ण सुभद्रा राम का, आज करूं अभिषेक .
ब्रज की प्रेमकथा सुनी, हुए पिघल कर एक.


मंगलवार, 9 अगस्त 2011

मगर,मै रुक नहीं सकता, मुझे मंजिल बुलाती है.



ॐ आमीन :

नशीली सी फिजाएं देख  मुझको ,मुस्कुराती  हैं.
बहुत मीठे सुरों में  मस्त  कोयल  गीत गाती है.
बड़ा  ही  खूबसूरत  है  मेरी राहो का हर गुलशन.
मगर,मै रुक नहीं सकता, मुझे मंजिल  बुलाती है.

अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 6 अगस्त 2011

मगर, मेरी तो बस इतनी सी एक ख्वाहिश है.

(26 जनवरी २००५ . समादेष्टा .बिहार सैन्य पुलिस .पटना )


वन्दे मातरं ..

किसी में आरजू होगी कि चाँद पर जाए.
किसी में जुस्तजू होगी कि चाँद खुद आए.
मगर, मेरी तो बस इतनी सी एक ख्वाहिश है.
कि जान जाय तो बस मुल्क के लिए जाए..




अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 3 अगस्त 2011

धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप..


श्री मैथिलीशरण गुप्त.
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3 अगस्त :

धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप.
कवि बने अल्पग्य कोई आप से ही आप.


कक्षा ८ में अध्ययन के समय ही मैंने श्री मैथिलीशरण गुप्त में महाकाव्य '' साकेत '; ''पंचवटी'' चिरगांव, झांसी से मंगाया था.साकेत के प्रथम पृष्ठ पर एक प्रसिद्द छंद अंकित था-

राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है.
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है.

उसी छंद के नीचे ही मैंने अपनी उपर्युक्त दो पंक्तियाँ अंकित कर दी थीं.मेरे पास उपलब्ध साकेत की प्रति आज मेरे सामने है और आज पुनः वह छंद मेरे समक्ष समुज्ज्वल है


अरविंद पाण्डेय

रविवार, 31 जुलाई 2011

काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :


काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :

तेरे रुखसार के दोनों तरफ बिखरें हैं जो गेसू.
हैं कुछ उलझे हुए,फिर भी ज़रा मदहोश से भी हैं.
तेरी इन अधखुली आँखों की मस्ती घुल गई इनमे 
या तेरे दिल की उलझन ही कहीं उलझा रही इनको.


रफ़ी साहब को ये पंक्तियाँ समर्पित.आज उनकी पुण्यतिथि है.इस देश के लोगों को उन्हें इसलिए भी याद करना चाहिए क्योकि वे पाकिस्तान गए.वहाँ उन्होंने प्रसिद्द भजन - ओ दुनिया के रखवाले-- गाया.और कुछ इस तरह से गाया कि हमारे पाकिस्तानी भाइयों ऩे मज़हब का भेद भूलकर, Once More - का नारा लगाया .और रफ़ी साहब को वो गीत दुबारा गाना पडा. जो हमारे पुरोधा आज तक नहीं कर सके और शायद न कर पाएगें, उसे रफ़ी के दिव्य स्वर ऩे सहजता से कर दिया था..वे होते और मैं इन चार पंक्तियों को गीत का रूप देता और वे गाते इसे..ये स्वप्न धरती पर कभी यथार्थ बन पाए तो .....










शनिवार, 30 जुलाई 2011

किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.


भासस्तस्य महात्मनः 

दुनिया के युद्धों से थक कर, कल मैं उड़ा गगन की ओर.
किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.
महासूर्य का लोक दिखा फिर, देश-काल था जहाँ अनंत.
बस,प्रकाश का एकमेव अस्तित्व,तमस का अविकल अंत.

स्वप्रकाशमानंदं ब्रह्म .. 

कुरुक्षेत्र में विराटरूप दर्शन में अर्जुन ऩे श्री कृष्ण को देखा था - मानों आकाश में करोड़ों सूर्य एक साथ उदित हो उठे हों..जय श्री कृष्ण..वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में एक ऐसे प्रकाश-पुंज का संकेत मिला है जो हमारे सूर्य से १४० अरब गुना बड़ा हैं एवं जिसका प्रकाश, हम तक आने में, १४० अरब प्रकाश वर्ष का समय लगता है..


अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.


वृन्दावन के निभृत कुञ्ज में श्री राधा-वनमाली .
स्वच्छ शिला पर बैठे थे , छाया करती थी डाली.
लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.
योगी थे साश्चर्य , देख , योगेश्वर का व्यापार .


प्राचीन काल में लाल रंग के लोध्र पुष्प के पराग के लेप से मुख का श्रृंगार किया जाता था.
कालिदास ऩे मेघदूत में लिखा है:

नीता लोध्रप्रसवरजसा पांडुतामानने श्री: 


निभृत = एकांत.
साश्चर्य = आश्चर्य से युक्त. 







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शनिवार, 23 जुलाई 2011

मैं देव और पशु साथ साथ, मैं हूँ मनुष्य .


ॐ.आमीन .
मै  अणु बनता हूँ कभी ,कभी  बनता विराट .
अनुभव करता परतंत्र कभी,  बनता  स्वराट.
मैं कभी क्रोध-प्रज्वाल, कभी श्रृंगार शिखर ,
मैं नियति-स्वामिनी का बस हूँ सेवक,अनुचर.

 मैं देव और पशु साथ साथ, मैं  हूँ  मनुष्य .

अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 20 जुलाई 2011

संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ ...



संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ 
यं यं व्यतीयाय पतिंवरा  सा.
नरेंद्र मार्गाट्ट इव प्रपेदे 
विवर्णभावं स स भूमिपालः

 
राजमार्ग-संचरण  कर  रही  दीप शिखा सी, इंदुमती.
वरण हेतु आए जिस वर को छोड़,बढ़ चली, मानवती.
उस नरेंद्र का हुआ मुदित मुखमंडल,सद्यः कांति-विहीन.
दीपशिखा-रथ बढ़ जाने से पथ-प्रासाद हुआ ज्यों दीन.

कालिदास की सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वरमणीय उपमा का उदाहरण- 
यह देवी इंदुमती के स्वयंवर का वर्णन है रघुवंश का. 
वे वरमाला लेकर वर के वरण हेतु संचरण कर रही हैं..............................शेष आप दृश्य को अपनी चेतना में रूपायित करें और  सहृदय-हृदय-संवेद्य रस-स्वरुप होकर , अलौकिक आनंद का भोग करे..


मंगलवार, 19 जुलाई 2011

धीरसमीरे....



धीरसमीरे....
धीर-समीर-प्रकम्पित वन-कुंजो में श्री घनश्याम.
निरख रहे थे श्री राधा का स्वर्ण-वर्ण मुख, वाम.
अकस्मात् हो गया लाल, उनके कपोल का मूल.
खींच लिया था प्रिय मृग-शावक ऩे कौशेय दुकूल.


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धीर-समीर-प्रकम्पित - धीमी हवा के कारण हिलता हुआ..
कौशेय दुकूल = रेशमी दुपट्टा
मृग-शावक = हिरन का बच्चा 
स्वर्ण-वर्ण मुख = सुनहरी आभा वाला चेहरा .

श्री राधा जी का दर्शन करने वाले भक्तो ऩे अपने अनुभव बताते हुए, उनके दृश्य - अंगो का रंग,चमकते हुए सोने जैसा बताया है.


शनिवार, 16 जुलाई 2011

बहने न दो सड़को की तपिश में मेरा लहू.


बहने न दो सड़को की तपिश में मेरा लहू.
ग़र ये गरम हुआ तो फिर तुम भी न जिओगे.
हम दिख रहे अभी तुम्हे बेबस, गिरे हुए.
ग़र उठ गए,फिर,भाग के भी बच न सकोगे.

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

.कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् :ज्ञान-सिन्धु सी आज चंद्रिका नभ में लहराएगी.



स्वयं पूर्ण जो,करूणा से जिनकी, हो पूर्ण. अपूर्ण,
मात्र स्पर्श से जिनके, तम का , पर्वत होता चूर्ण.
जिनकी ज्ञान-अग्नि से भस्मीभूत अविद्या जीर्ण.
उन गुरु के प्रकाश की सत्ता कण कण में परिकीर्ण.

उन्हीं परम गुरु का प्रकाश सविता में होता व्यक्त.
वही सजल, शीतल, शशांक किरणों में हुए विभक्त.
उन्ही परम गुरु की करूणा बहती है जह्नु-सुता में.
उनके चरणों की कोमलता हंसती पुष्प , लता में.


अम्बर की निर्मेय नीलिमा सदृश वर्ण है  उनका.
परम शान्ति के सदृश कांति-दीपित शरीर है उनका.
राग-द्वेष या अभिनिवेश का भय सत्वर मिटता है.
जो उन पर-गुरु का श्रद्धा से स्मरण आज करता है.


ज्ञान-सिन्धु सी आज चंद्रिका नभ में लहराएगी.
सकल धरा पर अक्षर किरणे, अविरल बरसाएगी.
आज परम गुरु की है आज्ञा द्विधा-ग्रस्त मानव को-
चन्द्र-किरण को बना शस्त्र, करदो समाप्त दानव को.



अरविंद पाण्डेय


अभिनिवेश=मृत्यु से भय

बुधवार, 13 जुलाई 2011

एक जाति हो, एक धर्म हो , एक हमारा वेश




तब तक ये फटेगें हमारे सीनों पे बारूद.
जब तक न फट पड़ेगें हम शैतान के सर पर.
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करते जो हिफाज़त हैं असल,उन सभी को तुम.
करते हो परेशान मुकदमे चला, चला.
रहवर जो बने हो तो फिर अब करो हिफाज़त .
वर्ना, कहो अवाम से '' नाकाम हम हुए ''
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पूर्व-सूचना देकर दिल्ली में होता विस्फोट
पहुंचाई जा रही देश को अमिट, अकल्पित चोट 


किसी धर्म ने,किसी जाति ने, किया न कभी विरोध ।
फ़िर, अफ़ज़ल के मृत्यु-दंड में है किसका अवरोध ।


भारत के जिस राज चिह्न में लिखा -"सत्य अविजेय"।
उसे पहन भी कई लोग क्यों भूल चुके हैं ध्येय ।


अबल हो रही दंड-नीति का नही जिन्हें है ध्यान ।
काल-पुरूष का न्यायालय लेगा उनका संज्ञान ।


जिसे आज वे समझ रहे हैं इस जीवन का लक्ष्य ।
नही, नही, वह लक्ष्य नही, वह तो है घृणित, अभक्ष्य ।


तुच्छ-स्वार्थ के लिए आज रख रहे परस्पर द्वेष ।
नही ध्यान है कहा जा रहा अपना भारत देश ।


शपथ लिया था देशभक्ति का, गए उसे क्यों भूल ।
क्या सोचा था, जीवन पथ में सदा मिलेंगे फूल ।


कांटो पर चलकर ही करना था पूरा कर्तव्य ।
राष्ट्र-पुरूष के मस्तक पर टीका करना था भव्य ।


करना था उन षड्यंत्रों को पल ही पल में नष्ट।
बना रहीं हैं जो युवजन को अपराधी अतिभ्रष्ट ।


किंतु आज हम सब क्यों है बस अपने में मशगूल ।
कांटो से भयभीत, सिर्फ़ क्यों खोज रहे हैं फूल ।


आज समय है- बने संगठित अपना सारा देश ।
एक जाति हो, एक धर्म हो , एक हमारा वेश ।


---अरविंद पाण्डेय

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मंगलवार, 12 जुलाई 2011

कल चन्द्र-निमंत्रण पर पहुंचा मैं चन्द्र-लोक.



कल  चन्द्र-निमंत्रण  पर पहुंचा मैं चन्द्र-लोक.
कण कण आनंदित वहां,किसी में नहीं शोक.
फिर रात हुई ,  देखा नभ में थी उदित धरा.
हलके नीले आलोक-सलिल से गगन भरा.

प्रातः जब पृथ्वी पर आनंदित मैं उतरा.
मानव के नीले कर्मो से थी भरी धरा.



सोमवार, 11 जुलाई 2011

मुक्त आज मैं, जीवन की प्रतिकूल वेदनाओं से,


हृदय बना है सेतु आज जिस पर अम्बर से आकर.
चन्द्र, सूर्य, तारक आनंदित, धरा-भ्रमण करते हैं.
मुक्त आज मैं, जीवन की प्रतिकूल वेदनाओं से,
संसीमित यह तन,असीम का अमृत-भोग करता है.

अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 9 जुलाई 2011

परम पुरुष है एक परम नारी भी है बस एक.


शिवः शक्त्या युक्तो.


परम पुरुष है एक परम नारी भी है बस एक.
नर-नारी में प्रकट हुए हैं बनकर यही अनेक.
इसीलिये,करती अभिलाषा,परम पुरुष की नारी.
नर भी उसी  परम नारी का है प्रतिपल अनुसारी.

Aravind Pandey 

शुक्रवार, 24 जून 2011

ये सेहर थम जाय,इसकी शब न आए अब कभी..



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तुझे सुना तो बहुत दूर से, मगर ये लगा.
बहुत करीब से आवाज़ कोई आई है.
किसी बिहिश्त की बहकी हुई फिजा जैसे,
या कि खिलते हुए चमन की तू रानाई है.


मैं जानता हूँ तुम नहीं हो , मगर फिर भी मैं.
तुम्हें तलाश किया करता हूँ यहाँ से वहां .
वो तुम नहीं हो जो तुम दीख रहे,फिर भी मैं, 
तुम्हें , तुम्हीं सा देखने को ढूढता हूँ यहाँ .


दश्क़ सेहरा में कभी,खो सी गयी थी जो सेहर .
मुद्दतों के बाद फ़ैलाने लगी है रोशनी. 
आओ, हम इसको भिगो दें आब-ए-उल्फत से अभी,
ये सेहर थम जाय, इसकी शब न आए अब कभी..

-- अरविंद पाण्डेय  

सोमवार, 20 जून 2011

नयन पी रहे श्री राधा जी के होठों की लाली


मंद पवन है,यमुना तट है,पुलकित हैं वनमाली.
नयन  पी रहे श्री राधा जी के होठों की लाली.
देख,देख कर उन्हें, पुलक में, वंशी मधुर बजाते.
उनको छू, जो धूल उड़ रही, माथे उसे लगाते.



गीतगोविन्दं : जयदेव 
नामसमेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुं.
बहु मनुतेsतनु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुं ....

-- अरविंद  पाण्डेय



शनिवार, 18 जून 2011

Here, suddenly, silent sun disappeared..


Here, suddenly, silent sun disappeared,
Chirping birds astonished abruptly and feared.

Wild winds came to welcome weary woods.
And, returned to me with dusty goods.

Roaring clusters of clouds are dropping,
Dashing pellets of rain with a sound of throbbing. 

I witness, how darkness draggles and leaves the light behind,
If clumsy clusters of clouds, cover the human mind.

Aravind Pandey


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गुरुवार, 16 जून 2011

त्याग गुरुत्वाकर्षण,मन,अम्बर में तैर रहा है.


१ 
पूर्ण चन्द्र हैं , शुभ्र चंद्रिका नृत्य-निरत अविराम.
अम्बर में अशेष तारक-गण हैं विकसित अभिराम.
त्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
धरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.

२ 
घन-प्रकाश अब ,पिघल,ज्योति-सरिता बन,बह निकला है.
कल कल करती कला चन्द्र की , परमानंद-फला है.
दृश्य, श्रव्य, संस्पर्श-योग्य, सब एक तत्त्व में परिणत.
शुद्ध,  एकरस सत्ता दीपित,  है  अभेद अव्याहत.

३ 
टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
शुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है 
एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.





रविवार, 12 जून 2011

तोड़ेगा,अब,इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को.


स्वामी  जी  के  साथ अरविंद पाण्डेय .
मुजफ्फरपुर.बिहार.२००८
------------------- 
 

१ 
तोड़ेगा अब, इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को .
इस बार हिरन का बच्चा भी पटकेगा पागल हाथी को.
तुम मत समझो जनता अब आंसू-गैस देखकर रो देगी .
इस बार तिरंगा लेकर फिरते नौजवान की जय होगी.

2
अब और न होगा फिर शहीद अनशन से यहाँ जतीन्द्र नाथ.
हम तुम्हे करायेगें अनशन,रिश्वत को,गर,फिर बढे हाँथ. 
है समय अभी,अब बदलो तुम, अपने अपवित्र विचारों को.
अब सहन नहीं कर पाओगे, अपनी कृपाण की धारों को.

3
हम जिएं गरीबी रेखा के नीचे , तुम पांच सितारा में,
हर रोज़ शाम को नहलाते खुद को, मदिरा की धारा में.
हमको अपना चेहरा धोने को स्वच्छ-सलिल के लाले हैं.
तुम अपने चेहरों को रंगते जो भ्रष्ट-कर्म से काले हैं.

४ 
हम पैदल चलते जब सडकों में, दुर्घटना में मरते हैं.
तुम उड़कर जाते हो विदेश,स्विस-बैंक तुम्हीं से भरते हैं.
चीनी,जापानी मालों से भरता बाज़ार हमारा है.
काला-सफ़ेद जो भी धन है , वह बाहर जाता सारा है.

५ 
अब परदे के पीछे से शासन नहीं चलेगा भारत का. 
यह है अशोक-अक़बर की धरती,छोडो शौक़ तिजारत का.
तुमने,भारत में ही रहकर,गांधी का है अपमान किया.
अब छोड़ चले जाओ खुद, रहना है तो सीखो नौलि-क्रिया.

६ 
ईमान सहित जीने की खातिर सीखो प्राणायाम यहाँ.
तुम सांस ले रहे यहाँ,किन्तु ,क्यूँ भेज रहे संपत्ति वहां.
कुछ डरो क़यामत के दिन से,जब न्याय करेगा परमेश्वर.
उस वक़्त तुम्हारे साथ न  होगी. साथ यहाँ  है जो लश्क़र.

७.
हर प्रश्न वहां  बेरोक-टोक, तुमसे ही  पूछा जाएगा .
उत्तर देने को कोई प्रवक्ता, वहां नहीं फिर आयेगा.
बेलौस कुफ्र करने वाले पहले से दोज़ख में होगें.
जो यहाँ नेक-नीयत हैं वे जन्नत में घूम रहे होंगे. 
  

गुरुवार, 9 जून 2011

''सेना'' की आवश्यता क्या ,सेनाएं सभी हमारी हैं.


''सेना'' की आवश्यता क्या  ,सेनाएं सभी हमारी हैं.
जल,थल,अम्बर में शान्ति हेतु अपनी पूरी  तैयारी है.
ये पुलिस,अर्ध-सैनिक बल भी अपनी रक्षा के लिए बने  .
तुम बढ़ो अहिंसा के पथ पर , नेतृत्व इसे अपना देने .

निज संविधान में,हम भारत के लोगों ने उपबंध किए.
जो विधि-विधान का अनुसारी,वह जन,बिलकुल स्वच्छंद जिए.
निर्वाचन अपना कुरुक्षेत्र, मतदान शस्त्र अपना घातक . 
फिर, करो प्रतीक्षा धीर,बढ़ो पथ पर,विवेक के साथ,अथक.

यह  देश, कृष्ण के कर्मयोग की श्वास लिए जीवन जीता .
अमिताभ बुद्ध के आर्य-सत्य का जल,प्रतिदिन सुख से पीता.
इस्लाम हमारा है शरीर ,  वेदान्त हमारी आत्मा है.
इस  दुनिया में हमने देखा जन-जन में बस,परमात्मा है.

हमलोग मनुज में प्रकट हुए परमात्मा का पूजन करते .
अस्तेय,अहिंसा ,सत्य ,शौच ,अपरिग्रह को धारण करते.
कण-कण,जन-जन हो भय-विमुक्त,बस यही हमारी  निष्ठा है.
बस, इन्हीं गुणों से विश्व-मंच पर अपनी दीप्त प्रतिष्ठा है.


-- अरविंद   पाण्डेय     

रविवार, 5 जून 2011

हर लाठी जो सत्याग्रह पर चलती,गांधी को लगती है.


फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.
===================



इतिहास साक्षी है इसका ,
सत्ता की लाठी से अक्सर, 
जागा करता है शेष-नाग,
होकर, पहले से और प्रखर .


पर, हर भ्रष्टाचारी खुद को,
बस अपराजेय समझता है.
लाठी-बंदूकों के बल पर 
उठ कर, मिट्टी में मिलता है.


जो संविधान स्वीकार किया 
था हम भारत के लोगो ऩे.
उसको ही लाठी से घायल 
है किया,निडर,फिर से,तुमने.


हर लाठी जो सत्याग्रह पर 
चलती ,गांधी को लगती है.
गांधी जब घायल होता है,
भारत की आत्मा जगती है.


तुमने तो अब अनजाने ही ,
सोए भारत को जगा दिया.
अब तुम्हें भगा, दम लेगें हम,
अंग्रेजो को ज्यूँ भगा दिया.


भारत के पैसों को जब तुम,
स्विस बैंकों में रख आते हो.
हम उसे माँगने निकले हैं,
तो हमको ही धमकाते हो  .


हमने तुमसे अनुमति लेकर ,
सत्याग्रह था प्रारम्भ किया.
जब तुम इतना डरते थे,फिर,
दिल्ली क्यूँ आने हमें दिया.


जब शस्त्र-हीन सम्मलेन का  ,
मौलिक अधिकार हमारा है.
फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.

दुनिया के देशो से भारत
 जो  कर्ज़ मांगता फिरता है .
तब , तुम जैसे गद्दारों के ,
चेहरों  पर फूल महकता है.


तुम लाठी गोली रखते हो ,
हम अपना सीना रखते है.
रौंदों जितना तुम रौंद सको,
है शपथ तुम्हें, हम कहते हैं.

सीने पर गोली अगर चली ,
वह लौट तुम्हीं को छेदेगी
अपना सीना लोहे का है,
गोली अपना क्या कर लेगी.

अब देख, भयंकर शेषनाग 
से भारत ने  ललकारा  है -
जो धन रक्खा स्विस बैंकों में,
वह सारा, सिर्फ हमारा है.


-- अरविंद पाण्डेय 

शुक्रवार, 3 जून 2011

हरिक लड़की,अगर ताकत है,फिर देवी सी दिखती है.



अकेले वो पडा करता है जो कमज़ोर होता है.
ये जो कमज़ोर,वो लड़की या फिर लड़का नहीं होता.
हमारे मुल्क में ही हैं करोड़ों लडकियां ऐसी .
कि जिनके सामने ''लड़का'' हो पर,''लड़का'' नहीं होता.

हरिक लड़की, अगर ताकत है, फिर देवी सी दिखती है.
अगर ''औरत'' का हो कुछ फख्र,फिर,तकदीर लिखती है.
हरिक चौराह पर लडके उसी का ज़िक्र करते हैं.
हरिक महफ़िल में बस उसकी हसीं  तस्वीर सजती है.

शनिवार, 28 मई 2011

सावरकर को शत बार नमन.




अंग्रेजों के वक्षस्थल पर जो गरज उठा - हम हैं स्वतंत्र .
''अत्याचारों के नाश हेतु अब क्रांति उचित''-का दिया मन्त्र.
अपनी बन्दूको से फिर तो थी बरस  उठी गोली घन घन.
उस अमर विनायक दामोदर सावरकर को शत बार नमन.

-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 24 मई 2011

I honored them with my lips.



Today, in the warm noon,
You touched me with powerful innocence.
I feel embraced by summer flowers ,
 full of sweet essence.

I looked at your sandal colored feet,
enriched by rosy strips.
And, in my fancy, 
I honored them with my lips. 

-- Aravind Pandey 

शुक्रवार, 6 मई 2011

जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया...


पृष्ठ - दो 

५ 
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.

६ 
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब  मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.

काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत  पडी हो.

८ 
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.

(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)

-- अरविंद पाण्डेय .

शब्दार्थ:

मृषा = मिथ्या 
अवगुंठ=घूँघट

सोमवार, 2 मई 2011

मंद मंद बह चला समीरण..


(यह कविता १४/०७/१९८० को लिखी गई थी जो आठ छंदों में है और मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ'' में प्रकाशित है..)
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पृष्ठ - एक
१ 

सरिता का आलिंगन करने नील, सुदूर गगन से.
उस प्रशांत रजनी में शशि, धरती पर उतर पडा था.
अतुलनीय,अमिताभ देह की शुभ्र कांति बरसाकर.
उसने गतिमय सरिता को भी शाशिमय बना दिया था.

२ 

मुक्ति प्राप्त कर रवि की शोषक,संतापक किरणों से.
विहँस रही थी मंद मंद वह अपनी प्राकृत विजय में.
वर्तमान-सुख के सागर में डूबी - उतराई सी.
विगत दुखों को भूल, एक विस्मय सी बनी हुई थी.

३ 

अहं भूलकर, प्रिय के आलिंगन के सुख में डूबी.
उसके चंचल मृदुल करों से मस्त केलि करती थी.
कुमुद-वृन्द के वस्त्र हो रहे अस्त-व्यस्त प्रतिपल थे.
सकल सलिल अनुरागानिल से उर्मिल , अनुकंपित था.


मंद मंद बह चला समीरण उनको कम्पित करता .
लगा गान करने सरिता का रोम-रोम कल स्वर में .
शुभ्र कौमुदी के प्रकाश में उस रसमय रमणी का  .
अंग अंग परिरम्भ-राग से अनुरंजित दिखता था.


( क्रमशः )


--अरविंद पाण्डेय 




सलिल = पानी 
 अनुरागानिल = प्रेम की हवा 
 उर्मिल = लहराता हुआ 
परिरम्भ-राग = आलिंगन का रंग 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति..


स्वप्न :पृष्ठ ९ 
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४५ 
''पूर्ण वसुधा में है परिकीर्ण,
दुःख-सम्मिश्रित सुख का जाल.
अतः,इनमे रहता जो तुल्य,
लांघता वह संसृति का जाल.''

४६ 
''सतत निस्पृहता से जो व्यक्ति,
नित्य करता रहता सत्कर्म.
वही है योगी की प्रतिमूर्ति,
उसी में बसा वास्तविक धर्म.''

४७ 
''हलाहल पीने के भी बाद,
बना रहता है जिसका स्वत्व.
महायोगी पशुपति के तुल्य,
प्राप्त करता है वही शिवत्व.''


४८ 
''कामना का आच्छादन भेद,
प्राप्त करता है नर,सत्त्व.
शीघ्र ही ताज माया निर्मोक,
जान लेता वह मेरा तत्त्व.''

४९  
''चतुर्दश विद्याओं के बीच,
एक मेरा स्वरुप है व्याप्त.
सतत विद्यार्जन में संलग्न,
मनुज मुझको करता है प्राप्त.''

५० 
''मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति,
शक्त जो होता है निष्काम.
सूर्य-मंडल को भी वह भेद,
देख लेता मत्पथ उद्दाम .''

५१ 
''याद रखना ये मेरे शब्द,
वत्स, हे मेरे प्रियतम शिष्य.
देख मचला जाता प्रत्यक्ष,
मोदमय तेरा कान्त भविष्य.''

५२ 
तभी वह मृदुला वत्सल मूर्ति,
हो गई सहसा अंतर्धान.
दानकर मुझे प्रेम-संलिप्त,
एक पावक समदृश  शुचि ज्ञान.

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स्वप्न शीर्षक  ५२ छंदों की इस काव्यमाला का यह अंतिम पुष्प था..

-- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

पान करता था, रूप-मरंद .


मुख-कमल का बस, मैं, बन, भृंग ,
पान करता था, रूप-मरंद .
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स्वप्न :पृष्ठ ८ 
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३७
खडा था मैं आनंद-विभोर,
चपल मन के सब पट थे बंद.
मुख-कमल का बस, मैं, बन, भृंग ,
पान करता था, रूप-मरंद .

३८
 तभी, माँ,मधुराधर को खोल,
मृदु वचन बोलीं, मुझे निहार.
बह उठी थी मानों सर्वत्र,
सुधाकर से अमृत की धार--

३९  
'' क्रांत-दर्शी कवि-दृष्टि समान,
नहीं है मेरा कोई अंत.
व्यापता है बस जग में नित्य,
एक मेरा ही रूप अनंत.

४० 
''गगन के ये सुन्दर श्रृंगार,
सूर्य,तारक,एवं शशकांत.
प्राप्त कर, मेरी एक मरीचि,
सदा हंसते हैं, होकर कान्त.''

४१ 
''मधुर मेरे विहसन के संग,
मुदित हँसने लगती है सृष्टि.
तनिक, यदि',  मुझको आता क्रोध,
प्रलय की होने लगती वृष्टि .''

४२
''देखकर मेरा दिव्य-स्वरुप,
भक्ति में परिणत होता ज्ञान.
सिद्ध योगी में भी तत्काल,
सृष्ट होता मेरा संधान .''

४३
''बुद्धि-अनुशासित-मानस बीच,
सतत, मैं करती मोहक लास्य.
क्रोध-विरहित-मानव ही मात्र,
देख सकता है मेरा हास्य.''

४४
''काम-आसक्त मनुज को शीघ्र,
नष्ट करता है उसका क्रोध.
काम से मानव का राहित्य,
दान करता है उसे सुबोध .''

क्रमशः 

-- अरविंद पाण्डेय