सभ्यता की विचित्र कालावधि है यह .. कोरोना के लॉक डाउन में हज़ार किलोमीटर दूर अपने गांव देस की ओर पैदल चलता हुआ राष्ट्रनिर्माता, अन्नप्रदाता श्रमिक थककर अचेतन होकर गिर जाता और अपने प्राण त्यागता है...वह अपने गांव इसलिए जाना चाहता था कि अगर कोरोना से ही मरेंगे तो अपने गांव में ही मरेंगे ...उसकी ये छोटी सी इच्छा भी यह विराट शक्तिसम्पन्न समाज पूरी नहीं करता ...
....उसकी मृत्यु इस सभ्यता के लिए कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं बनती...इस सभ्यता की वाहक सोशल मीडिया में उसे कोई श्रद्धांजलि नहीं देता...ये विचित्र सभ्यता है जहां के अधिकांश सभ्य लोग, किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसके चर्चित होने की शक्ति के आधार पर श्रद्धांजलि देते हैं..सभ्यता का विचित्र काल-खण्ड है यह !
.... तो मेरी ओर से उन सभी अन्नप्रदाता , राष्ट्रनिर्माता श्रमिकों को सादर विनम्र क्षमायुक्त श्रद्धांजलि जिन्होंने इस कोरोना-काल में अपनी जन्मभूमि के प्रति असीम प्रेम के कारण उसी की ओर चलते चलते मार्ग में ही अपने प्राण त्याग दिए !