पृष्ठ - दो
५
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.
६
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.
७
काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत पडी हो.
८
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.
(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)
-- अरविंद पाण्डेय .
शब्दार्थ:
मृषा = मिथ्या
अवगुंठ=घूँघट
बहुत भावपूर्ण स्वाभाविक कविता ....सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
जवाब देंहटाएंकिंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
बहुत सच कहा आपने, छाया और प्रतिबिम्ब मूल की लील गये हैं।
सम्मानीय पाण्डेय जी, सत्रह वर्ष की आयु में आपके भीतर एक होनहार कवि ने जन्म ले लिया था तभी तो -
जवाब देंहटाएं"स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में."
आज के किंकर्तव्य-विमूढ़ नर को अपनी स्वाभाविक गति को भूल कर प्रतिबिम्बों के पीछे भागते हुए देखा था जो आज अक्षरशः सत्य पाया जा रहा है। आपकी लेखनी और बौद्धिकता को मेरा शत शत नमन!
This poem is slightly tougher for me to understand completely.
जवाब देंहटाएंशब्द काफी कठिन है |