भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी
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स्वप्न :पृष्ठ ६
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२६
तभी गैरिक प्रकाश का पुंज,
लगा घनता को होने प्राप्त.
एक मनमोहक मधुर सुगंध,
लगी अंतर में होने व्याप्त.
२७
एक मंजुल नारी की मूर्ति,
दिखाई पडी मुझे तत्काल.
चरण-चुम्बन से परम प्रसन्न,
विहँसता था गुलाब का जाल.
२८
गात पर था पुष्कल परिधान,
आ रहा था अरुणाभ प्रकाश.
उषा-कर में मानो रवि,बंद,
कर रहा था आनंदित हास.
२९
सुलाक्षा-ललित चरण-नख-वृन्द,
कर रहे थे यह सुन्दर व्यंग-
रागमय होने के पश्चात ,
प्राप्त होता है उनका संग.
३०
कोकनद-कान्त अधर के बीच,
झांकती थी रदालि मुक्ताभ.
यथा, अनुराग-सरोवर मध्य,
खिले हों शेत कमल, अमिताभ.
क्रमशः
---अरविंद पाण्डेय
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गैरिक = गेरुआ रंग का.
पुष्कल = अत्यंत श्रेष्ठ .सुन्दर.
उषा-कर = उषा की किरणे
सुलाक्षा-ललित नख-वृन्द = नाखून में लगाने वाले रंग से सुन्दर बनाए गए नाखून .
कोकनद = लाल कमल
रदालि = दांतों की पंक्ति .
मुक्ताभ = मोती जैसी आभा वाली.