स्वयं पूर्ण जो,करूणा से जिनकी, हो पूर्ण. अपूर्ण,
मात्र स्पर्श से जिनके, तम का , पर्वत होता चूर्ण.
जिनकी ज्ञान-अग्नि से भस्मीभूत अविद्या जीर्ण.
उन गुरु के प्रकाश की सत्ता कण कण में परिकीर्ण.
उन्हीं परम गुरु का प्रकाश सविता में होता व्यक्त.
वही सजल, शीतल, शशांक किरणों में हुए विभक्त.
उन्ही परम गुरु की करूणा बहती है जह्नु-सुता में.
उनके चरणों की कोमलता हंसती पुष्प , लता में.
अम्बर की निर्मेय नीलिमा सदृश वर्ण है उनका.
परम शान्ति के सदृश कांति-दीपित शरीर है उनका.
राग-द्वेष या अभिनिवेश का भय सत्वर मिटता है.
जो उन पर-गुरु का श्रद्धा से स्मरण आज करता है.
ज्ञान-सिन्धु सी आज चंद्रिका नभ में लहराएगी.
सकल धरा पर अक्षर किरणे, अविरल बरसाएगी.
आज परम गुरु की है आज्ञा द्विधा-ग्रस्त मानव को-
चन्द्र-किरण को बना शस्त्र, करदो समाप्त दानव को.
बहुत ही भाव से भरी कविता हैं , सभी लोग इसी दिन का इन्तजार कर रहे हैं .."आज परम गुरु की है आज्ञा द्विधा-ग्रस्त मानव को-
जवाब देंहटाएंचन्द्र-किरण को बना शस्त्र, करदो समाप्त दानव को."
यह पुकार हर मानव को झंकृत करे।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति! सदगुरु को नमन !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ...प्रभु नमन ..
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