पूर्णिमा - परिरंभ से मधुरिम बनी इस यामिनी में,
आज अम्बर में, किरण बन, संतरण मैं कर रहा हूँ.
युग-युगांतर से गगन जो शून्य बन,अवसन्न सा था,
आज उसकी रिक्तता, आनंद से मैं भर रहा हूँ.
पवन-पुलकित पल्लवों के बीच हंसते कुसुम सा मैं,
देवता के चरण - कमलों पर, स्वतः ही झर रहा हूँ.
अब सहस्रों सूर्य , तारक , चन्द्र मेरे रोम में हैं,
था अभी तक रुद्ध,पर,स्वच्छंद ,अब ,मैं बह रहा हूँ.
-- अरविंद पाण्डेय