शुक्रवार, 24 जून 2011

ये सेहर थम जाय,इसकी शब न आए अब कभी..



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तुझे सुना तो बहुत दूर से, मगर ये लगा.
बहुत करीब से आवाज़ कोई आई है.
किसी बिहिश्त की बहकी हुई फिजा जैसे,
या कि खिलते हुए चमन की तू रानाई है.


मैं जानता हूँ तुम नहीं हो , मगर फिर भी मैं.
तुम्हें तलाश किया करता हूँ यहाँ से वहां .
वो तुम नहीं हो जो तुम दीख रहे,फिर भी मैं, 
तुम्हें , तुम्हीं सा देखने को ढूढता हूँ यहाँ .


दश्क़ सेहरा में कभी,खो सी गयी थी जो सेहर .
मुद्दतों के बाद फ़ैलाने लगी है रोशनी. 
आओ, हम इसको भिगो दें आब-ए-उल्फत से अभी,
ये सेहर थम जाय, इसकी शब न आए अब कभी..

-- अरविंद पाण्डेय  

3 टिप्‍पणियां:

  1. उर्दू में हाथ तंग है पर पसन्द आयी।

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  2. देश भक्ति , मातृभक्ति के बाद अलग अंदाज़ की कविता ...
    हर प्रकार से कलम चलती है आपकी ...
    शुभकामनायें !

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  3. इस बार नए अंदाज़ में ..
    खूबसूरत भाव लिए हुए सुंदर अभिव्यक्ति ...!!

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