सोमवार, 11 अप्रैल 2011

स्वप्न-चलचित्र चला तब चारु.

स्वप्न :पृष्ठ 3
११ 
विश्व-विजयी निद्रा से ग्रस्त,
सो रहे थे कुछ नर, जग भूल.
प्रिया-विरहित कुछ दुखित मनुष्य,
सहन करते थे उर में शूल.

१२ 
कल्पना का यह सुन्दर लोक,
देखकर मन था अति सानन्द.
कि सहसा, निद्रा-सुख अनुरक्त.
हो गईं मेरी आँखें बंद.

१३ 
स्वप्न-चलचित्र चला तब चारु,
झर रहा था प्रमोद-पानीय.
दृश्य जो देखा रुचिर नितांत,
नहीं है वह वाणी कथनीय.

१४ 
एक विस्तीर्ण क्षेत्र के मध्य ,
खडा मैं किंकर्तव्य विमूढ़.
देखता था होकर साश्चर्य,
प्रकृति का वह परिवर्तन गूढ़.

१५ 
वहां के कण कण में थी व्याप्त,
सत्त्व-गुण सर्जक गैरिक कान्ति.
शून्य में अतुल शून्यता तुल्य,
चतुर्दिक फ़ैली थी शुभ शान्ति.

क्रमशः 

-- अरविंद पाण्डेय