गुरुवार, 9 अगस्त 2012

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं 


हैं सौम्य,शुद्ध,सुप्रसन्न दश दिशाएँ दीपित.
योगी के चित्त-सदृश निर्मल आकाश अमित .
नक्षत्र,ग्रह,उपग्रह,तारक-गण हैं  प्रमुदित.
धरती के ग्राम,नगर,वन-प्रांतर हैं हर्षित.

कल कल निनादमय तटिनी हो होकर उच्छल.
तट का आलिंगन कर, प्रसन्न होती अविरल.
मधुरिम-सुगंध-परिपूर्ण पवन कर रहा गान.
वन में प्रफुल्ल,पुष्पित वृक्षावलि का वितान.

है स्वतः प्रज्ज्वलित, अग्निहोत्र की अग्नि प्रखर.
जो क्रूर कंस के अनाचार से थी अज्वल .
नक्षत्र रोहिणी, भाद्र-कृष्ण-अष्टमी  दिव्य.
है महाकाल के कृष्ण-नमन से निशा भव्य.

कण कण में व्यापक परब्रह्म,सात्वत,विराट.
स्वरराट, स्वयंभू ,स्वप्रकाश,शाश्वत,स्वराट.
देव-स्वरुप देवकी-गर्भ से प्रकट हुए .
दानव-विदलित मानवता के प्रति अभय लिए.

नभ-सदृश वर्ण,मधुरस्मित,अलकावलि कुंचित.
वक्षस्थल है विद्युन्मय स्वर्णिम-रेखांकित.
कौस्तुभ-संदीपित कंठ ,चतुर्भुज ,चतुर्व्यूह .
कटि पर मधुरिम-गुंजित चंचल किंकिणि-समूह.

स्वर्णिम-पीताम्बर-श्रृंगारित था उच्च स्कंध .
चरणों  में सजती  थी पायल ज्यों वेद-छंद.
नयनों से थी बह रही प्रेम की दिव्य-धार.
साकार हो उठा था अब निर्गुण, निराकार.

अक्षर, अनंत श्री कृष्ण सांत में व्यक्त हुए.
वसुदेव, देवकी,देख उन्हें अनुरक्त हुए.
थी देह पुलक-परिपूर्ण,ह्रदय प्रार्थना-पूर्ण.
स्तुति, पूर्ण-तत्त्व की करती थी वाणी अपूर्ण.



----अरविंद पाण्डेय