हिन्दी कविता और मैं



विश्व इतिहास को प्रभावित करने वाली सभी क्रांतियों की पृष्ठभूमि '' कविता'' ने ही तैयार की. यह कवित्व ही है जो घने अन्धकार में भी प्रकाश का विश्वास बनाए रखता है...और शांत-चित्त होकर, प्रकाश की प्रतीक्षा कर सकता है..हिन्दी कविता की जो दुर्दशा इस समय हो रही वह अत्यन्त कारुणिक है । छंद - मुक्त कविता का प्रारंभ श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने किया था तो उनकी लेखनी में ऐसी शक्ति थी कि वह छंद - मुक्त होते हुए भी कविता में रस-पूर्ण सौन्दर्य और गेयता बनाए रखती थी । परन्तु आज हिदी कविता को उस स्तर पर ला दिया गया है कि इस समय रामधारी सिंह दिनकर , महादेवी वर्मा , सुमित्रानंदन पन्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे कवि अनुपलब्ध हो चुके हैं ।उर्वशी की सौन्दर्य-धारा और कुरुक्षेत्र के प्रचंड-पौरुष से परिपूर्ण कविता की गंगा प्रवाहित करने वाले दिनकर आज स्मृति-शेष हैं ।इस स्थिति में मेरा प्रयास है की हिन्दी कविता-प्रेमी उस स्वर्ण-युग की स्मृतियों से आनंदित हों जब हिदी कविता, विश्व की समस्त भाषाओं और साहित्य की गंगोत्री - संस्कृत-कविता से अनुप्राणित और अनुसिंचित होती, अपने स्वर्ण-शिखर पर विराजमान होकर रस - धारा प्रवाहित कर रही थीअब तक साहित्यकार , साहित्य के स्वरुप की व्याख्या करते आये हैं मगर समस्या यह है कि साहित्य के वर्त्तमान स्वरुप को बदला कैसे जाय .......................हिंदी-साहित्य के छायावादी दृश्य-परिवर्तन के बाद साहित्य का यही स्वरुप हमारे सामने प्रमुखता से उपस्थापित किया गया है ..पश्चिम के अपरिपक्व सामाजिक और साहित्यिक दर्शन का अपरिपक्व रूप से नक़ल करने वालों ने हिन्दी-साहित्य को एक निरुद्देश्य शाब्दिक धंधा बना कर रख दिया ...............अब आगे की ओर सकारात्मक-गति आवश्यक है क्योंकि कविता ही आज के युग की सर्वाधिक शक्तिमती मुक्ति-दात्री है. ....................
................. परम्परागत शास्त्र विशेषतः वेद, वास्तव में काव्य की अतिशय आध्यात्मिकता से सुगन्धित किन्तु अत्यंत व्यावहारिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं ---------- कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः
वेदों में परमात्मा को प्रथम कवि बताया गया और उसे स्वयमेव उत्पन और सर्वतः उत्पन्न कहा गया ..यह परिभाषा आज भी साहित्यकारों , विशेषतः कवियों के लिए अक्षरशः सटीक है ..कवि भी प्रारंभ से अब तक , स्वयमेव उत्पन और सर्वतः उत्पन्न होता रहा है ..अर्थात् कवि , परमात्मा के सर्वाधिक समकक्ष कहा जा सकता है ..क्योकि वह आतंरिक और बाह्य जगत में घटित परिघटनाओं से उत्पन्न अनुप्रेरणाओं को शब्दों में रूपांतरित कर प्रवाहित करता है ..समाज के साथ साहित्य का शाश्वत सह-सम्बन्ध होता है ..विशेषतः काव्य अर्थात कविता का ..भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा में , काव्य को लक्ष्यहीन नहीं कहा गया ..
काव्यं यशसे,
अर्थकृते,
व्यवहारविदे ,
शिवेतरक्षतये,
सद्यःपरनिर्वृतये,
कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ..
काव्यप्रकाश-कार मम्मट ने काव्य के उपर्युक्त प्रयोजन बताए हैं .
.............कोई कवि, काव्य-रचना क्यों करता है ?
उसका प्रयोजन है :
यश- प्राप्ति ,
आजीविका ,
सामाजिक व्यवहारों का ज्ञान ,
अकल्याणकारी कार्यों से मुक्ति ,
तत्क्षण ही परमानंद की प्राप्ति ,
स्त्री की तरह अप्रत्यक्ष प्रेरक उपदेश ..


अरविंद पाण्डेय 



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