गुरुवार, 16 जून 2011

त्याग गुरुत्वाकर्षण,मन,अम्बर में तैर रहा है.


१ 
पूर्ण चन्द्र हैं , शुभ्र चंद्रिका नृत्य-निरत अविराम.
अम्बर में अशेष तारक-गण हैं विकसित अभिराम.
त्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
धरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.

२ 
घन-प्रकाश अब ,पिघल,ज्योति-सरिता बन,बह निकला है.
कल कल करती कला चन्द्र की , परमानंद-फला है.
दृश्य, श्रव्य, संस्पर्श-योग्य, सब एक तत्त्व में परिणत.
शुद्ध,  एकरस सत्ता दीपित,  है  अभेद अव्याहत.

३ 
टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
शुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है 
एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.





5 टिप्‍पणियां:

  1. टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
    शुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
    सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है
    एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.

    आपकी भावपूर्ण कविता पढ़ते पढ़ते ही ध्यान की अनुभूति होने लगी है.... आभार !

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  2. कहीं पहुँचकर तो देह के ऊपर उठ जाता है अस्तित्व।

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  3. त्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
    धरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.

    अद्वितीय रचना ...!!

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  4. आपकी ये उत्कृष्ट कोटि की कविता यह प्रमाणित करती हैं क़ि कवि की सत्ता सार्वभौम एवं सर्वोच्च है......

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