१
पूर्ण चन्द्र हैं , शुभ्र चंद्रिका नृत्य-निरत अविराम.
अम्बर में अशेष तारक-गण हैं विकसित अभिराम.
त्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
धरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.
२
घन-प्रकाश अब ,पिघल,ज्योति-सरिता बन,बह निकला है.
कल कल करती कला चन्द्र की , परमानंद-फला है.
दृश्य, श्रव्य, संस्पर्श-योग्य, सब एक तत्त्व में परिणत.
शुद्ध, एकरस सत्ता दीपित, है अभेद अव्याहत.
३
टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
शुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है
एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.
टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
जवाब देंहटाएंशुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है
एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.
आपकी भावपूर्ण कविता पढ़ते पढ़ते ही ध्यान की अनुभूति होने लगी है.... आभार !
भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंकहीं पहुँचकर तो देह के ऊपर उठ जाता है अस्तित्व।
जवाब देंहटाएंत्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
जवाब देंहटाएंधरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.
अद्वितीय रचना ...!!
आपकी ये उत्कृष्ट कोटि की कविता यह प्रमाणित करती हैं क़ि कवि की सत्ता सार्वभौम एवं सर्वोच्च है......
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