सोमवार, 28 मई 2012

स्फोटवाद के द्रष्टा:महर्षि पतंजलि



राजनीतिक और आध्यात्मिक स्फोटवाद के द्रष्टा :महर्षि पतंजलि 
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( बिहार शताब्दी वर्ष के बौद्धिक-समारोह  हेतु बिहार राज्य अभिलेखागार,पटना द्वारा  प्रकाशित   '' बिहार गौरव '' नामक   संग्रह-ग्रन्थ  में प्रकाशनार्थ लिखित   लेख  )



जीवन और जगत के प्रति भारतीय-दृष्टि , विश्व की अन्य संस्कृतियों की  अपेक्षा अधिक व्यावहारिक और शान्ति-परक  रही  है ..  हमने समाज को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले व्यक्तित्वों के जीवन , जन्म एवं जैव-परम्परा के बारे तथ्य सुरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं समझी क्योंकि इसी से मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद के प्रचार की संभावना पैदा होती है.प्राचीन भारत में गायों की सुरक्षा और विश्राम के लिए विभिन्न ऋषियों ऩे आश्रय स्थल बनाए थे जिन्हें गोत्र कहा जाता था..गां त्रायते इति गोत्रं .. अर्थात जहाँ गायों को त्राण मिलता हो उसे  गोत्र कहा गया.सभी अवगत हैं कि भारद्वाज,शांडिल्य , वसिष्ठ आदि ऋषियों के नाम से गोत्र आज भी प्रवर्तित-प्रचलित हैं.और, गोत्र-स्थापना-काल से ही , एक गोत्र की कन्या या पुरुष का विवाह, उसी गोत्र के पुरुष या कन्या से नहीं करने का नियम था.यह नियम, बिना इसकी ऐतिहासिक-वैज्ञानिकता पर पुनर्विचार किये, आज भी उसी रूप में प्रवर्तित है.अर्थात गोत्र-स्थापक  ऋषियों  की जैव या सामाजिक परम्परा सुरक्षित बने रहने के कारण आज गोत्र के नाम पर लोगो के बीच एक अवैज्ञानिक भेद बना हुआ है.
           व्यक्ति की अभिव्यक्ति मूलतः उसके विचारों और उसकी दार्शनिक-दृष्टि के माध्यम से होती है.. किसने, कहाँ जन्म लिया यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना यह महत्त्वपूर्ण है कि जन्म के बाद के उसके अवदान क्या रहे.. उपनिषद में निर्दिष्ट - 
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः 
आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मननेन निदिध्यासनेन  इदं सर्वं विज्ञातं भवति .. 
यह आत्मदर्शनवाद ही भारतीय संस्कृति का वह मूल प्रेरक तत्त्व है जिसके प्रभाव में  हमारी सारी सभ्यता निर्बाध और अव्यवहितरूप से एकस्वर, एकगति से  प्रवाहित होती रही है.. हमने शुद्ध मानव-हितकारी विचारों के विशाल सागर के सदृश , विश्व की समस्त सभ्यताओं की तृषित-भूमि को तृप्त करने हेतु,  ऐसे बादलों को जल-परिपूर्ण किया जो गगन-संतरण करते हुए चिंतन-जल की वर्षा करते रहे और शाश्वत चिंतन-जल के अभाव में तृषित धरा, धन्य होती रही.. 
                 बीज के ज्ञान से उस बीज से निष्पन्न विशाल वृक्ष का पूर्ण ज्ञान हो जाता है..क्योकि बीज का बीजत्व ही वृक्ष के रूप में प्रकट करता है स्वयं को .. इसीप्रकार , किसी व्यक्ति की आत्मा के प्रकाश के बोध से उस प्रकाश को विकीर्ण करने वाले व्यक्ति का भी सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है.. अन्य भारतीय ऋषियों, महाकवियों आदि की तरह  महासेनापति  सम्राट पुष्यमित्र शुंग  के महामात्य महर्षि पतंजलि के जीवन के वस्तुपरक तथ्य हमें उसी सुस्पष्ट रूप में उपलब्ध नहीं हैं जिस सुस्पष्ट रूप में उनकी दार्शनिक-दृष्टि उपलब्ध है ..और, इस लेख में , इसीलिये, हम , महर्षि पतंजलि  के व्यक्तित्व के इस सर्वाधिक अमहत्वपूर्ण  पक्ष पर विशेष चर्चा नहीं करेगे.. 
              महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ-त्रय --  १ . चरक-संहिता २. महाभाष्य ३. योगसूत्र के अध्ययन से कोई भी व्यक्ति यह मानने के लिए विवश होगा कि अब तक के सम्पूर्ण मानव इतिहास में  श्री कृष्ण के बाद पतंजलि सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए हैं.. यह कहना समीचीन है , प्रशंसित-प्राचीन नहीं कि चरक-संहिता आज तक के चिकित्साशास्त्र के समस्त शोधों को स्वयं में समाहित किये हुए है.. आगे भी जो शोध संभावित हैं उनके बीज और विस्तार भी उसमें प्राप्त हैं..
                      समाज की  सुव्यस्थित प्रगति के लिए व्यक्ति की देह, मन और वाणी का शुद्धीकरण आवश्यक होता है..जिन महापुरुषों में लोकसंग्रह के महाभाव के कारण लोक-कल्याण की इच्छा हुई उन्होंने उपर्युक्त तीन पक्षों पर अपना चिंतन और दर्शन, समाज के समक्ष प्रस्तुत किया..
                    इन सभी महापुरुषों में महर्षि पतंजलि श्रेष्ठतम एवं अतिशय लोकोत्तर हैं क्योकि उनके द्वारा देह-चित्त शुद्धि के लिए चरक संहिता, मानस-शुद्धि के लिए योगसूत्र एवं वाक्-शुद्धि हेतु महाभाष्य का प्रणयन किया गया..महाभाष्य, यद्यपि महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी की व्याख्या है किन्तु यह एक  आत्मपूर्ण दर्शन-ग्रन्थ भी है ..
            भारतीय साम्राज्य के लोक-स्वास्थ्य के लक्ष्य से महर्षि द्वारा प्रणीत  चरक संहिता में एक विशिष्ट ऐतिहासिक काल-खंड का वर्णन किया गया है जिसमें उस संहिता के प्रणयन की आवश्यकता और औचित्य की परिस्थितियां प्रस्तुत  की गई है.. इतिहास के अनुसार, सत्य युग में प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के समस्त नियमों का पालन करते हुए, सर्वभूत-हित के सार्वभौम सिद्धांत के अनुसार जीवन यापन करता था..किसी भी व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति अथवा  चराचर जगत के किसी भी अस्तित्व से कोई संघर्ष नहीं होता था..प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक अन्य व्यक्ति के साथ समस्वर था..
'' न राज्यं न राजासीत, न दण्डो न च दाण्डिकः 
   धर्मेणैव  प्रजाः सर्वाः  रक्षन्ति  स्म  परस्परं .''
अर्थात , सत्ययुग में न राज्य था, न राजा था, न दंड था न दंड देने वाला था क्योकि सभी व्यक्ति सार्वभौम धर्म के अनुसार जीवन यापन करते हुए अन्य सभी सह-जीवियों के अधिकारों की रक्षा उसी रीति से करते थे मानों वे स्वयं के अधिकारों की रक्षा कर रहे हों..इसलिए, शत्रुता-विहीन समाज का अस्तित्व था सत्ययुग में.. किन्तु, जब सत्ययुग  का अंतिम काल-खंड निकट आया तब लोगों में धर्म के उल्लंघन की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई और लोगो का  शरीर  रुग्ण होने लगा..यह काल , सत्ययुग के द्वापर में संक्रमित होने का काल था.. 
                इस स्थिति को देख कर , उस समय के लोक-सेवक , जिन्हें  ब्राह्मण कहा जाता था, अतिशय चिंतन-शील हुए और हिमालय की तराई में इस गंभीर मानवीय समस्या के निराकरण के लिए एक महासम्मेलन आयोजित किया गया जिसमे उस समय के समस्त मन्त्र-द्रष्टा  महर्षि गण , यथा वसिष्ठ,विश्वामित्र,गालव,कण्व,भारद्वाज आदि उपस्थित हुए और उन्होंने मनुष्य-शरीर को नीरोग रखने हेतु एक संहिता के निर्माण का संकल्प लिया .. उस संकल्प को क्रियान्वित करने का दायित्व महर्षि पतंजलि को दिया गया जिन्होंने चरक-संहिता नाम से विश्व का प्रथम चिकित्साशास्त्रीय ग्रन्थ प्रस्तुत किया..इसमें जैव-स्वास्थ्य के समस्त नियमों को संहिता-बद्ध किया..
              चरक संहिता विश्व का  प्रथम चिकित्साशास्त्रीय ग्रन्थ  है जो मनुष्य के समग्र-स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के समस्त उपायों का वर्णन करता  है..इसमें देह के साथ साथ मन और चित्त को भी स्वस्थ रखने के उपायों का वर्णन भी है .. आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र एवं सिगमंड फ्रायड ऩे भी बहुत बाद में, पतंजलि के सिद्धांत को अग्रसर करते हुए , यह स्वीकार किया कि देह में उत्पन्न होनेवाले अधिकांश रोग पहले मन में उत्पन्न होते हैं फिर वहाँ से उनका प्रतिबिम्ब देह में उतरता है जो रोग के रूप में दिखाई देने लगता है.. रोगों की मनोकायिकता के सिद्धांत के आलोक में, चरक-संहिता समग्र-चिकित्सा-प्रणाली का प्रवर्तन करती है..
               चरकसंहिता के पुरुषविचयशारीरं , पंचम अध्याय में महर्षि ऩे आध्यात्मिक-शारीर के विज्ञाता महर्षि अग्निवेश, आत्रेय , पुनर्वसु  आदि का प्रमाण के रूप में सन्दर्भ दिया है..अर्थात इस सन्दर्भ से भारत की वह एकात्मवादी  चिंतन पद्धति भी व्यक्त होती है जिसमे कोई भी महर्षि यह दावा नहीं करते कि कोई विचार उनका निजी आविष्कार है अपितु प्रत्येक महर्षि उस शाश्वत , सार्वभौम , सर्व-जन-कल्याणकारी,प्राचीन होते हुए भी चिर-नवीन ब्रह्मवादी परम्परा के एक प्रतिनिधि के रूप में ही स्वयं को प्रस्तुत करते हैं..यहाँ उल्लेखनीय प्रतीत होता है कि अर्वाचीन ऋषियों में स्वामी विवेकानंद एकमात्र ऋषि  हैं जिन्होंने शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन के आयोजकों यह कहा था कि मैं भारत के सभी प्राचीन ऋषियों की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने उन ऋषियों द्वारा प्रवर्तित ईश्वरीय दर्शन - एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति के दर्शन का अनुसरण करते हुए इस विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया है..
               चरक संहिता में , प्रकृति में प्राप्त तत्त्वों के,  मानव शरीर में व्यक्त स्वरूपों का अद्भुत निदर्शन किया गया है.. एक उदाहरण  समीचीन और उपादेय होगा -- यथा खलु ब्राह्मी विभूतिः लोके तथा  पुरुषेप्यान्तरात्मिकी विभूतिः ..यस्त्विन्द्रो लोके स पुरुषे अहंकारः .. तमो मोहः ज्योतिः ज्ञानम् .. यथा कृतयुगमेव  बाल्यं , यथा त्रेता तथा यौवनं , यथा द्वापरं तथा स्थाविर्यं यथा कलिरेवमातुर्यम यथा युगान्तः तथा मरणं .. प्रकृति में प्राप्त तम पुरुष में मोह के रूप में व्यक्त होता ऐ तथा प्रकृति में प्राप्त प्रकाश , पुरुष में ज्ञान के रूप में व्यक्त होता है.. कलियुग को  समाज की वृद्धावस्था के प्रतीक के रूप में प्रस्तुति शरीरविज्ञान की दृष्टि से पूर्ण सार्थक है अर्थात जिस प्रकार पुरुष की  वृद्धावस्था में शरीर के अंग शिशील होने लगते हैं..इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है ..स्मृतिलोप आदि मस्तिष्क की अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं उसी प्रकार कलियुग में विराट पुरुष के अंगो में शैथिल्य का संचार होता है... यहाँ यह ध्यातव्य है कि चरकसंहिता में जहान भी पुरुष शब्द का प्रयोग है व - स्त्री पुरुष दोनों के लिए है .. दिग्भ्रमित स्त्रीवादी इसे पतंजलि के पुरुष-प्रभुत्ववाद के रूप में देख कर द्रष्टि-भ्रम से ग्रस्त हो सकते  हैं - इसलिए यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है.. 
                संहिता के निदानस्थान के उन्माद-निदानाध्याय में उन्माद  के  कारण सहित स्वरूपों की जो प्रस्तुति है वह आज के उन्नत मानस रोग विज्ञान के लिए भी मार्ग दर्शक है.. आज के मनोरोग  वैज्ञानिक, रोगों के लक्षणों और उनके समाधान की आपाततः क्षतिकारक पद्धति प्रस्तुत करते हैं किन्तु महर्षि पतंजलि ऩे उन्माद का वातोन्माद, पित्तोन्माद , श्लेश्मोन्माद  और त्रिदोषोन्माद के रूप में वर्गीकरण करते हुए जो कारण-विश्लेषण और समाधान दिया है वह अधुनातन मनो चिकित्सकों के लिए लाभदायक और अनुकरणीय है..
       वृहत्तर भारतीय साम्राज्य की  लोक-शिक्षा  के लक्ष्य से , पाणिनि की अष्टाध्यायी की व्याख्या करने वाला महाभाष्य, महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत अध्यात्मिक स्फोटवाद की दृष्टि देने वाला विश्व का प्रथम व्यवस्थित ग्रन्थ है...महाभाष्य , पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या तो करता ही है, उन सूत्रों में अन्तर्निहित राजनीति एवं देश , वहाँ के मौसम , संस्कृति और  मानव-विज्ञान  के आधार पर परिवर्तनशील भाषा , एक ही शब्द के परिवर्तनीय उच्चारण के साथ साथ अज्ञेय दार्शनिक तत्त्वों को भी स्पष्ट करता है....एक ही शब्द देवदत्त कैसे देश-भेद से देवदिन्न हो जाता है ..या नरेन्द्र कैसे बंगाल में नरेन् , पंजाब में नरिंदर हो जाता है -- इसकी समाज-राजनीतिक विवेचना की महाभाष्य ऩे..महाभाष्य में प्रस्तुत तथ्यों से ही यह ही इतिहासकारों ऩे यह निर्णीत किया कि जितनी  व्यापक भौगोलिक वस्तु-स्थिति की प्रस्तुति महाभाष्य में की गई है उतनी व्यापकता के साथ लिखने वाला व्यक्ति राजनीति का भी महापंडित रहा होगा.. 
                   यहीं  से इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि हुई कि महासेनापति पुष्यमित्र शुंग के महामात्य महर्षि पतंजलि ही हो सकते थे क्योकि जिस '' राजीतिक स्फोटवाद '' का प्रयोग करते हुए पुष्यमित्र शुंग ऩे महान मौर्य साम्राज्य के सम्राट वृहद्रथ का शिरच्छेद करते हुए वृहद्रथ के ही पूर्वज सम्राट चन्द्रगुप्त के राष्ट्रवादी शासन तंत्र को पुनर्स्थापित किया उसका अनुप्रेरण महर्षि पतंजलि जैसा आध्यात्मिक स्फोटवादी   विराट और भगवत्ता के अंश से दीपित व्यक्तित्व ही कर सकता था.. 
               महाभाष्य में मात्र एक बार -- एक व्याहारिक उदारण के रूप में - इह पुष्यमित्रं याजयामः - वाक्य का प्रयोग करते हुए महर्षि पतंजलि ऩे सम्राट को भी गौरवान्वित करने वाले अपने गुरु-सम्बन्ध का व्यपदेश किया .. सम्प्रति-प्राप्त अन्य  किसी भी सन्दर्भ-ग्रन्थ में महर्षि और महासेनापति के संबंधों का उल्लेख दृश्य नहीं है.. संभव है ऐसे सन्दर्भ-ग्रन्थ रहे हों और नालंदा और विक्रमशिला में बुभुक्षित अग्नि-देव ऩे उन्हें उदरस्थ कर लिया हो..
      पुष्यमित्र का राष्ट्रवादी-स्फोट या इस शब्द को और अधिक स्पष्ट करने लिए विस्फोट भी कह लें , एक सुचिंचित राजीतिक-दर्शन और जन-मनोविज्ञान पर आधारित था .. पुष्यमित्र ऩे महर्षि पतंजलि के आदेशानुसार तीन अश्वमेध यग्य किये -- अतएव उन्हें त्रिरश्वमेधयाजी कहा गया, किन्तु, स्वयं को उन्होंने कभी सम्राट विशेषण-युक्त नहीं कराया.. इस निर्णय में वास्तव में उनकी महामात्य चाणक्य के राजनीतिक दर्शन के प्रति गहन श्रद्धा , स्वयं को सम्राट चन्द्रगुप्त का वास्तविक उत्तराधिकारी मानते हुए कर्तव्य-पालन  की अभीप्सा ही मुख्य कारण थी  तथा , यदि, क्षुद्र राजनीतिक दृष्टि से भी देखें तो मौर्य-वंश के प्रति समर्पित राज्य-सेवकों और जन सामान्य के विद्रोह के बीज को समाप्त कर देने का एक व्यावहारिक लक्ष्य भी माना जा सकता है.. विश्व-इतिहास की सभी राज्य-कान्तियों के अध्ययन से सुस्पष्ट होगा कि क्रान्ति करने वाले प्रत्येक नए शासक ऩे पराजित शासक की पूरी परम्परा को प्रतिस्थापित कर दिया और पराजित व्यक्ति के किसी पूर्वज के उत्तराधिकारी के रूप  में कार्य नहीं किया किन्तु पुष्यमित्र की क्रांति से स्वरुप और उसके अनुवर्ती इतिहास से प्रमाणित है कि उन्होंने वैयक्तिक भौतिक लिप्सा या यश के लक्ष्य से क्रान्ति नहीं की थी अन्यथा अखंड भारत के चक्रवर्ती सम्राट के रूप में नामांकित होने की यश-लिप्सा को कौन त्याग सकता है.. यह शेषावतार महर्षि पतंजलि के शिष्य और निदेशित-सम्राट पुष्यमित्र शुंग ही थे जिन्होंने स्थितप्रग्य के रूप में '' सम्राट '' के परम मूल्यवान विशेषण को, अनायास ही, स्पर्श भी नहीं किया... 
            यह कहा जाता है कि पतंजलि-निदेशित पुष्यमित्र शुंग ऩे बौद्ध-वर्ग के विरुद्ध एक जन-अभियान  संचालित किया जिसमें बौद्ध होने मात्र के आधार प्रताड़ित करने की बात कुछ कथित इतिहास-लेखकों  द्वारा कही जाती है वह इस पारंपरिक प्रवाद-अफवाह के आधार पर बिना शोध किये या साक्ष्य प्राप्त किये बिना ही कही गई कि बौद्ध जातकों में पुष्यमित्र की एक सार्वजनिक घोषणा का उल्लेख है जिसमें यह कहा गया था कि - '' जो मुझे श्रमण का एक सर काट कर देगा उसे मैं सौ दीनार दूंगा.. यो मे श्रमणशिरो  दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि .,किन्तु पश्चाद्वर्ती शोध से यह साबित हो चुका है कि किसी भी बौद्ध जातक में यह वाक्य प्रामाणिकतया प्राप्त नहीं था.. यह प्रवाद कथित वामपंथी इतिहास से अनभिग्य लेखकों ऩे प्रचारित किया..इन लोगो ऩे इन सारे प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्यों पर विचार ज्ञानपूर्वक नहीं किया कि पुष्यमित्र शुंग पाटलिपुत्र में ही निवास करते थे.वह उनके विशाल साम्राज्य की राजधानी था और नालंदा तथा तक्षशिला विश्व विद्यालय पाटलिपुत्र के सर्वाधिक निकट एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण  बौद्ध-केंद्र थे किन्तु पुष्यमित्र के शासन-काल में इन विश्व विद्यालयों की महत्ता, प्रगतिशीलता  और  श्रेष्ठता अपने चरम उत्कर्ष पर थी.. इन दोनों विश्वविद्यालयों सरलता से नष्ट किया जा सकता था यदि शुंग-शासन सम्पूर्ण बौद्ध धर्म के विरुद्ध होता.किन्तु ऐसा था नहीं.. महासेनापति ऩे स्वयं को निरपेक्षभाव से पूर्ववर्ती राष्ट्रवादी सम्राट चन्द्रगुप्त के परमोअरा का वाहक ही समझा ..  शुंग-युग ही वह युग है जो आगामी एक हज़ार वर्ष तक  अपराजेय रूप से अव्याहत गति से चलने वाले भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग का सशक्त प्रारम्भिक चरण था जिसमें महामात्य चाणक्य के अर्थशास्त्र के सभी सिद्धांतों को क्रियान्वित करते हुए, गंभीर अनुशासन के साथ , अखंड वृहत्तर भारतीय साम्राज्य की अभिकल्पना, अभिरूपण , अभिव्यक्ति एवं अभिसुरक्षा के समग्र उपाय सुनिश्चित किये गए और यह सब कुछ एक सर्वत्यागी सन्यासी पतंजलि के मार्ग दर्शन में हुआ.
                 भारतीय साम्राज्य में लोक-मुक्ति के दिव्य लक्ष्य  से महर्षि ऩे योग सूत्र की प्रस्तुति की जिसका प्रथम सूत्र है --  अथ योगानुशासनं.ब्रह्मसूत्र  का प्रथम सूत्र है -- अथातो ब्रह्मजिज्ञासा.. योगसूत्र  के प्रथम सूत्र से यह द्योतित संकेतित है कि महर्षि पतंजलि यद्यपि जागृत संत एवं मंत्रद्रष्टा ऋषि  थे किन्तु उनका चिंतन , उस चिंतन की अभिव्यक्ति में शासन-सूत्र धार का  का रंग और उसकी सुगंध सपष्ट व्यक्त होती थी..इसीलिये महर्षि के योगसूत्र का प्रारभ अनुशासन शब्द से होता है.. 
                      महर्षि ने , पुष्यमित्र को माध्यम बनाकर, जिस प्रकार, नागरिक-अधिकारों की सम्पूर्ण सुरक्षा के लक्ष्य से, एक सशक्त, सर्वतो-सुरक्षित एवं अनुशासित समाज को उसके परम वैभव की ओर अग्रसर करने के लिए एक राजनीतिक शासन प्रणाली को प्रवर्तित किया उसी प्रकार , व्यक्ति के चित्त को सम्पूर्ण रूप से अनुशासित करते हुए , उसकी परम मुक्ति हेतु , योग-साधना प्रणाली का प्रवर्तन भी किया ..
                      चरकसंहिता, महाभाष्य और योगसूत्र के अनुशीलन से उसमें प्राप्त उत्प्रेक्षाएं, उपमाएं, प्रतीक-प्रयोग इन तीनों महाग्रंथों के एक ही महर्षि द्वारा प्रणीत होने की  प्रामाणिकता  पुष्ट करते हैं..वास्तव में . योगसूत्र का द्वितीय सूत्र योग की परिभाषा है --  योगश्चित्तवृत्ति निरोधः एवं तृतीय -- तदा द्रष्टु : स्वरूपे अवस्थानं अर्थात चित्तवृत्तियों के निरुद्ध होने से द्रष्टा की स्वरुप-स्थिति हो जाती है..बिल्कुल यही अर्थ चरक संहिता के स्वस्थ शब्द का भी है..स्वस्थ अर्थात स्व में, स्वरुप में , आत्मा में स्थित .. यह आत्मा की ही आत्मा में अवस्थिति, बाधित होती है रोगों से. इसलिए , दोनों शास्त्रों में महर्षि ऩे बाधक-तत्त्वों को क्लेश का नाम दिया. 
                   क्लेश को वर्गीकृत करते हुए महर्षि ऩे सूत्र दिया-अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ..
               अविद्या , अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश --ये पांच क्लेश बताये गए . यही पाचों क्लेश आज भी नवीन चिकित्सा शास्त्र के अनुसार शरीर और मन के समस्त रोगों के कारण हैं..राग और द्वेष से ही तनाव उत्पन्न होता है जिससे हृदय-गति.रक्तसंचार आदि की  प्राकृतिक प्रणाली अपने स्वरुप से च्युत हो जाती है जिससे शरीर के सारे घातक रोगों का जन्म होता है..यही  स्वरुपच्युति ही , देह , मन , और आत्मा तीनों के लिए तीनो संहिताओं में व्याख्यायित की गई...
                     अविद्या की जो परिभाषा महर्षि ऩे दी उसके आगे का चिंतन  मानव-मस्तिष्क के लिए संभव नहीं-- अनित्याशचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या अर्थात अनित्य , अपवित्र , दुःखकारी और अनात्म वस्तुओं में नित्य होने, पवित्र होने , सुखकारी होने तथा आत्मस्वरूप होने का भान ही अविद्या है.. यह सूत्र आज की सारी मनो-समस्याओं एवं तदनुसारी दैहिक-समस्याओं  की सकारण व्याख्या करता है..आज भी भौतिक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और चिकित्सावैज्ञानिक यह मान रहे , यह कह रहे कि प्रत्येक ऐसी वस्तु जो सुखकारी प्रतीत हो अंततः सुख या स्वास्थ्य दे ही - यह आवश्यक नहीं.आज की गत्वर जीवन पद्धति के प्रति सतर्क करते हुए  स्वास्थ्य संबंधी अनेक मार्ग-दर्शन चिकित्साशास्त्रियों द्वारा दिए जा रहे जिनमें आपाततः , स्वादिष्ट , सुखकारी प्रतीत होने वाले फास्ट फ़ूड , तीक्ष्ण -ध्वनि वाले संगीत, एवं इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के द्वारा लिए जाने अन्य विषयों के स्वादों का सकारण वर्जन किया जाता है..यह वास्तव में , अविद्याग्रस्त व्यवहार एवं जीवन-यापन का ही निवारण है..
                        राग की परिभाषा महर्षि ऩे दी है - सुखानुशयी रागः ..आज Addiction अर्थात लत विवश आदतों के बारे में आधुनिक मनोविज्ञान ऩे जो बाते कही हैं वे इस सूत्र की ही व्याख्या या भाष्य हैं.. जिस कार्य में आपाततः सुख की अनुभूति होती है उसे मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीव बार बार करना चाहता है..और यहीं से उस कार्य-व्यापार के प्रति राग या उसकी लत या विवश-आदत जन्म लेती है.. महर्षि ऩे इसे भी क्लेश कहा अर्थात यह एक मनोरोग है..
           यद्यपि इस लेख में यह कहना कुछ पाठकों को अस्वाभाविक प्रतीत हो सकता है किन्तु उपलब्ध वैयक्तिक साक्ष्यों तथा सामान्य साक्ष्यों से मेरा यह मानना है कि कि महर्षि पतंजलि भगवान बुद्ध के पूर्ववर्ती थे एवं क्योकि वे दीर्घजीवी थे और हैं , इसलिए ,पुष्यमित्र के काल में भी वे वर्तमान थे और उन्होंने लोक-संग्रह के लिए, वृहद्रथ की राष्ट्र-घातक नीतियों के कारण, राजनीतिक स्फोट वाद के माध्यम से उन्हें सत्ताच्युत कराया..
                         इस प्रकार ,  भारतीय साम्राज्य के महामात्य के रूप में महर्षि पतंजलि ऩे लोक-स्वास्थ्य, लोक-शिक्षा एवं लोक-मुक्ति के तीन आयामों पर जो व्यावहारिक चिंतन प्रस्तुत किया और जिस शत-प्रतिशत सफलता के साथ उसका क्रियान्वयन पुष्यमित्र शुंग के द्वारा कराया वह विश्व इतिहास में अन्यतम है और अन्यत्र अनुपलब्ध है.
             
-- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 12 मई 2012

जो कुछ भी है तू, बस, तेरी माँ का ही है असर.


हो देवता या हो कोई जन्नत का फ़रिश्ता.
पैदा न कर सकेगा खून-ओ-दूध का रिश्ता .
माँ ! तूने अपने खून से ही दूध बनाकर.
पाला है प्यार से खुद अपना दूध पिलाकर.

तू है कहीं जन्नत में यहाँ मै ज़मीन पर.
फिर भी तू मेरे पास है जैसे मेरे ही घर.


बांहों में यूँ लिपटाके मुझे रात को सोना.
बेशर्त मुहब्बत में हरिक पल ही भिगोना.
हर चीज़ ही पाने को मेरा जिद में वो रोना.
सब कुछ मुझे देने को तेरे चैन का खोना.

हर साँस मेरे दिल को देके जाती है खबर.
जो कुछ भी है तू, बस, तेरी माँ का ही है असर.


-- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 6 मई 2012

विपश्यना थी मधुरिम मदिरा..

बुद्ध  पूर्णिमा 




बुद्ध के बिहार को जानने के लिए इस साइट पर अवश्य जांय :

http://biharbhakti.com/home


-- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

अब बिना रीति, तुमसे ,हे शिव ! हो रही प्रीति..

सर्वं खल्विदं ब्रह्म ..
बस एक भाव, बस एक शक्ति की है प्रतीति.
अब बिना रीति, तुमसे ,हे शिव ! हो रही प्रीति....

अद्वैत भाव की उपलब्धि ही जीवन परम ध्येय है जिसका किंचित आभास न्यूटन , आइंस्टीन जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को जीवन के अन्तिक चरण में मिल पाता है ....... So, Good Morning and Happy This Precious Day of our lives.


शनिवार, 14 अप्रैल 2012

धर्म और विज्ञान-दोनों के प्रति ही अंध-विश्वास वर्जनीय

धर्म और विज्ञान-दोनों के प्रति ही अंध-विश्वास वर्जनीय है. मैं बता दूं कि मैं आज तक किसी बाबा के पास समस्या लेकर नहीं गया..हाँ, कोई संत धर्म-विज्ञान के संसार में यात्रा कर चुके हैं या नहीं -- यह जिज्ञासा रहती है मुझे..

             अगर निर्मल बाबा कृपा बरसाने में अक्षम हैं तो यह उनकी अक्षमता है..जीसस क्राइस्ट कृपा बरसाते थे..और , स्टीफन हाकिंग ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम में यह कहते हैं कि यदि कोई ऐसा यान बने जो प्रकाश की गति से भी अधिक गति से यात्रा कर सके तो उस बैठ कर यात्रा करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रवेश कर सकता है..किसी को अब हाकिंग कैसे समझाएं कि आज से २०० साल बाद जो दुनिया होगी उसे तुम देख सकते हो,, उसमे रह सकते हो , अगर ऐसा यान मिल जाय...उस दुनिया में क्या हो रहा होगा --यह अभी जान सकते हो..

            विज्ञान का अंध - विश्वासी कहेगा कि '' जीसस क्राइस्ट किसी रोगी को स्पर्श द्वारा रोगमुक्त कर ही नहीं सकते थे क्योकि चिकित्सा विज्ञान ऐसा नहीं कहता.....''

              धर्म का अंध-विश्वासी कहेगा कि '' हम घोड़े की नाल से अंगूठी बनाकर पहने तो संकट-मुक्त हो जायेगें..'' -- ये दोनों ही गलत और अवैज्ञानिक बात कह रहे होगें..


इस सम्बन्ध में मुझे एक आविष्कार की याद आ रही है..


वर्ष १९८८ की बात है..अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के एक वैज्ञानिक के अनुप्रयोग का विवरण मैंने वायस आफ अमेरिका से सुना था..नासा के एक वैज्ञानिक ने अपनी उंगली के इशारे से १२ फिट दूर तक के स्विच से विद्युत उपकरण को आन-आफ करने में सफलता प्राप्त की थी..

सिद्धांत यह था कि हमारे मस्तिष्क से किसी भी अंग के संचालन हेतु आदेश लेकर विद्युत चुम्बकीय तरंगें निकलतीं हैं जो न्यूरान - डेंड्रान-एक्जान से गुज़रती हुई उस अंग तक पहुँचती हैं..तो उंगली तक पहुचने वाली तरंगे उंगली के बाहर भी प्रवाहित की जा सकती हैं जो ईथर के माध्यम से स्विच तक पहुच सकती हैं..इस सिद्धांत के अनुसार उस वैज्ञानिक ने १२ फिट दूर के स्विच पर उंगली का इशारा करते हुए स्विच आन-आफ करके दिखाया था..अब ये बाते समझनी कठिन तो हैं ही , फिर भी पूर्वाग्रह और अंध-विश्वास से मुक्त मस्तिष्क इन्हें समझ सकता है....

अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

इश्क ही लिखता हर इक इंसान की तकदीर है


इश्क होता है न महलों में न तख़्त-ओ-ताज में.
इश्क तो अल्लाह के बन्दे की इक जागीर है.
क्या मिला है, क्या मिलेगा बादशाहत से किसे,
इश्क ही लिखता हर इक इंसान की तकदीर है.

अनेक मित्रों ने मुझे  इश्क और मानवीय रिश्तों पर भी कवितायें लिखने को कहा है..
                    यहाँ मैं बता दूं कि एक पुलिस अधिकारी के रूप में मैंने सैकड़ों मामले ऐसे देखे हैं जिसमें शिकायत-कर्ता और आरोपित मामला पुलिस या अदालत में दर्ज होने के पहले प्रेमी-प्रेमिका थे.. और , बस. छोटे छोटे अहंकारों, छोटी जिद, छोटे स्वार्थों के कारण एक दूसरे के दुश्मन बन गए और अपनी सारी ताकत लगाकर, यहाँ तक कि खुद को नुक्सान पहुचाकर भी उसी कथित प्रेमी या कथित प्रेमिका के पीछे पद गए जिसे कभी प्रेम की कवितायें , प्रेम के गीत सुनाया करते / करती थीं..
            वास्तव में प्रेम सिर्फ ईश्वर से हो सकता है या यूँ कहें कि प्रेम सिर्फ ईश्वर ही कर सकते हैं .. यह मनुष्य के वश का नहीं.. यदि कहीं कोई मनुष्य प्रेम में हो तो वह देवता बन चुका होता है..
              प्रेम मनुष्य से देवता बनने की प्रक्रिया का दूसरा नाम है -- यूँ कहें इसे और समझें तो शायद बेहतर होगा,, 


© अरविंद पाण्डेय..

शनिवार, 31 मार्च 2012

श्री राम,लोक-अभिराम,सतत-निष्काम,सर्व-नयनाभिराम




जय जय श्री रामनवमी 


१ 

श्रीराम,लोकअभिराम,सततनिष्काम,सर्वनयनाभिराम.
शीतल-तुषार-सिंचित-इन्दीवर-दीपित-शुभ-सर्वांग वाम.
मर्यादा-पुरुषोत्तम,निकाम-पौरुष-परिपूर्ण,पवित्र-नाम .
शतकाम-सदृश सौन्दर्यधाम,वरदान करें-मन हो अकाम.

२ 

अम्बर निरभ्र, तरणि-किरणों से संदीपित.
पवन , सुकोमल मधु-गंध से सुवासित है.
नवमी - मध्याह्न भौमवासर शुभंकर -तिथि ,
जन-मानस प्रमुदित, पशु-पक्षि-दल पुलकित है. 
जिनके चरण-तल में शत-कोटि सूर्य-चन्द्र ,
शत शत ब्रह्माण्ड भी अनादि काल-कल्पित हैं.
वे ही अनंत, अव्यक्त अपरिमेय राम,
कौशल्या-अंक में बालक बन प्रफुल्लित हैं.

(यह सवैया छंद में रचित है )



© अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 28 मार्च 2012

तुम्हें कौन सा कुसुम चढाऊं..

कृष्णं वंदे 

तुम ही पुष्पों में परिमल बन महक रहे हो,
तुम्हें कौन सा कुसुम चढाऊं..
जिसकी सुरभि न तुम्हें मिली हो,
ऐसा फूल कहाँ से लाऊं.


तुम भास्कर बन सकल जगत को भासित करते,
तुम्हें कौन सा दीप दिखाऊं,
जो तुमको प्रकाश से भर दे ,
ऐसा दीप कहाँ से लाऊं..


श्रीजगदम्बार्पणमस्तु 


© अरविंद पाण्डेय

तेरे दोनों चारु - चरण को चर्चित करूं , सजाऊँ.

शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुनौ !


अपने हृदय-कमल के कोमल किसलय की माला मैं,
माँ तेरी सुन्दर ग्रीवा में आज मुदित पहनाऊँ,
मन्त्र-पूत प्रज्ञा का सुरभित चन्दन-राग बनाकर 
 तेरे दोनों  चारु - चरण को चर्चित करूं , सजाऊँ.


श्रीजगदम्बार्पणमस्तु 


© अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

किताब-ए-कौम में रोशन जो निशाँ रहते हैं.

वन्दे मातरं ! 

23 मार्च ! 

जेहन में जोश हो, पर , फिर भी होश पूरा हो.
न जिसका सोज़, निशाना कभी अधूरा हो.
किताब-ए-कौम में रोशन जो निशाँ रहते हैं.
उसी को राजगुरु , सुखदेव , भगत कहते हैं.

© अरविंद पाण्डेय 

महाकाल को भी मथकर जो महाप्रलय में करतीं नृत्य.

प्रथमं शैलपुत्री च !

जागृत-जन के लिए सतत जो प्रतिकण में हैं प्रतिपल दृश्य.
कितु,  वही  कालिका , सुप्त को अप्रतीत हैं और  अदृश्य.
महाकाल को  भी  मथकर  जो महाप्रलय में  करतीं नृत्य.
मुझे बोध है मैं उनका प्रिय - पुत्र, और  अनुशासित भृत्य.

© अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 22 मार्च 2012

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.

कृष्णं वन्दे !!

मुझे पता नहीं कि रात है या दिन है अभी, 

बस एक आग है जो खाक किये जाती है .


किसी पहर जो पलक खोल के जहां देखूं,

तो बस लहर सी इक,फलक पे लिए जाती है.


कभी कोयल की कूक सामगान लगती है ,

कभी महकी हवा कुरआन गुनगुनाती हैं .


ये किस मक़ाम पे लाया है मुझे इश्क मेरा ,

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.


© अरविंद पाण्डेय

रविवार, 18 मार्च 2012

बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम ..


शिशु की स्वतःप्रफुल्ल हंसी में दिखे आज तुम श्याम .
स्वतः-सुगन्धित सौम्य सुमन में भी तुम थे अभिराम.
किन्तु, दीन कृश-काय पुरुष में तुम निराश से क्यूँ थे,
बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम !!

© अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.

वासुदेवः सर्वं ! 

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.
मिलीं जो ठोकरें उनसे भी मिला इल्म नया.
बहुत  सी  कोशिशें  हुईं  मुझे   हराने   की,
करम खुदा का, कि शैतान मुझसे हार गया.



सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार...




© अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,.


प्रीस्ट वैलेंटाइन का मृत्यु-दिवस ! 



मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,
खुल कर जो खड़े होते क्लाडिअस के तुम खिलाफ.
ज़ालिम हो सल्तनत तो ज़रा जोर से कहो.
छुप छुप के इन्कलाब कोई इन्कलाब है.


© अरविंद पाण्डेय




सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार ..

मैं प्रीस्ट वैलेंटाइन द्वारा क्लादिअस के मानवता-विरोधी क़ानून का छुप कर उल्लंघन किये जाने को नापसंद करता हूँ.. उन्हें गांधी जी की तरह खुल कर सिविल नाफरमानी -- सविनय अवज्ञा करनी चाहिए थी..

 अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

तू ही तू बस रहा है दिल के आशियाने में

वासुदेवः सर्वं


हुए हैं रहनुमा बहुत से इस ज़माने में,
सजे हैं शेर नाज़नीं कई , अफसाने में.
मगर तू राह भी,मंजिल भी, रहनुमा भी है .
तू ही तू बस रहा है दिल के आशियाने में.

  अरविंद  पण्डेय 

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

फिरदौस की महकी फिजा जैसी.


वासुदेवः सर्वं 

तेरे  तन  पर  तो  बस  परियां  ही परियां उड़ रही है.
तू  अब तो  हो गई फिरदौस की महकी  फिजा जैसी.
ज़मीन-ओ-ख़ाक  पर  तेरा उतरना है बहुत मुश्किल,
ये कैसा हुआ ये फासला कैसे , हुई  ये इब्तदा  कैसी.

© अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

रोशन चिरागों को बचाता हूँ...



कभी खुद मैं ही बन कर आँधियां दीपक बुझाता हूँ.
कभी फानूस बन, रोशन चिरागों को बचाता हूँ.
अंधेरा भी कभी बनकर सुलाता हूँ जहाँ को मैं,
मैं ही बन रोशनी सूरज की,गुलशन को सजाता हूँ.


© अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं



महात्मा गांधी के साथ श्री सुभाषचंद्र बोस  तथा जवाहर लाल नेहरू 


मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं.
मैं रहा यूँ कि ज्यूँ आम नागरिक रहते हैं.
डरते थे  मुझको देख, फिरंगी बेचारे. 
जैसे बकरी का झुण्ड, शेर को देख डरे.

चंपारण मे है गाँव एक साठी नामक.
करते खेतों में वहां परिश्रम,लोग, अथक.
पर,अंग्रेजों के क्रूर लोभ का पार नहीं..
अपनी ज़मीन पर खेती का अधिकार नहीं.

मैंने बिहार के लोगो को संगठित किया.
पौरुष-परिपूर्ण अहिंसा का अभिमन्त्र दिया.
फिर, झारखंड के सिद्धो-कान्हो  के जैसा.
था असहयोग सब ओर, कड़कती बिजली सा.

 अंग्रेजों की दहशतगर्दी की नींव हिली. 
चंपारण के तूफां से रानी भी दहली.
भितिहरवा में आश्रम लोगो ने बना दिया.
छः माह वहीं मैंने आन्दोलन-यज्ञ किया.

मैंने चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन से.
सीखा था सविनय-अवज्ञान, अर्पित मन से.
नदिया में कोतवाल की आज्ञा को ठुकरा.
कीर्तन करता, प्रभु जी का था जुलूस निकला.

मैंने सीखा श्री रामायण - पारायण से.
सत्याग्रह का रणनीति-ज्ञान, रामायण से.
थे तीन दिनों तक राम स्वयं सत्याग्रह पर.
प्रार्थना-निरत सागर से, सागर के तट पर.

जब विनय नहीं माना समुद्र अभिमानी ने.
जब मार्ग नहीं छोड़ा सागर के पानी ने.
तब कमल-नयन के नयन,अग्नि से दहक उठे.
कोमल-शरीर श्री राम,सूर्य से भभक उठे.

मैं जीवन भर था रहा अहिंसा का साधक.
पर, कभी नहीं था शौर्य-प्रदर्शन में बाधक.
जो भय के कारण हिंसा को अपनाते हैं.
वे कभी वास्तविक वीर नहीं कहलाते हैं.

मैंने सुखदेव, भगत से अतिशय प्यार किया.
पर, उनकी हिंसा को भी अस्वीकार किया.
मैंने चाहा सुभाष, नेहरू के साथ चलें.
पर, दुःख ! सुभाष, रास्ते पर एकाकी निकले. 

चंपारण से जो शुरू हुआ था अश्वमेध.
वह पूर्ण हुआ सैंतालिस में कर,लक्ष्य-वेध.
भारत,स्वतंत्र हो उगा, सूर्य सा चमक उठा.
अपने हांथो में ही अब अपना शासन था.

 मैं एक बात अब दुःख से कहना चाहूंगा.
भितिहरवा के बारे में यह बतलाउगा.
वह दुनिया का पर्यटन केंद्र बन सकता था.
पिछड़ा बिहार, मुद्रा अर्जित कर सकता था.

अपने भारत के सफल राजनीतिग्य सभी.
भितिहरवा की यात्रा करते हैं नहीं कभी.
सबके मन में है भरा अंधविश्वास यही.
जो गया वहां,सत्ता-च्युत होगा शीघ्र वही.

मैंने सुन रखा है बिहार कुछ बदल रहा.
ईमान भरा है  एक व्यक्ति, इस वक्त वहां.
कोई उस तक मेरा सन्देश अगर दे दे.
विश्वास मुझे , शायद वह कुछ ना कुछ कर दे.
============
मैं वर्ष  २००५  में चंपारण क्षेत्र का डी आई  जी था.
भितिहरवा आश्रम की तीर्थयात्रा पर मैं जब जाने लगा तो मुझसे मेरे एक सहकर्मी ने कहा ,
 'सर, वहां कोई साहब लोग नहीं जाते .कोई नेता भी नहीं जाता.वहां जाने से कुर्सी चली जाती है ..'
मै कुछ मुस्कुराया .फिर,कुछ रूककर कहा ,' चलो गांधी जी से ही पूछेंगे कि वे क्यों कुर्सी ले लेते हैं भितिहरवा दर्शनार्थियों की..वैसे मेरी कुर्सी भी छोटी ही है .चली भी जायेगी तो गांधी जी से जिद करके इससे बड़ी कुर्सी ले लेगे.'
मैंने वहां  की आगंतुक-पंजी में कुछ लिखा और देखा तो बरसों बरस तक के पृष्ठों मे किसी अधिकारी का आगंतुक के रूप में हस्ताक्षर नहीं मिला..
किसी राजनीतिग्य का भी..
श्री चंद्रशेखर जी का मैं सादर स्मरण कर रहा इस प्रसंग में क्योंकि वे भितिहरवा आश्रम गए थे और वहां कुछ निर्माण कार्य भी कराया था.
एक बात का उल्लेख ज़रूरी है..भितिहरवा आश्रम की यात्रा के कुछ ही दिनों बाद चंपारण क्षेत्र के डी आई जी पद से मेरा स्थानान्तरण हुआ. किन्तु , महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से, मैं मगध क्षेत्र (गया ) के डी आई जी पद पर पदस्थापित किया गया.. महात्मा गांधी की  अहिंसा-साधना की विचार-गंगोत्री बोधगया .. अमिताभ बुद्ध.. मेरा स्वप्न पूरा हुआ-बुद्ध के निकटतम रहने का..उस भूमि को प्रतिदन स्पर्श करने का जहां कभी राजकुमार सिद्धार्थ, ज्ञान-पिपासा से विकल होकर आये थे और परम ज्ञान प्राप्त कर सर्वव्यापी बुद्ध होकर लौटे थे..
मेरा चंपारण से बोधगया जाना  महात्मा गांधी का हस्तक्षेप ही था .क्योंकि बाद में मुझे बताया गया कि प्रस्तावक ने मुझे मुख्यालय  में रखने का प्रस्ताव दिया था किन्तु जिसे निर्णय लेना था, उनके शब्द थे-''इन्हें यहाँ रखने का प्रस्ताव क्यों  दे रहे हैं.ये तो टफ आफिसर हैं.इन्हें गया मे कीजिये..''
और इस तरह मैं गया का डी आई जी बना.
चंपारण से मैंने  अहिंसक पुलिसिंग का अपना अभियान तेज़ किया.दोनों विवाद-ग्रस्त पक्षों को प्रेरणा देकर अब तक  हज़ारों भूमि-विवाद के मुकदमे ख़त्म कराये..झूठे मुकदमों में उलझे हुए दोनों पक्षों को गले मिलाया...

और अंत में, भितिहरवा  आश्रम और कामनवेल्थ गेम मे खर्च हो रहे धन और निवेश की गई रूचि की तुलना करना उपलक्षणीय है..
तथास्तु !!!!!

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 18 जनवरी 2012

दीख रहा है सांत, अनंत.


देश-काल से परिच्छिन्न हो,
दीख रहा है सांत, अनंत.
समय-चक्र का सतत चक्रमण ,
बना रहा आवरण दुरंत .

घूर्णित-पृथ्वी संग मनुज यह,
नियति-विवश होता है अस्त.
किन्तु,तरणि-दर्शन में अक्षम ,
कहता , सूर्य हुए हैं अस्त .
---------------------
सभी मित्रों को सुप्रभात .. 

आज की कविता मनुष्य द्वारा कहे जाने वाले उस सबसे प्रचलित किन्तु अशुद्ध प्रयोग के मिथ्यात्व को दर्शित करती है जिसमें कहा जाता है कि सूर्य अस्त हो गए.. वास्तविकता यह है कि हम स्वयं, पृथ्वी की परिधि में विवश , पृथ्वी के साथ घूर्णन कर रहे होते हैं और एक विन्दु पर, सूर्य का दर्शन निरुद्ध हो जाता है .. वातव में, हम स्वयं पृथ्वी के साथ अस्त हो जाते हैं किन्तु कहते है कि सूर्य अस्त हो गए.. चिंतन का विषय... 


--  अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मैं हूँ नरेन्द्र, भारत का चिर जागृत विवेक !

१.
मैं हूँ नरेन्द्र, भारत का चिर-जागृत विवेक.
मैं कण कण में प्रतिभास रहा, हूँ किन्तु एक.

मैं काल-पाश से परे अमृत, अक्षर, अकाल.
आकाश,  नाभि है, स्वर्ग, वक्ष मेरा विशाल.

मैं रामकृष्ण का पुत्र, राम मेरा विराम.
मैं नाम-रूप सा दीख रहा,पर हूँ अनाम.

२.
इस्लाम, देह मेरी , आत्मा हिंदुत्व प्रखर .
जीसस की करूणा रक्त बनी मेरे अन्दर.

मैं अग्नि यहोवा का, नानक का अमृत सबद.
शास्त्रार्थ-दीप्त शंकराचार्य का सात्विक मद.

मैं कृष्ण-प्रेयसी   मीरा का मादक नर्तन,
मैं ही कबीर ,चैतन्यदेव  का संकीर्तन 
३.
मैं हिंद-महासागर का हूँ घन-घन गर्जन.
मैं ही देवात्म हिमालय का नंदन कानन.

मैं काली की कृष्णता, शुभ्रता, शिव की  हूँ.
मैं पञ्च-प्राण बन, प्राणी में अनवरत  बहूँ.

मैं नित्य, त्रिकालाबाधित,शाश्वत सत्ता हूँ.
मैं महाविष्णु के  मन की मधुर महत्ता हूँ.



========================
स्वामी विवेकानन्द  अंगरेजी साहित्य की कक्षा में, एकाग्र मन से, अपने प्राध्यापक श्री हेस्टी का वक्तव्य सुन रहे थे..श्री हेस्टी उस समय विलियम  वर्ड्सवर्थ की प्रकृति संबंधी कविताओं की वास्तविक दिव्यता को व्यक्त करने का प्रयास करते हुए यह कह रहे थे की प्रकृति के सान्निध्य में , मनोरम उपवनों, वन-प्रान्तरों ,लता-गुल्मों के मध्य अपनी ध्वनि-सुगंध विस्तीर्ण करती हुई कोयल जैसी सुरीली प्राणवती  पुष्प-कलिकाओं  को देख कर वर्ड्स वर्थ  समाधिस्थ हो जाते थे और उस समाधि से वापस आने पर वे कवितायें लिखते थे.इसीलिये उनकी कवितायें इतना गहन प्रभाव डालती हैं.........
श्री हेस्टी ने यह भी कहा कि अगर इस भाव् -समाधि को प्रत्यक्ष देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण परमहंस को जाकर देखो.......................................
और यही से नरेन्द्रनाथ का मन श्री रामकृष्ण के दर्शन , उनकी भाव् -समाधि के प्रत्यक्षीकरण के लिए व्याकुल होता है..
वे अवसर देखते है कि कैसे उनसे मिला जाय.. जिस सत्य का ,, निरपेक्ष सत्य का, अतीन्द्रिय सत्य का , अज्ञेय सत्य का ज्ञान वे करने के लिए तड़प रहे थे , उन्हें लगा कि अब वह क्षण निकट है..और अंततः वह क्षण आता है जब वे श्री रामकृष्ण के निकट जाते हैं और नरेन्द्रनाथ  से स्वामी विवेकानन्द के रूप में उनका जन्म होता है ..


In my adolescence , I used to study Shri Ramkrishna Vachanaamrit every night before sleep and used to dream to be A Sanyaasi like Swami Vivekanand but Alas ! I failed to be ... 
Destiny Dragged me into Indian Police Service.
My Lust to be A Sanyasi will be alive until it happens..
I know I have to come to this earth again to meet my desire..!! 
हरिः शरणं 

----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

हम तो हांथों में ही, सूरज को लिए फिरते हैं.


ॐ आमीन ..

जो हारकर , छोड़ जाने की बात करते हैं.
हम तो बस उन्हें होश में आने की दुआ करते हैं.

वो खुद के घर को रोशनी से भर रहे बेशक,
मगर, औरों के घरों में तो धुंआ भरते हैं. 


वो जो भी हों ,जहाँ भी हों,खुदा ही खैर करे, 
हम तो हांथों में ही, सूरज को लिए फिरते हैं.

© अरविंद पाण्डेय


प्रिय मित्र ! कल प्रोफाइल में किसी ने किसी का फोटो शेअर किया और दुखित मन से लिखा कि कुछ लोग '' दबाव '' में काम न कर पाने की वजह से सिविल सेवाएं छोड़ देते हैं ,, छोड चुके हैं,, छोड़ देने वाले हैं ,, तो दो पंक्तियाँ कल निकली .. आज समय मिला तो उन दो को और सशक्त कर दिया बस.. आपके क्या विचार हैं.. आप से सच कहूँ-- इन लोगो द्वारा परिभाषित '' दबाव '' क्या होता है ,,अपने २० से अधिक वर्षों की सेवा के बाद भी मैंने नहीं देखा ,, न महसूस किया....

Aravind Pandey 

बुधवार, 4 जनवरी 2012

दीदावर बस वही है.

King Alexander and Philosopher Diogenes
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ये रंग रोशनी का जो है दिख रहा तुम्हें .
जो देख रहे तुम वो भी आँखों की सिफत है.
पर,दिख रही जो चीज़,हकीकत में वो क्या है.
जो जान ले ये राज़ , दीदावर बस वही है.

The Color, You are seeing is the spectrum of light.
The form of a thing is based on power of your sight.
But, He , who knows the reality of a perceptible thing,
Is breathes the essence of truth and is Seer - King.

I would not like to be Alexander,I would Prefer to be Diogenes..

© अरविंद पाण्डेय

किसी ऩे याद किया और कोई याद आया.



चन्द लफ़्ज़ों में ज़िन्दगी ये बयाँ होती है.
किसी ऩे याद किया और कोई याद आया.
जिसे आना न था वो आ गया बहुत पहले,
जिसे आना था वही बहुत देर से आया.


© अरविंद पाण्डेय .