शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

वास्तव में,मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था:माता मैथिली:मैं नारी हूँ :3


श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित.3
६ .
मैंने अपनी निजता का निर्भय किया दान.
प्रज्ज्वलित-अग्नि में कर प्रवेश, मैं थी अम्लान.

मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों.
था स्वप्न - राम का सार्वभौम अभिनन्दन हो.

इसलिए, सहज निर्वासन था स्वीकार मुझे.
अन्यथा, राम क्या करते अस्वीकार मुझे?
७.
मैंने तमसा-तट पर लक्ष्मण से कहा -तात !
श्री राम बनें आदर्श चक्रवर्ती सम्राट .

वे करें प्रजा-पोषण सोदर भाई समान.
जीवन उनका, यश,धर्म,कीर्ति का हो निधान.

कहना उनसे- मैथिली नहीं हैं  व्यथा-विद्ध.
बस एक कामना, राघव हों अतुलित प्रसिद्द.
७.
श्री राम-राज्य की  नारी भी थी मैं, प्रबुद्ध.
मैंने चाहा था- रावण से हो महायुद्ध.

राक्षसी हिंस्र-संस्कृति का जिससे हो विनाश.
बंधुता तथा समता,स्वतन्त्रता का प्रकाश-

प्रत्येक मनुज के अंतर में उद्भासित हो.
वसुधा, करूणा से कुसुमित और सुवासित हो..
८.
यदि राम-सभा में जा,मैं करती अभिवेदन.
तब निश्चित ही  निरस्त हो जाता निर्वासन.
श्री राम और मैं करते वैयक्तिक-विलास.
पर उस आदर्श-परिस्थिति का रुकता विकास.

जिसमें शासक त्यागा करते हैं पद अपना .
पर,जो आसक्त पदों में,उनसे क्या कहना !
९.

वास्तव में, मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था.
क्या कहूं ,राज्य का जन-समुदाय अभागा था.

पुट-पाक सदृश वेदना राम को बींध गई.
जीवन भर मैं श्री राम-विरह में दग्ध हुई.

इस अग्नि-सिधु मंथन से बस यह अमृत मिला.
राघव के अक्षर यश का सुरभित पुष्प खिला.
१०.
मैं वही जबाला, जिसने नहीं विवाह किया. 
पर, सत्यकाम जाबाल-पुत्र को जन्म दिया.

प्रारंभ किया जिसने परम्परा गुरुकुल में
है पिता-नाम अनिवार्य नहीं नामांकन में 

गरिमामय नारी -स्वतन्त्रता का प्रथम घोष
था समय एक , मैं मानी जाती थी अदोष
८ . 
मैं वही अपाला , कुष्ठ -रोग से जो पीड़ित.
थी देह नही रमणीय , पुरूष सब थे परिचित.

सौन्दर्य नहीं था छलक रहा मुझसे बाहर
पर, प्रज्ञा का सागर लहराता था अन्दर

मेरे मंत्रों से प्रथम वेद है आलोकित
मेधा-बल से मैनें समाज को किया विजित..
==============================
स्त्री के प्रति भारत की विलक्षण, शाश्वत और यथार्थवादी दृष्टि के विरोध में, बुद्धि-दरिद्रों द्वारा, माता मैथिली के निर्वासन का उदाहरण दिया जाता है..किन्तु यह उदाहरण उनके द्वारा ही दिया जाता है  जिन्होंने एक बार भी वाल्मीकीय रामायण का पारायण नहीं किया.वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के पैंतालीसवें सर्ग के सत्रहवें श्लोक में श्री राम का लक्ष्मण को दिया गया आदेश अंकित है--
गंगायास्तु परे पारे वाल्मीकेस्तु महात्मनः .
आश्रमो दिव्यसंकाशः तमसातीरमाश्रितः 
श्री राम ने लक्ष्मण से कहा था -'' गंगा के पार स्थित तमसा नदी के तट पर, महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है..लक्ष्मण ! तुम कल प्रातः सीता को उसी आश्रम के निकट पहुचाकर वापस आना.''
 अर्थात श्री सीता को निर्जन वन में छोड़ने का आदेश श्री राम का नहीं था.
इसी तरह,जब श्री मैथिली को वाल्मीकि आश्रम के निकट ले जाकर निर्वासन की राजाज्ञा लक्ष्मण द्वारा सुनाई गई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा-
यच्च ते वचनीयम स्यादपवादः समुत्थितः 
मया च परिहर्तव्यम त्वम्  हि मे परमा गतिः
अर्थात श्री मैथिली ने लक्ष्मण से श्री राम के लिए अपना सन्देश भेजा था- ''जनसमुदाय के बीच जो आपकी निंदा कुछ घटनाओं के कारण हो रही है उसे समाप्त करना मेरा भी कर्तव्य है..आप धर्मपूर्वक जनसमुदाय का पालन वैसे ही कीजिये जैसे अपने सगे भाइयों का करते हैं.मुझे आपके धर्मानुकूल शासन की चिंता है , अपने शरीर की नहीं. ''
इस प्रकार श्री मैथिली ने निर्वासन स्वीकार करके, वास्तव में, राज्य-हित में अपना साम्राज्ञी का पद त्यागा था.
मानव-मन की इस सर्वोत्कृष्ट अवस्था को हृदयंगम कर पाना लोभ,मोह,मद से कलुषित चित्त के लिए संभव नहीं.
श्री मैथिली द्वारा साम्राज्ञी-पद का स्वेच्छया किये गए त्याग की परम्परा का ही निर्वाह आज भी तब होता है जब कोई लाल बहादुर शास्त्री या कोई नीतीश कुमार  किसी रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के वशीभूत, निजी रूप से दोषी न होते हुए भी, पद से त्यागपत्र देता है.

 ..पश्चिम में , महान नारीवादी चिन्तिका - सिमोन द बउआर एवं अन्यों द्वारा प्रारंभ किया गया नारी मुक्ति आन्दोलन , पश्चिमी समाज के लिए पूर्णतः हानिकारक रहा। .क्योंकि यह प्रतिक्रया में, पुरूष - द्वेष के साथ , प्रारंभ किया गया था ..
प्रतिक्रया या द्वेष में प्रारंभ किया गया कोई भी कार्य अपने परिणाम के साथ अप्रिय अंश भी लेकर आता है .. 
वही हुआ..
पश्चिमी समाज में , नारी-वादी स्त्रियों ने, पुरूष द्वेष में ,पुरुषों से बचने के लिए, ऐसी विकृतियों को आत्मसात् किया जिसनें वहाँ की परिवार -प्रणाली का सर्वनाश कर दिया ।
माता , पिताके प्रारम्भिक प्रेम और वात्सल्य से वंचित युवा ,
सहजात मनोवृत्तियों के वशीभूत और मनोविकृतियों से पीड़ित स्त्री -पुरूष,
और खंडित परिवारों का विशाल खँडहर ॥
परिणाम यह भी हुआ कि भारत का कोई संत वहाँ जाए तो लाखों की संख्या में स्त्री -पुरूष उसके अनुयायी बनने के लिए तैयार , समर्पित ॥
आज सारा पश्चिम भारत की ओर आशा के साथ देख रहा कि भारत, उसके सामाजिक -अस्तित्व की रक्षा, अपने पुरातन किंतु चिर-नवीन संस्कारों के साथ कर पायेगा !
हम भारत के लोगों ने कभी किसी विषय पर खंडित अथवा अपूर्ण दृष्टि के साथ विचार नहीं किया ।
स्त्री - स्वतन्त्रता हमारे यहाँ जितनी वैज्ञानिकता के साथ उपलब्ध थी , वैसी कहीं नही थी, न है ।
इन कविताओं में मैंने भारत की उन  महान स्त्रियों की स्तुति की है जिन्होनें अपनी प्रज्ञा के बल से स्त्री - मूलक सामाजिक क्रान्ति का नेतृत्व किया था जो आज की स्त्रियों के लिए भी अति कठिन है ।
आज ऋग्वेद के आकार लेने के हजारों साल बाद , भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि किसी बच्चे का विद्यालय में नामांकन कराते समय , यह अनिवार्य नही होगा कि उसके पिता का नाम बताया जाय ।
विद्यालय में यदि सिर्फ़ माता अपना ही नाम बताती है तो भी नामांकन किया जाएगा।
इस निर्णय को हम ऋग्वेद में वर्णित माता जबाला की कथा के प्रकाश में देखें तो लगेगा कि माता जबाला नें अपने आत्मबल से जो कार्य उस समय अकेले किया था उस कार्य को कराने के लिए आज सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पडा ।
माता जबाला नें अपने पुत्र जाबाल को को गुरुकुल में नामांकन के लिए भेजा ।
वहा कुलपति ने जाबाल से पिता का नाम पूछा और कहा कि पिता के नाम के साथ ही नामांकन होगा ।
जाबाल को पिता का नाम माँ ने कभी बताया नही था न ही वह अपने पिता से कभी मिला था .
उदास जाबाल माँ के पास आया और सारी बातें बताईं ..
माँ ने कहा कि तेरे पिता का नाम मैं भी नहीं जानती । मैं आश्रम में रहती थी । विवाह नही किया ।
किंतु प्रेम - पूर्ण स्थिति में किस ऋषि से तेरा जन्म हुआ , नही मालूम ।
तू जा गुरुकुल और आचार्य से कह दे कि मेरी माता का नाम जबाला है और मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है .वे मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं । किस ऋषि से मेरा जन्म हुआ , यह उन्हें भी नही मालूम .
बालक जाबाल जाता है गुरुकुल माँ के वचन दुहराता है वहाँ आचार्य से।
कुलपति, सत्यकाम जाबाल और माता जबाला की सत्यनिष्ठा का सम्मान करते हैं और जाबाल का नामांकन गुरुकुल में हो जाता है ।
इसी प्रकार माता अपाला कुष्ठ -रोग से पीड़ित थीं । किंतु, उन्होंने अपने प्रग्याबल से उस रोग को समाप्त किया । और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि बनीं ।
समस्त पुरुषों के लिए सम्माननीय ।
भारतीय - संस्कृति में स्त्री-स्वातंत्र्य सार्वभौम रूप से उपलब्ध किए जाने का संकल्प है ।
किंतु यह स्वातंत्र्य अपने इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति के लिए नही अपितु सत्यकाम जाबाल जैसा महान पुत्र उत्पन्न कराने के उद्देश्य से संकल्पित है ।
स्त्री अपने प्रग्याबल से समाज को सशक्त, सुबुद्ध , सुंदर , सुनम्र बना सकती हैं ।
स्त्री की सृष्टि ही इस हेतु हुई ।
किंतु ऐसा करने के लिए स्त्री को स्वयं प्रग्यावती , सशक्त , सुबुद्ध और अंतःकरण से सुंदर बनना होगा ।
सौन्दर्य स्त्री की नियति है --
पुरूष को वश में करने के लिए और उससे समाज की सार्वभौम सेवा कराने के लिए ।
पुरूष के समस्त कर्मों की प्रेरक स्त्री है --
स्त्री है तो पुरूष है --
स्त्री - पुरूष हैं तो समाज और प्रकृति सुरक्षित हैं ।
समस्त प्रकृति की रक्षा के लिए स्त्री का सुन्दरीकरण ,सशक्तीकरण और समरस स्त्री-पुरूष संबंधों का विकास आवश्यक है.

----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

मैं चाहूँ तो कामुक नर को निष्काम करूं : मैं नारी हूँ :2

... मैं नारी हूँ : 2 


 श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित. 
३ 
मुझसे   ही   है अस्तित्ववान कण कण पदार्थ.
मुझसे ही है प्रज्ज्वलित मनुज में सकल स्वार्थ.

मैं सिद्ध पुरुष का अंतर भी कामुक कर दूं.
मैं चाहूँ तो कामुक नर को निष्काम करूं.

प्रत्येक पुरुष का चित्त,बस मुझी में विहरे.
है शांत वही जो माँ कहकर आराधना करे.
४ 

जब पुरुष बुभुक्षित तब मैं उसकी हूँ माता.
मैं भव-सागर में डूब रहे नर की त्राता.

मैं  रमण-भाव पीड़ित पुरुषों की हूँ रमणी. 
मैं प्रणत पुरुष की इच्छाओं की हूँ भरणी.

मेरे मंद-स्मित से मृत उपवन महक  उठे .
मेरे प्रमत्त नयनो से योगी बहक उठे .
५  
मैं आदि-पुरुष की कामत्रिषा की मधुशाला.
मैं बनी मोहिनी,शिव के मन को मथ डाला.

जो पुरुष-सिंह हुंकार भर रहा हो, अविजित.
वह मृग सा मेरे पास रहेगा, सम्मोहित.

मैं क्रुद्ध अगर तो हो जाएगा विश्वयुद्ध .
मैं प्रेमपूर्ण तो शान्ति रहेगी अनवरुद्ध 


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि:मैं नारी हूँ:.1

नवरात्र के इस महापर्व पर विश्व की समस्त शक्तिस्वरूपा स्त्रियों को समर्पित :
मैं नारी हूँ , नर को मैनें ही जन्म दिया
मेरे ही वक्ष-स्थल से उसने अमृत पिया
मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि
मेरे पिघले अन्तर से होती प्रेम-वृष्टि ।

जिस नर को किया सशक्त कि वह पाले समाज
मैं, उसके अकरुण अनाचार से त्रस्त आज ।


मैं वही शक्ति, जिसने शैशव में शपथ लिया
नारी-गरिमा का प्रतिनिधि बन, हुंकार किया --
'' जो करे दर्प-भंजन, जो मुझसे बलवत्तर
जो रण में करे परास्त मुझे, जो अविजित नर ।


वह पुरूष-श्रेष्ठ ही कर सकता मुझसे विवाह
अन्यथा, मुझे पाने की, नर मत करे चाह ।''

क्रमशः

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यह लम्बी कविता मेरे अब तक के जीवनानुभवों के आधार पर प्रस्तुत है । यह क्रमशः प्रस्तुत की जायेगी ब्लॉग में ।

नारी के विषय में भारतीय दृष्टि , अतिशय वैज्ञानिक, मानव-मनोविज्ञान के गूढ़ नियमों से नियंत्रित , सामाजिक-विकास को निरंतर पुष्ट करने वाली तथा स्त्री - पुरूष संबंधों को श्रेष्ठतम शिखर तक ले जाने की गारंटी देती है ।

भारत ने सदा स्त्री -पुरूष संबंधों में स्त्री को प्रधानता दी और स्त्री को यह बताया कि कैसे वह पुरूष को अपने अधीन रख सकती है । कैसे वह पुरूष के व्यक्तित्व में निहित सर्वोत्तम संभावनाओं को प्रकृति और मानव-समाज के कल्याण में नियोजित करा सकती है ।

मैं इन कविताओं में , स्त्री के अनेक स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि यदि समाज को अपराधमुक्त , अनाचार-मुक्त बनाना है तो स्त्री-पुरूष संबंधों को भारतीय-प्रज्ञा के आलोक में परिभाषित करना अनिवार्य है अन्यथा समाज को सुव्यवस्थित रूप से चलाना कठिन से कठिनतर होता जाएगा ।



----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

निष्काम-कर्म की मधुशाला .


वृन्दावन में जिन चरणों से,
लहराई रस की हाला.

जिनका चिंतन,स्मरण कर रहा,
प्रतिपल मुझको मतवाला.

गया धाम के उन्हीं विष्णुपद
को मैं अर्पित करता हूँ.

अपने निस्पृह,नित्यशुद्ध
निष्काम-कर्म की मधुशाला.
=============
श्री गया धाम का श्री विष्णुपद मंदिर.. 
सजल इन्दीवर सदृश  सुकोमल एवं पुष्कल, त्रिविक्रम श्री भगवान वामन के सर्व-काम-प्रद श्री चरण का प्रतिमान इस मंदिर में सुशोभित है.. इस विशाल मंदिर में ही श्री कृष्ण का एक छोटा सा मंदिर है जिसमें उनकी अतिशय सम्मोहक कृष्णवर्णा प्रतिमा विराजमान है.
मैं, गया में २००६ के प्रारंभ में, डी आई जी मगध क्षेत्र के रूप में  पदस्थापित हुआ.बिहार में कार्यरत होने के बाद, वासना थी मन में कि गया में  रहूँ कुछ दिनों तक और श्री महाविष्णु के श्री चरणों का और श्री महाबुद्ध के मनोहर मुख  का बारम्बार दर्शन कर सकूं..तो यह वासना पूर्ण हुई बिहार में २००५ से प्रारम्भ हुए सुशासन मे .. 
गया-पदस्थापन का एक ईश्वरीय लक्ष्य भी था कि मेरे माध्यम से २००२ में औरंगाबाद जिले के धावा रेलवे पुल पर अपराधियों द्वारा गिराई गई राजधानी एक्सप्रेस के अपराधियों को सामने लाया जा सके..
इस मानव-कारित दुर्घटना जैसे महा-अपराध में लगभग १५० निर्दोष रेल-यात्री मृत्यु को प्राप्त हुए थे और इस अपराध में अंतर्लिप्त अपराधियों को तत्कालीन पुलिस ने बचा लिया  था ..चूकि दूसरा कोई यह कार्य कर नहीं सकता था इसलिए नियति-प्रेरित कार्यकारी प्रधान के माध्यम से, ईश्वर द्वारा, मेरे गया-पदस्थापन की योजना क्रियान्वित कराई गई..इस प्रकरण को विराम..लंबा है ..कभी विस्तार से कहना ही है ब्लॉग में.
श्री विष्णुपद मंदिर का ऐतिहासिक माहात्म्य भी विलक्षण है.. भगवान चैतन्य को प्रथम बार भाव-समाधि इसी मंदिर में हुई थी..वे श्री चरणों का दर्शन करते खड़े थे मंदिर में..श्री चरणों की आरती की जा रही थी और उनके माहात्म्य से सम्बंधित संस्कृत के छंद उच्चारित किये जा रहे थे वहां के पुरोहित द्वारा..
उस स्तुति को सुनते सुनते निमाई तन्मय होने लगे और समाधिस्थ होकर गिर गए.. कुछ देर तक उस परम दुर्लभ ब्रह्मानंद में मग्न रहे ..
ज्ञाता , ज्ञेय, ज्ञान की त्रिपुटी विलुप्त थी..शेष  था मात्र परम चिन्मय आनंद..
इस घटना के बाद ही वह भाव-समाधि उन्हें बारम्बार होने लगी और परम नैय्यायिक  निमाई, दिव्य-रस-धारा प्रवाह के प्रवर्तक बने.. 
भक्ति-भागीरथी के इन  भगीरथ भगवान चैतन्य का जन्म-स्थल यही विष्णुपद मंदिर है ..और मेरा सौभाग्य कि मुझे और मेरी पुत्रियों और पत्नी को, प्रतिदिन तक  भी , श्री चरणों के दर्शन का अवसर मिल पाया..
इस मंदिर में श्री कृष्ण के लघु मंदिर के निकट भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस के पिताश्री एवं माताश्री, गया तीर्थयात्रा के क्रम में , सो रहे थे..यहीं उन्हें स्वप्न-सन्देश प्राप्त हुआ था कि श्री भगवान् उनके पुत्र के रूप में आगमन कर रहे हैं..यहाँ से जाने के बाद गदाधर का  जन्म हुआ जो बाद में भगवान् रामकृष्ण परमहंस के रूप में   रूपांतरित हुए.
इस प्रकार इस मंदिर से ही भारत की उन  दो दिव्य ज्योतियों का प्रज्ज्वलन हुआ जिन्होंने अपने हृदय और मस्तिष्क  की शक्तियों से पूरे विश्व को प्रभावित कर रखा है और आगामी सहस्राब्दियों तक प्रभावित रखेगीं .
गया की और संस्मृतियाँ हैं जो बाद में..
श्री कृष्णार्पणमस्तु 

----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

तुम सो जाओ ...


तुम सो जाओ

कि वक्त की सर्दी में
सिकुड़ती हुई मेरी किस्मत भी
अब सोने को है ।

तुम सो जाओ

कि कुहासे के धुंध से ढके हुए
तुम्हारी यादों के फूल
तुषार के आंसुओं में
अब रोने को हैं ।

तुम सो जाओ

कि ख़ुद की ही खूबसूरती से
बेपनाह माहताब
स्याह बादलों की परछाईं में
ख़ुद से ही ख़ुद को डुबोने को है ।

तुम सो जाओ

कि कहकशा की खामोश गहराई में
पिघलकर बेजार बहती हुई
सितारों की मायूस रोशनी भी
अब अपना नूरानी वजूद
खोने को है ।

तुम सो जाओ

कि तुम्हारी साँसों से सरककर बिखरी हुई
महक से प्रफुल्लित
दिलकश सवेरा
अभी बहुत देर से होने को है ।

तुम सो जाओ ...

तुम सो जाओ .....



----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 29 सितंबर 2010

It is My Destiny to be Ached, not it is of Thee.


I know not how are You, My Empress ! in this Midnight,
No More this Moon Seems to Me Lovely and bright.

The Magic of  Magnificent  Moon is about to Vanish,
I Sit beneath  the Dome of this Black Night,with Waning Wish.


Melancholy Pervades the Sky, where ever I See,
My Bleeding Head,with Stabbed Dreams,Bow to Thee.

I Beg for Your Perpetuating Pain , Give it to me,
It is My Destiny to be Ached, not it is of Thee.

--  Aravind Pandey

सोमवार, 27 सितंबर 2010

मैं भगत सिंह हूँ, भारत माता का बालक.


१.
 मैं अंग्रेजो  के दीप्त-दर्प का संहारक .
मैं भगत सिंह हूँ, भारत माता का बालक.

यदि कायरता , हिंसा दोनों ही हों समक्ष.
तब, गांधी  जी ने हिंसा का था लिया पक्ष.

मैंने तो उनके ही मत का अनुसरण किया.
कायरता का कर त्याग, शौर्य का वरण किया.
२.
नेहरू जी ने रावी - तट से सन्देश दिया--
''अंग्रेजों को भारत ने अब तक सहन किया.

अब मौन ,सिर्फ मानवता का अपराध नहीं.
ईश्वर के प्रति भी है भीषण अपराध यही.''

इस तरह, सभी थे चाह रहे- वे  क्रान्ति करें.
पर, नहीं चाह थी वे  शहीद की तरह मरें.
३.
हमने शहीद होने का था संकल्प लिया.
मन में गोरों के अन्यायों को याद किया.

जालियांवाला का रक्त-कुंड, लाजपत राय.
शोषित भारत के घर घर की जो साँय साँय .

हांथों में हानि-रहित बम,पर,दुश्मन दुर्मद.
बहरों से करने बहस , गए  हम सब संसद .
४.
प्रज्ञा थी सबकी  ''दास कैपिटल''  से समृद्ध.
था हृदय तथागत के वचनों से स्वयं-सिद्ध.

सुखदेव,राजगुरु मैंने स्वयं लिया निर्णय.
हम एक बार कर चुके शत्रुओं का संक्षय.

अब दुनिया से कहना है-''देख लिया तुमने.
अपराध किया अंग्रेजों ने या फिर हमने.''
क्रमशः....

आज अमर शहीद भगत सिंह की जन्म तिथि २७ सितम्बर है..वे होते तो क्या कहते , मैं वही कहने की कोशिश कर रहा इस कविता में..आगे भी इसका अंश प्रस्तुत  होगा.
आज इतना ही..
----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 25 सितंबर 2010

O Empress of Infinity !


O Empress of Infinity,
Lovely and Luminous are Your Hairs,


Lips are Luscious, but,Eyes are in Despairs.

See,the Sky is Waiting for You to Smile,
Open Your Lips in Joy for a While.

Let the Full Moon Shine More Bright.
And,Let the Stars Surround the Moon in Sweet Delight


Aravind Pandey

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

..I will take You to the City of Stars,above.


Come with me and
Be My Love.
I will take You to the
City of Stars, above.

God has sent You to me
As a Bliss.
Walk with Me and Let
His desire, accomplish.

There will be 
Melted Moon's Pool.
Sun will be bright, 
But,Lovely and cool.

I will make a Garland 
of Roses for You.
It will not wither away,
Will smile ever A New.

I will make a dish 
of Jupiter's fruits.
It tastes as Nectar,
and,to Angels, Suits.

Come with me and
Be My Love.
I will take You to the
City of Stars, above.

--- अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 18 अगस्त 2010

तुम भी तो भारत माता हो..


         तुम भी तो भारत माता हो.

अर्धरात्रि में जब सारी दुनिया सोई थी,
स्वतन्त्रता के नव-प्रकाश में,
भारतमाता जाग उठी थीं.

प्रतिदिन ही नव-रोज़गार के लिए तरसते भ्रमण कर रहे नर की नारी ! 

तुम भी तो प्रति अर्धरात्रि में,
जब सारी दुनिया सोती है,
भूखे शिशु को दूध पिलाने की कोशिश में,
अक्सर ही जागा करती हो..!

तुम भी तो भारत माता हो..


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 14 अगस्त 2010

जिसके सौ करोड़ मस्तक हैं और भुजाएं द्विशत करोड़...

महाशक्ति भारत और चीन 
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जिसके सौ करोड़ मस्तक हैं और भुजाएं द्विशत करोड़.
उस भारत को नहीं समझना जन-धन-हीन और कमज़ोर.

महाशक्ति  तुम अगर बन रहे, फिर इतना तो रख लो याद.
अगर ''एशिया के सिंहों'' में स्थापित नहीं हुआ संवाद.

नियति-नटी फिर शक्ति-केंद्र अन्यत्र करेगी विस्थापित.
काल-पुरुष तब  ''तुम्हें''  करेंगे सदा सदा को अभिशापित.
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नीचे मैंने भारत के प्रथम और अद्वितीय प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू तथा हिंदी फिल्मोद्योग के  भारत-भक्त, धीरोदात्त नायक  श्री मनोज कुमार को याद करते हुए उनकी फिल्म ''पूरब और पश्चिम'' का गीत-''भारत का रहने वाला हूँ , भारत की बात सुनाता हूँ''--अपनी आवाज़ में प्रस्तुत किया है .
यह गीत आज भारत की स्वतन्त्रता की आलोकित रात्रि मे, उन सभी भारत-भक्तों को समर्पित करता हूँ जो भारत के  स्वर्णिम अतीत पर गर्व करते हुए उसे स्वर्णिम वर्तमान मे रूपांतरित करने हेतु निरंतर प्रयासरत हैं.
BHARAT KA RAHNE WA...


































----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

सिंध ही तो है हमारी सभ्यता की दास्तान....


Aazadi Mubarak to All Brothers in Pakistan !!

सिंध ही तो है हमारी सभ्यता की दास्तान.
बँट गयी ज़मीन,पर तारीख तो अपनी ही है.
है किसी में हैसियत जो कह सके ये बात अब-
सिन्धु-घाटी है अलग तारीखे-हिन्दुस्तान से.

Pakistan will never be Problem for Us.
If will be, Only Bihar&Panjab will Solve it.
We have to switch over to Think about China-How to '' BEFRIEND ''

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 26 जुलाई 2010

श्रावण के इस प्रथम दिवस पर , आओ शिव को नमन करें


सुख हो दुःख हो,यश अपयश हो ,मान हो या अपमान .
झूठा सारा खेल है जग का करले शिव का ध्यान.
सब कुछ करदे शिव को अर्पण ,माया मोह बिसार.
मेरे शिव हैं दीनदयाल.

नीचे प्रस्तुत शिव-भजन मैंने आज से ५ वर्ष पहले लिखकर साम्ब सदाशिव को अर्पित किया था..यह हिन्दी फिल्म --१. प्रेमरोग के गीत -- सुख दुःख आये , जाए, २.काजल के गीत के तोरा मन दर्पन कहलाये ,३.संत ज्ञानेश्वर के गीत जोत से जोत -- की धुनों पर संगीतबद्ध किया गया था..
किन्तु इसकी रिकार्डिंग का अवसर २०१० मे तब मिला जब तनुसागर ने अपना एक रिकार्डिंग स्टूडियो अंतरा -- पटना मे बनाया..इस भजन की रिकार्डिंग और मिक्सिंग उन्होंने की है और मेरा विश्वास है यह भजन साम्ब-सदाशिव को प्रिय है ..
आज श्रावण के प्रथम दिवस पर यह पुनः शिवार्पित -- लोकार्पित है.. 
नीचे का लिंक क्लिक करें --


---अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कीट्स हों दिल में तो फिर इस ज़िंदगी में क्या कमी.

जॉन कीट्स 
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हों अगर ग़ालिब जेहन में , हों जुबां पर कालिदास  .
कीट्स हों दिल में तो फिर इस ज़िंदगी में क्या कमी.
----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 15 जून 2010

मुझे, रह रह के मेरी माँ की याद आती है..


सुखन, जुबान से निकले तो भला क्यूँ निकले .
मेरे इक दोस्त के यहाँ साया-ए-मातम है.
दगा-गरों के सितम का है वो शिकार हुआ.
भरोसा कौन करे, किसपे , बस यही गम है.

बहुत उदास हो गयीं हैं वादियाँ , ये चमन .
नई बारिश भी जाने क्यूँ मुझे रुलाती है.
कोई पनाह, सहारा न अब तो दिखता है .
मुझे, रह रह के मेरी माँ की याद आती है.


मैंने रफ़ी साहब द्वारा गया हुआ गीत '' जब भी ये दिल उदास होता है..जाने कौन आसपास होता है..'' अपनी आवाज़ मे रिकॉर्ड कराया है..आप इसे ज़रूर सुनें और बाताये कि क्या मैं इस गीत में अपना दर्द भर पाया..


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----अरविंद पाण्डेय


( सुखन = कविता . दगा-गर = विश्वासघाती )

शनिवार, 8 मई 2010

तुम स्वप्न-शान्ति मे मिले मुझे-गुरुदेव रवींद्रनाथ के प्रति


तुम प्रकृति-कांति में मिले मुझे ,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.

रश्मिल-शैय्या पर शयन-निरत,
चंचल-विहसन-रत अप्रतिहत,
परिमल आलय वपु,मलायागत,

तुम अरुण-कांति में मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.

जब विहंस उठा अरविंद-अंक,
अरुणिम-रवि-मुख था निष्कलंक,
पतनोन्मुख  था पांडुर मयंक,

तुम काल-क्रांति में मिले मुझे ,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन .

जब ज्वलित हो उठा दिव्य-हंस,
सम्पूर्ण हो गया ध्वांत-ध्वंस,
गतिशील हो उठा मनुज-वंश,

तुम कर्म-क्लान्ति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.

आभा ले मुख पर पीतारुण,
धारणकर, कर में कुमुद तरुण,
जब संध्या होने लगी करुण,

तुम निशा-भ्रान्ति में मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.

जब निशा हुई परिधान-हीन,
शशकांत हो गया प्रणय-लीन,
चेतनता  जब हो गई दीन,

तुम स्वप्न-शान्ति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.

तुम प्रकृति-कांति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन..

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यह गीत मैंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति हुई अपनी वास्तविक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए लिखा था दिनांक ०८.१०.१९८३ को .. रवीन्द्रनाथ का जीवन मुझे अपना सा लगता है..मुझे लगता है मैं उनके साथ रहा हूँ.या मैं वही था ..बड़ी गहन अनुभूतियाँ हैं ..कभी विस्तृत रूप मे व्यक्त होंगी ही..
यह गीत मैंने ७ मई के अवसर पर आपके लिए प्रस्तुत किया  है..
ब्लॉग में अपनी टिप्पणी अवश्य लिखे आप..

----अरविंद पाण्डेय

रविवार, 2 मई 2010

मैं हूँ अनंत,अविकल,अपराजित,अखिल,शेष


भगवान  अनंत   शेष के इन पार्थिव प्रतीक के चित्र का दर्शन करने का सौभाग्य मुझे इंटरनेट  पर प्राप्त हुआ..
भगवान शेष , महाविष्णु को अपनी कुण्डली पर एवं  समस्त पञ्चभूतात्मक सृष्टि को अपने सहस्र फणो पर धारण करते हुए अपने परमानंदस्वरुप मे स्थित रहते हैं..
इस चित्र के दर्शन से उनकी स्तुति करने की इच्छा हुई इसलिए ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हुईं..
आप इसे पढ़ने के बाद , ब्लॉग मे अपनी टिप्पणी लिखने की कृपा करें..
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सम्पूर्ण सृष्टि   की सत्ता  का   मैं  अधिष्ठान 
मैं  पंचभूत  के विस्तृत वैभव का वितान.

मेरे सहस्रफण की मणि का प्रज्ज्वल प्रकाश.
संसृति को देता जन्म,पुनः करता विनाश.


मुझमें  ही  भास   रही  देखो   संसृति अशेष.
मैं हूँ अनंत,अविकल,अपराजित,अखिल,शेष 

-----अरविंद पाण्डेय

रविवार, 11 अप्रैल 2010

आज शाम वक्त मेरे साथ था . ..





आज शाम वक्त मेरे साथ था . 

मैं अपने मित्र तनुसागर के स्टूडियो ''अंतरा '' गया और एक गीत अपनी आवाज़ मे रिकार्ड कराया जिसकी इच्छा मुझे वर्षों से थी..
मेरे साथ मेरे मित्र आमोद जी भी थे जिन्होंने रिकार्डिंग मे सहयोग किया..
तनुसागर ने अपनी रिकार्डिंग और मिक्सिंग प्रतिभा का ऐसा प्रयोग इस गीत मे किया कि मुझे अब इसे सुनते हुए लग रहा है कि मैंने इस गीत को गाकर अपने आतंरिक सौन्दर्य से इसे कुछ और भी मोहक बनाया है..
यह मेरा अनुभव है आप का अनुभव क्या होगा - मुझे नहीं पता ..
यह गीत शर्मीली फिल्म का है .
शशि कपूर ने इस गीत को गाते हुए जितने सुन्दर सम्मोहक दृश्यों का सृजन अपने अभिनय से किया था वैसे सुन्दर सम्मोहक दृश्य का सृजन आज का कोई भी अभिनेता नहीं कर सकता ..
'' कल रहे ना रहे मौसम ये प्यार का.
कल रुके ना रुके डोला बहार का.
चार पल मिले जो आज,प्यार मे गुजार दे.
खिलते हैं गुल यहाँ ,खिल के बिखरने को..........''
आप इसे ज़रूर सुने.. और बताये कैसा लगा आपको ..






----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ये जिस्म है लिबास,इस लिबास से क्या इश्क


ये  जिस्म  है लिबास , इस लिबास से क्या इश्क .
ये आज साफ़ है तो कल हो जाएगा खराब.
जो इसको पहनता है वो है रूहे   - कायनात ,
मुझको तो मुहब्बत , बस उसी रूह से हुई.. 


----अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

कृष्ण हाथ उसके बिकते,संसार गया जो हार .



कामशून्य ही पा सकता है परमात्मा का प्यार.
कृष्ण हाथ उसके बिकते संसार गया जो हार 
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समः शत्रौ च मित्रे च ,तथा मानापमानयो:
शीतोष्णसुखदु:खेषु, समः संगविवर्जितः 

गीता के द्वादश अध्याय मे श्री भगवान ने उन गुणों का व्याख्यान किया है जिन गुणों के कारण वे स्वयं किसी मनुष्य से प्रेम करने लगते हैं..हम सभी श्री भगवान से प्रेम करने की चेष्टा करते हैं किन्तु इस बात पर बहुत कम लोगो का ध्यान जाता है कि वे कौन से गुण हैं जिनके कारण श्री भगवान् किसी से प्रेम करते हैं.

इस श्लोक मे श्री भगवान कहते कि जो व्यक्ति शत्रु और मित्र - दोनों मे समान दृष्टि रखता है ..जो मान और अपमान - दोनों स्थितियों मे समान रहता है अर्थात चित्त के स्तर पर अविचल रहता है .. सुख और दुःख तथा प्रतिकूल और अनुकूल - दोनों परिस्थितियों मे मन की तटस्थता बनाए रखते हुए भौतिक अर्थात विनाशवान पदार्थों के प्रति राग-मुक्त रहता है वह उन्हें प्रिय है.. 

इस अध्याय मे श्री भगवान द्वारा वर्णित गुणों से संपन्न व्यक्ति का एक विशिष्ट नामकरण श्री भगवान ने स्वयं द्वितीय अध्याय मे किया है .. वह नाम है - स्थितप्रग्य.. जिसका मूल लक्षण है काम शून्यता की स्थिति ..

----अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 25 मार्च 2010

श्री कृष्ण को सर्वव्यापी अक्षरतत्त्व के रूप मे जानना ही ज्ञान है


इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम ..
विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्श्वाकवेsब्रवीत 

इस श्लोक के बारे मे मेरे एक मित्र ने प्रश्न किया कि जब श्री कृष्ण का प्राकट्य सूर्य के बाद हुआ था तब उन्होंने गीता मे कैसे कहा कि कर्मयोग का उपदेश उनके द्वारा सर्व प्रथम विवस्वान अर्थात सूर्य को दिया गया था..

गीता में श्री कृष्ण जब 'मैं' ' मेरा' आदि शब्दों का प्रयोग अपने लिए करते हैं तब उस शब्द का वही अर्थ नहीं होता जो सामान्य स्थितियों मे होता है ..

श्री भगवान् ने जब कहा कि इस '' कर्म योग '' का उपदेश मैंने सर्व प्रथम विवस्वान को किया तब वे यह नहीं कह रहे कि वह उपदेश उन्होंने '' कृष्ण नामधारी '' अवतार के रूप मे ही किया था..
इस प्रश्न के दो स्वरुप हैं .
प्रथम --
जब श्री कृष्ण का जन्म सूर्य अर्थात विवस्वान के जन्म के बाद हुआ तब उन्होंने सूर्य को कर्मयोग का उपदेश कैसे किया ?
द्वितीय 
यदि श्री कृष्ण के रूप मे उन्होंने यह उपदेश नहीं किया तब किसने विवस्वान को यह उपदेश किया ??
श्री ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र महर्षि मरीचि थे .. मरीचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ .. कश्यप जी और उनकी पत्नी अदिति से विवस्वान का जन्म हुआ था. 
विवस्वान से वैवस्वत मनु हुए ..
विवस्वान अर्थात सूर्य का भौतिक शरीर वही है जो हमें आकाश मे निरंतर दिखाई देता है..
इन्ही की परम्परा में इक्ष्वाकु का भी जन्म हुआ था जो श्री राम के पूर्व पुरुष थे..
श्री राम को भी सूर्यवंशी इसीलिये कहा जाता है..
श्री भगवान ने गीता के तृतीय अध्याय मे प्रथम बार ''मै''शब्द का प्रयोग इस श्लोक में किया है --
'' न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन .''
पुनः,इसी अध्याय मे श्री भगवान कहते है -- 
'' उत्सीदेयुरिमे लोकाः न कुर्याम कर्म चेदहम .
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्याम इमाम प्रजाः...''
इस श्लोक मे प्रथम बार श्री कृष्ण अपने सर्वव्यापी स्वरुप का उल्लेख करते हैं.. इसमे वे स्पष्ट कहते है कि यदि मै कर्म न करू तो सारी सृष्टि नष्ट हो जायेगी ..
यदि श्री कृष्ण को वासुदेव पुत्र के रूप मे मात्र वर्तमान मे अस्तित्वशाली माना जाय और तब यह श्लोक पढ़ा जाय तो यह कैसे कहा जा सकलता है कि यदि वे कर्म न करें तो सारी सृष्टि नष्ट हो जायेगी.. 
यह तभी कहा जा सकता जब यह पूर्वधारणा की जाय कि श्री कृष्ण सर्वव्यापी सर्वप्राण परमात्मा है और यदि वे निष्क्रिय हो जायेगे तो सृष्टि भी निष्क्रिय हो जायेगी .
श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी के रूप मे सूर्य को इसी अखंड कर्म योग का उपदेश किया था और यही कारण है कि सूर्य भी सारी सृष्टि के प्राण है..
विज्ञान के अनुसार भी यदि सूर्य रूक जाय , सूर्य बुझ जाय तो सौरमंडल के सभी गृह जीवन विहीन हो जायेगे..
अतः श्री कृष्ण द्वारा महाविष्णु नाभिकमल से उत्पन्न श्री ब्रह्मा के रूप मे , सूर्य को गीता मे उल्लिखित '' कर्मयोग '' की दीक्षा दी गयी थी.. 
और इसी तथ्य का उल्लेख उन्होंने गीता के चतुर्थ अध्याय के प्रथम श्लोक मे किया है ..
श्री कृष्ण के '' मै '' को जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता..
उन्होंने स्पष्ट कहा है ..
यो माम् पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति.
तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति ..
श्री कृष्ण को सर्वव्यापी अक्षर तत्त्व के रूप मे जानना ही शुद्ध ज्ञान है और यही जीवन का परम लक्ष्य है..

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 24 मार्च 2010

जब जब असभ्य इरविन कोई इतराएगा..तब तब यह भारत,भगतसिंह बन जाएगा




१ 
जब कायरता को लोग अहिंसा मानेगे.
जब जब असत्य को सत्य मान, अपना लेगे.

जब जब धरती अपनो से ही आकुल होगी.
जब हुक्मरान होगे निर्दयी,मनोरोगी.

तब तब भारत अपना पौरुष छलकायेगा.
सुखदेव, राजगुरु,भगत सिंह बन जाएगा.

२  

जब जब समता का फूल कहीं कुम्हलाएगा.
जब आज़ादी का दीप बुझाया जाएगा.

जब जब  इंसानी इज्ज़त खतरे में होगी.
जब सत्ता पर काबिज़ होगा कोई भोगी 

जब जब असभ्य इरविन कोई इतराएगा .
तब तब यह भारत,भगत सिंह बन जाएगा.

----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 2 मार्च 2010

रंगों से जो महरूम हैं,उनका भी कर ख़याल

रंगों से भरी है सुबह,है शाम भी रंगीन .
दोपहर में भी शम्स की है रोशनी हसीन.

फूलों के हुस्न की महक लिए हवा चले.
होली में ही सही ज़रा हम भी गले मिलें .

पुरहुस्न है फिजां ,है मज़े में खिला चमन .
मदहोशियाँ कुदरत की पी रहा है मेरा मन .

बदमस्त मेरे दिल से मगर कह रहा गुलाल -
''रंगों से जो महरूम हैं,उनका भी कर ख़याल ''
----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

कब तलक जीतोगे तुम , हारेगा जब हिन्दोस्तां





कब तलक जीतोगे तुम , हारेगा जब हिन्दोस्तां,
अब वतन की जीत की भी फ़िक्र होनी चाहिए .

दिव्य भारत भूमि की जिस कोख ने हमको जना,
कुछ करो - उस कोख की तो लाज बचनी चाहिए ।

जिस ज़मीं का जल, रगों में खून बन कर बह रहा ,
उस ज़मी की, खाक में, इज्ज़त न मिलनी चाहिए ।

जो वतन की रहजनी के ख़ुद ही जिम्मेदार हैं ,
उनके ऊपर सुर्ख आँखें, अब तो, तननी चाहिए ।

जो शहीदों की शहादत का करें सौदा कभी,
उनके आगे अब कभी आँखें न झुकनी चाहिए ।

आज जो खामोश हैं वो कल भरेंगें सिसकियाँ ,
इसलिए, हर शख्स की बाहें फडकनी चाहिए।

बात जो हिंदुत्व की , इस्लाम की , करते बड़ी 
उनके पाखंडी जेहन की पोल खुलनी चाहिए ।

शक्ल इंसानी , मगर दिल है किसी शैतान का 
उन रुखों की असलियत, दुनिया को दिखनी चाहिए ।

बह गया पौरुष सभी देवों का फ़िर से एक बार ,
अब , ज़मीं पर फ़िर कोई दुर्गा उतरनी चाहिए ।
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मुझे याद आ रहा है कारगिल युद्ध --जब कारगिल
के कातिलों को , देशभक्त होने का दावा करने वालों 
ने , बहत्तर घंटे तक , भाग जाने का खुला
रास्ता देकर , कारगिल के पाँच सौ से अधिक
शहीदों की शहादत का अपमान किया था --

मुझे याद आ रहा है वह दिन, जब एक
अरब की जनसंख्या वाल्रे इस देश के
रहनुमाओं ने कंधार , जाकर देश पर हमला
कराने और करने वालो को मुक्त किया था ।

वही लोग दाउद को सौपने की मांग कर रहे हैं ।
मगर , क्याये नेता इस बात की गारंटी देंगें
कि ये फ़िर दाउद को लाहौर या कंदहार
जाकर नही छोड़ आयेंगे ? 

ये लोग शायद ख़ुद के बारे में ज़्यादा
सोच रहे है कि कौन सी राजनीति करे
कि हम भारत के लोग , इनसे वह सवाल
करना भूल जाय
जो अभी एकस्वर से कर रहे हैं ।

इसलिए शायद इन्हें यह सद्बुद्धि आए कि ये लोग
वह सब करने से बचेंगें जो करने की
इनकी आदत रही है ।
शहीद हेमंत करकरे की पत्नी और शहीद संदीप
उन्नीकृष्णन के पिताने देश से कहा था 
कि अपनी कुर्सी के लिए देश के मूल्यों 
की ह्त्या करने वालों को अगर दंड नही दे सकते
तो उनसे न मिलकर, ये बता सकते हैं कि आप
किसी शहीद को सम्मानित करने के योग्य नही ।
 तो आइये एक नए भारत
निर्माणके लिए कुछ नया चिंतन करे ।
नया सृजन करें ।
शुद्ध और सशक्त विचारों से एक नया रास्ता बनाए ।

---- अरविंद पाण्डेय


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

अतः , आज शिव-शक्ति समन्वय, मानव को करना है..




यह संसृति, सुव्यक्त  रूप है उस निगूढ़ सत्ता    का 
जो प्रत्येक परमाणु -खंड में प्रतिपल व्याप  रही  है 
करना  है नर  को अन्वेषण , दर्शन  उस सत्ता  का.
इसी हेतु, प्रति व्यक्ति विश्व के तल पर व्यक्त हुआ है 

निखिल जगत के सूक्ष्म-तत्व का पर्यालोकन करके
मानव को निज का विशुद्ध शिव-रूप प्राप्त करना है  
है विज्ञान सहायक इसमें ,पर  उसमें भी त्रुटि है.
नव विज्ञान शिवत्व-रहित है, ईर्ष्या-द्वेष सहित है 

शिव के अपमानित होने पर शक्ति नष्ट करती है .
निज शरीर को तथा अनादर-कर्ता निज स्रष्टा को.
शक्ति-नाश से शंकर भी प्रलयंकर बन जाता है .
अतः आज शिव-शक्ति समन्वय, मानव को करना है .


शक्ति प्राप्तकर नर यदि उसको शिव-मंडित करता है 
तभी बन सकेगा वह सबसे श्रेष्ठ बुद्धि के बल से.
पुरुष-कामना पूर्ण करेगी प्रकृति सदा स्वेच्छा से.
अखिल विश्व में मानवता का जय- निनाद बिखरेगा ..
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यह स्तुति मैंने १९८० में लिखी थी किशोरावस्था में ..
शिव का अर्थ कल्याण और शक्ति का अर्थ ऊर्जा..
भारत, ऊर्जा और आत्मा - दोनों को सत्य और चेतन मानता है ..
और इसीलिये शिव-शक्ति के समन्वय और उनके विवाह का पर्व मनाते हैं हम ..
विज्ञान द्वारा ऊर्जा अर्थात शक्ति का विवाह शिव अर्थात कल्याण के साथ न किये जाने के कारण परमाणु बम का जन्म हुआ ..
परमाणु में  निहित अनंत ऊर्जा मानव कल्याण के लिए प्रयुक्त होनी थी परन्तु विज्ञान ने उसका प्रयोग मानव नरसंहार के लिए किया ..
यह विज्ञान के इतिहास का सर्वाधिक कलुषित अध्याय है ..

जगत्पिता  शिव और जगन्माता पार्वती के विवाह - दिवस महाशिवरात्रि  का संकल्प -- 
 '' अतः , आज शिव शक्ति समन्वय मानव को करना है '' 



ब्लॉग में पूरी कविता पढ़ें और ब्लॉग में अपनी टिप्पणी भी लिखने का कष्ट करें .
----अरविंद पाण्डेय