हे समस्त स्वर की साम्राज्ञी !
हे चिन्मय श्रुति - सिन्धु. .
देवि, तुम्हारी , सजल शुभ्रता
निर्मित करती इंदु.
शुभ्र तुम्हारा वर्ण, शुभ्र हैं
वस्त्र , शुभ्र है हास्य.
शुभ्र हंस की शुभ्र काकली,
शुभ्र स्वरों का लास्य .
शुभ्र तुम्हारा दर्शन,भर दे
मन में शुभ्र विचार.
शीतल हो संतप्त हृदय भी,
जैसे शुभ्र तुषार.
शुभ्र तार-सप्तक वीणा के,
शुभ्र ,स्वादु झंकार.
शुभ्र स्वरों के अभिषिन्चन से,
शुभ्र बने संसार.
शुभ्र चेतना, सुरभित चिंतन
का हो अब विस्तार .
तन-मन-धन की सब अशुभ्रता
की हो अब से हार.
वस्त्र-मात्र ही नहीं शुभ्र हो,
अन्तर भी हो शुभ्र.
मानव की चेतना शुभ्र हो,
ज्यों नभ नित्य निरभ्र.
शुभ्र दृष्टि हो, शुभ्र सृष्टि का
शुभ्र दिखे हर दृश्य.
शुभ्र सभी के अंग अंग हों,
शुभ्र सभी के स्पृश्य.
शुभ्र कर्म हों , शुभ्र चर्म हो,
शुभ्र हमारा धर्म.
अब सबका सर्वस्व शुभ्र हो,
शुभ्र सौम्य हो मर्म.
शुभ्र काम हो, शुभ्र धाम हो,
शुभ्र वासना, भोग..
शुभ्र प्रेयसी , प्रेयस , प्रिय हों ,
शुभ्र रहे संयोग .
----अरविंद पाण्डेय