वाल्मीकीय रामायण में वर्णित है कि जब श्री भरत जी, श्री शत्रुघ्न जी के साथ ननिहाल से वापस आते हैं
और
उन्हें ज्ञात होता है कि उनकी माता कैकेयी को दो वर देकर महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो चुके हैं तथा
सीता जी के साथ श्रीराम और श्री लक्ष्मण वनगमन कर चुके हैं
तब वे स्वयं को इन दुर्घटनाओं का कारण मानते हुए ग्लानिग्रस्त होते हैं तथा माता कौसल्या के भवन में प्रवेश करते हैं...
....माता कौसल्या अति शोकार्त थीं और श्री भरत को देखकर उन्होंने कहा कि "अब तुम निष्कंटक राज्य भोग करो ..."
...... माता का यह वचन श्री भरत को असीम पीड़ा देते हुए आहत करता है और वे रघुवंश की इस महादुर्घटना में अपनी सहमति न बताते हुए माता के समक्ष अनेक शपथ लेते हैं... उन शपथों में से एक शपथ थी -
कारयित्वा महत्कर्म भर्ता भृत्यमनर्थकं
अधर्मो योSस्य सोस्यास्ति यस्यार्योनुमते गतः
अर्थात
यदि श्रीराम के वनवास में मेरी किसी भी प्रकार से सहमति रही हो तो मुझे भी वही पाप लगे जो किसी सेवक से कार्य कराने के बाद उसे उचित पारिश्रमिक न देने वाले स्वामी को लगता है..
.... न्यूनतम मजदूरी न देना वाल्मीकीय रामायण में महापाप माना गया है... रामायण में धर्मधुरीण श्री भरत का वचन है यह... वाल्मीकीय रामायण को पूर्णतः हृदयंगम करने से ही शुद्ध मनुष्य का निर्माण सम्भव होगा ... आज के नीतिनियन्ता यदि माता कौसल्या के समक्ष श्री भरत द्वारा ली गयी शपथों का ज्ञान एवं सम्मान करें तो वे आम जनता को मिथ्या वचन देने के महापाप से बच सकते हैं !
.......... और जो लोग 1 मई-मजदूर दिवस पर कम्युनिस्ट शब्दावली में कुछ लिखने की औपचारिकता निभा रहे हों उन्हें वाल्मीकीय रामायण वे वर्णित श्रमिक के अधिकार का सिद्धांत पहले पढ़ना चाहिए !