सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने - Vandita Sings


ॐ नमश्चंडिकायै .

आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित:भजन 
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मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गईन दयालु आजु मोरे अंगने.
१ 
मैया के माथे पे सोने की बिंदिया .
बैंठीं करके सिंगार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
२ 
मैया के पैरों में चांदी की पायल.
बाजे रन झुन झंकार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
३ 
मैया के होठों पर पान की लाली..
पल पल बरसे आजु मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने. 
४ 
माँ के गले मोतियन की माला.
मुख पे नैना विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
५ 
गोरे बदन पर चमके बिजुरिया.
जिसपे चुनरी है लाल मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
६ 
मैया करती हैं सिंह सवारी .
नाचे सिंह विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.

विन्ध्याचल-धाम के घरों में ये गीत गाया जाता रहा है..

अपनी माता जी के स्वर में ये गीत, मैं बचपन से ही, प्रत्येक पारिवारिक उत्सव के अवसर पर, सुनकर आनंदित होता रहा हूँ..

मूलरूप से ये गीत विन्ध्याचल की लोक-भाषा में है.इसे मैंने फिर से लिखा-खडी बोली में.और मुखड़े को छोड़ कर, भाव भी मेरे हैं .. 

वन्दिता ऩे इसे स्वर दिया .२००२ में रिकार्ड हुआ और वीनस ऩे इसे रिलीज़ किया था.. आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित..

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.





ॐ नमश्चंडिकायै

नारी का नारीत्व, पुरुष का पौरुष हो तुम.
कुसुम-सुकोमल और अशनि के सदृश परुष तुम.
सर्व-व्याप्त हो, सर्वमयी हो किन्तु एक तुम.
माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.

Aravind Pandey 

बुधवार, 28 सितंबर 2011

माँ,तू रूद्राणी,शूलधारिणी,नारायणी,कराली है.नंदिता पाण्डेय का स्वर-पुष्प


 नवरात्र पर्व के प्रथम दिवस पर .
माँ को अर्पित भक्ति-गीत 
नंदिता पाण्डेय के स्वर में..

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर,चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

१ 

माँ , तू रूद्राणी , शूलधारिणी , नारायणी, कराली है.
विन्ध्यवासिनी माता मेरी , तू ही शेरावाली है.

माँ स्वर्ण-कमल है आसन तेरा , आँखों से करूणा बरसे .
शंख, चक्र औ पद्म लिए तू , माँ , मेरे ही मन में बसे.

तू असुरों का नाश करे औ तुझसे ये संसार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

२ 

माँ मधु-कैटभ का नाश किया औ देवों का कल्याण किया.
चामुंडा बन कर तूने ही रक्तबीज का प्राण लिया .

माँ, फिर से धरती पर असुरों का फैला है आतंक बड़ा.
धर्म हुआ कमज़ोर, अधर्मी पापी फिर से सर पे चढ़ा .

ले ले अब तू फिर से इस धरती पर वो अवतार, हे माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर, चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

Aravind Pandey

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है

हज़रत मूसा , नख्ल-ए-तूर के सामने, वृक्ष  में  प्रकट  ईश्वरीय-प्रकाश  के   दर्शन
से  परमानंदित
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तेरे नज़दीक आ पाता हूँ, अक्सर, मैं इन्हीं के साथ.
मुझे रातों की रानाई से , इस खातिर, मुहब्बत है.
खलाओं की खलिश में ख्वाहिशों की खैरियत मत पूछ,
तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है.

I love the lustre of lonely nights ,
Since, with it, I come closer to You. 
O GOD ,  My desire to get Your affinity
is powerty of My Emperorship, now. 


जिस वृक्ष के सामने हज़रत मूसा को  ईश्वरीय  प्रकाश का दर्शन हुआ था  उसे 
  नख्ल-ए-तूर   कहा जाता है ..

ग़ुरबत = दरिद्रता 
खलिश = चुभन .

Aravind Pandey 

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी..

                              
 मुझसे कई मित्रों ने पूछा कि आप प्रेम की कवितायें या नज़्म किसे लक्षित कर लिखते हैं .. क्योंकि लिखते समय लेखक की दृष्टि में कोई व्यक्ति या वस्तु तो रहनी ही चाहिए जिसे लक्षित कर शब्दों के माध्यम से प्रकट भाव, अपनी यात्रा कर सकें .. इन प्रश्नों पर मैंने कई बार सोचा ।

मैनें एक दिन , किसी प्रणयिनी के प्रसन्न-मन की तरह अनंत रूप से विस्तृत और खिलखिलाते हुए आकाश को देख कर, खुद से प्रश्न किया था ---

'वह कौन जिसे देख गुनगुना उठा ये मन .
वह कौन जिसे छूके गमगमा उठा ये तन
वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी,
महकी हुई हवा ये बही सन सनन सनन ..

मैनें जब किसी सांस्कृतिक-कार्यक्रम में - चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल' गाया तो भी यही प्रश्न मुझसे कुछ मित्रों ने किया कि आखिर गाते समय जो भाव, स्वर-लहरियों में पग कर, छलकते हैं, वे किसको भिगोने को बेताब होते हैं ॥

ये प्रश्न मुझे अति प्रासंगिक लगे थे और इन प्रश्नों पर मेरा अपना चिंतन है . मै समझता हूँ कि मेरा यह चिंतन, वैज्ञानिक और यथार्थवादी भी है .
चांदी जैसा रंग - क़तील शिफाई की बेहतरीन खूबसूरत नज़्म, जब मैंने पढा तो मुझे लगा कि ये नज़्म , बज्मे कुदरत के लिए लिखी गयी ..

मगर इश्क की हकीकत से महरूम लोगों नें ये समझा कि ये किसी खूबसूरत, परीजाद जैसी स्त्री के हुस्न की तारीफ़ में लिखी गयी .

सत्य यह है कि दुनियावी खूबसूरती एक ऐसा सितारा है जिसे पाने को जो जितना ही आगे बढे वह सारी कोशिशों के बाद , खुद को उतना ही पीछे महसूस करता है ।

एक कार्यक्रम में मैंने ' चांदी जैसा रंग ' गाने के पहले श्रोताओं से पूछा - ' क्या आपमें से किसी ने कोई ऐसी स्त्री देखी है जिसकी देह का रंग चांदी जैसा चमके और जिसके बाल सोने की तरह कान्तिमान हों ।'

सभी ने एकस्वर से कहा - नहीं देखा ।

तो मैंने गाना शुरू किया और कहा की इस गीत को मैं उस मातृभूमि - धरती माता को समर्पित करते हुए गा रहा हूँ जिसका रंग सचमुच चांदी जैसा है और जिसके बाल . वास्तव में स्वर्णिम कान्ति से विभूषित हैं । तालियाँ बजी लोगों ने गीत का स्वाद लिया , आनंदित हुए ..

नयी दृष्टि ने उन्हें बौद्धिक दृष्टि से भी समृद्ध भी बनाया ..

प्रेम की शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा और लक्षण नारद भक्तिसूत्र में प्राप्त होता है । श्री नारद ने प्रेम का लक्षण निरूपित करते हुए कहा -- तत्सुखे सुखित्वं स्यात् अर्थात जिस पुरूष में यह लक्षण मिले कि वह किसी स्त्री के सुखी हो जाने पर स्वयं सुख का अनुभव करता है । या कोई स्त्री, किसी पुरूष के सुखी होने में स्वयं सुखी होने का अनुभव कर रही तो यह लक्षण प्रेम का है ।

मगर संसार में हो क्या रहा अक्सर ? स्त्री और पुरूष एक दूसरे के अस्तित्व का प्रयोग, स्वयं को सुखी करने में कर रहे । तो यह प्रेम का लक्षण तो है नही । फ़िर , चाँद-फ़िज़ा जैसी कथाएं , प्रेम के नाम पर , आतंक का प्रतीक बन, प्रेम शब्द के प्रति भयग्रस्त बना रहीं लोगों को ।

वस्तुओं के प्रति प्रेम ने समाज को घायल कर रखा है । दहेज़-प्रताड़ना के मामलों में अक्सर मैनें पाया कि पत्नी अत्यन्त रूपवती है फ़िर भी उसके रूप की संपत्ति को न आंक पाने के कारण पति ने पैसे के लिए उसे प्रताडित किया । और जब उसे मैंने इस बात के बारे में समझाया तो उसे गलती का एहसास हुआ और पत्नी-पति के सम्बन्ध सुधर गए ।

एक बात और । संसार में जो आकर्षण है स्त्री -पुरूष का एक दूसरे के प्रति, वह किसी भौतिक -गुण के प्रति आकर्षण है न कि उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति कोई आकर्षित हो रहा । ऐसे आकर्षणों में स्त्री या पुरूष के वे भौतिक गुण यदि अधिक मात्रा में किसी अन्य स्त्री या पुरूष में दिखाई पड़ेंगे तो आकर्षण की दिशा निश्चित रूप से बदल जायेगी । उस ओर जहा वे गुण अधिक दिखाई पड़ रहे । फ़िल्म उद्योग और शोभा डे की सितारों भरी रात्रियों की मस्ती में डूबने वालों के विशिष्ट समुदाय , में इस प्रणय - विचलन की घटनाएँ प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं ।

वास्तव में अनंत प्रेम या तो ईश्वर के प्रति ही हो सकता है या जिसे ईश्वर मान लिया जाय उसके प्रति हो सकता है । क्योंकि इश्वर में ही अनंत मात्रा में सौन्दर्य, माधुर्य, कोमलता , ऐश्वर्य , पौरुष, यशस्विता , श्री , उपलब्ध है जिसके कारण कोई भी किसी के प्रति संसार में आकर्षित होता है ।

अनेक प्रेम-अपराधों के अनुसंधान में मैंने यही पाया कि अपराध इसलिए हुआ क्योंकि श्री नारद की परिभाषा के अनुरूप वहाँ प्रेम था ही नही मात्र प्रेम का आभास था जिसे प्रेम कहा जा रहा था । लोग स्वयं को सुखी बनाने के लिए दूसरों की ताकत का प्रयोग कर रहे थे और यह स्वयमेव एक अपराध है ।

समाज को समृद्ध , शांत और सुंदर बनाने के लिए यह ज़रूरी है की लोग प्रेम का प्रशिक्षण प्राप्त करें , उसे समझें और यह देखें कि वे जिसे प्रेम करते हैं उसे कितना सुखी बना रहे । दूसरों को सुखी करने वाले में ही प्रेम घटित हो सकता है वरना इश्के मिजाजी का तो यही हाल देखा और लिखा -

इस इश्के मिजाजी की तो है बस इतनी दास्तान
इक तीर चुभा , खून बस बहता ही जा रहा
हर शख्स की ज़ुबान , आँख , कान बंद है
इक मैं हूँ जो बस दर्दे दिल कहता ही जा रहा


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 17 सितंबर 2011

तेरी रहमत,मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है

श्री राधा म्रदुभाषिणी मृगदृगी  माधुर्यसन्मूर्ती थीं .
''प्रियप्रवास'' महाकाव्य में श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध'
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तेरी रहमत,मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है 

कि जैसे शम्स की किरनें उतरती हैं खलाओं में .
कि जैसे खुश्क मौसम में कोई राही परेशां हो,
मगर,बस यूँ अचानक,इत्र घुल जाए हवाओं में.
कि जैसे आसमां में हो कोई आवारा सा तारा .
मगर मिल जाए उसको ताज कोई कहकशाओं में 

तेरी रहमत , मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है ,
कि चिड़िया का कोई बच्चा ज्यूँ हो माँ की पनाहों में.


अरविंद  पाण्डेय  

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

उदय-अस्त दोनों ही स्थिति में प्रणय-पूर्ण जो होता है.



तरणि  , उदित हो, रंग देते हैं प्रणय-वर्ण में नीलाकाश.
और अस्त होने पर भी वितरित करते अरुणाभ प्रकाश.
उदय-अस्त दोनों ही स्थिति में प्रणय-पूर्ण जो होता है.
कृष्णचन्द्र  को वही भक्त सबमें ,सबसे प्रिय होता है.

The Sun rises. adorned with candid color of Love,
And, sets with the grand  glow of  fragrant rose.
While  being crushed down or being placed above,
Who puts on the same color, God embraces those.


-- अरविंद पाण्डेय  

प्रणय-वर्ण = लाल  रंग 

रविवार, 11 सितंबर 2011

ईश्वर ऩे है दिया सभी को,दिव्य गगन का राज्य प्रशस्त.


ईश्वर ऩे है दिया सभी को,
दिव्य गगन का  राज्य प्रशस्त.
किन्तु,लोग कलुषित,क्षण-भंगुर
क्षुद्र  वस्तु  में  हैं  आसक्त. 

प्रतिदिन सविता सस्मित,सादर 
जिसे  बुलाता  अम्बर में 
वही मनुज है अविश्वस्त में 
व्यस्त, न्यस्त  आडम्बर में.

-- अरविंद पाण्डेय 

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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

श्री राधाष्टमी:तुम अगर साथ देने का वादा करो : मेरे स्वर में



जय जय श्री राधे : श्री  राधाष्टमी  :

तुम अपनी बांसुरी के सुर मुझे जब जब सुनाते हो .
कोई  नगमा  अनूठा दिल से मेरे बह निकलता है.
मेरी हस्ती नहीं कुछ, पर,मुझे मालूम है इतना -
मेरे नगमों से भी कुछ पल,तुम्हारा दिल बहलता है. 

I feel fortunate to learn and sing this song from the Music Director of this song , Shri Ravi .. I was posted as City S.P. Ranchi , Jharkhand..(1994 ) He visited my house , stayed with us, told so many unheard stories about Rafi sahab , Lata ji , Mukesh ji , Kishor Da and other legends of Hindi Film Music Industry .. 



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गुरुवार, 1 सितंबर 2011

हरतालिका तृतीया के महापर्व पर : मैं तो बनूगी शिव की पुजारन:नंदिता पाण्डेय के स्वर में.



हरतालिका तृतीया :

सकल विश्व की माताओं को सतत प्रणाम !!!

कालिदास का यह छंद मुझे अत्यंत प्रिय है और मेरे द्वारा किया गया  इसका अनुवाद भी  मुझे अतिशय प्रिय है..आप सभी इसे ज़रूर पढ़ें और अपने विचार लिखें .

कुमार संभव में कालिदास :

तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांगयष्टिः
निक्षेपणाय पदमुद्ध्रितमुद्वहन्ती
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेवसिन्धु:
शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ.

मेरा अनुवाद:

उन्हें देखकर पुलक-सुगन्धित,कम्पितदेह शिवानी.
तत्पर जो अन्यत्र गमन को,शिव-सरसांग भवानी.
पथ-स्थित-अचलारुद्ध नदी सी आकुल,पर,आनंदित.
न तो स्थित रहीं न तो कहीं अन्यत्र हो सकीं प्रस्थित.

यह दृश्य उस समय का है जब शिव-प्राप्ति हेतु किया जा रहा जगन्माता पार्वती का तप पूर्णप्राय हो चुका होता है.भगवान शिव, वटु-वेश में वहां आते हैं और शिव-निंदा करते हुए पार्वती को तप से निवारित करने का प्रयास करते हैं..पहले तो माता उन्हें तर्क से परास्त करने का प्रयास करतीं हैं.किन्तु, वे रुकते नहीं..पुनः कुछ कहना चाह रहे होते हैं..माता अपनी सखियों से कहती हैं-

निवार्यतामालि किमप्ययं वटु: 
पुनः विवक्षु: स्फुरितोत्ताराधर:
न केवलं यो महतोSपभाशते
शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक.

इतना कह कर वे अपना पैर वहां से हट जाने के लिए उठाती ही हैं कि वटु-वेशधारी सदाशिव उनके सामने प्रकट हो जाते हैं..उस समय माता की जो स्थिति होती है उसी का वर्णन कालिदास ने उक्त छंद मे किया है जो सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के सर्वोत्तम काव्य में माना जाता है.भारतीयों द्वारा ही नहीं , भारतविद्या के जर्मन, अंग्रेज,आदि विद्वानों द्वारा भी.

कुमारसंभवं का यह प्रसंग मेरे पिता जी बचपन से ही मुझे सुनाया करते थे.

इतना सरस प्रसंग -- वह भी अपनी माता और पिता का प्रेम प्रसंग ..कितना समाधिकारक है यह..

आज माता के पर्व पर यह प्रस्तुत करने की इच्छा हुई






अरविंद पाण्डेय