शनिवार, 6 अगस्त 2011
बुधवार, 3 अगस्त 2011
धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप..
श्री मैथिलीशरण गुप्त.
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3 अगस्त :
धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप.
कवि बने अल्पग्य कोई आप से ही आप.
कक्षा ८ में अध्ययन के समय ही मैंने श्री मैथिलीशरण गुप्त में महाकाव्य '' साकेत '; ''पंचवटी'' चिरगांव, झांसी से मंगाया था.साकेत के प्रथम पृष्ठ पर एक प्रसिद्द छंद अंकित था-
राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है.
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है.
उसी छंद के नीचे ही मैंने अपनी उपर्युक्त दो पंक्तियाँ अंकित कर दी थीं.मेरे पास उपलब्ध साकेत की प्रति आज मेरे सामने है और आज पुनः वह छंद मेरे समक्ष समुज्ज्वल है
अरविंद पाण्डेय |
रविवार, 31 जुलाई 2011
काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :
काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :
तेरे रुखसार के दोनों तरफ बिखरें हैं जो गेसू.
हैं कुछ उलझे हुए,फिर भी ज़रा मदहोश से भी हैं.
तेरी इन अधखुली आँखों की मस्ती घुल गई इनमे
या तेरे दिल की उलझन ही कहीं उलझा रही इनको.
रफ़ी साहब को ये पंक्तियाँ समर्पित.आज उनकी पुण्यतिथि है.इस देश के लोगों को उन्हें इसलिए भी याद करना चाहिए क्योकि वे पाकिस्तान गए.वहाँ उन्होंने प्रसिद्द भजन - ओ दुनिया के रखवाले-- गाया.और कुछ इस तरह से गाया कि हमारे पाकिस्तानी भाइयों ऩे मज़हब का भेद भूलकर, Once More - का नारा लगाया .और रफ़ी साहब को वो गीत दुबारा गाना पडा. जो हमारे पुरोधा आज तक नहीं कर सके और शायद न कर पाएगें, उसे रफ़ी के दिव्य स्वर ऩे सहजता से कर दिया था..वे होते और मैं इन चार पंक्तियों को गीत का रूप देता और वे गाते इसे..ये स्वप्न धरती पर कभी यथार्थ बन पाए तो .....
शनिवार, 30 जुलाई 2011
किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.
भासस्तस्य महात्मनः
दुनिया के युद्धों से थक कर, कल मैं उड़ा गगन की ओर.
किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.
महासूर्य का लोक दिखा फिर, देश-काल था जहाँ अनंत.
बस,प्रकाश का एकमेव अस्तित्व,तमस का अविकल अंत.
स्वप्रकाशमानंदं ब्रह्म ..
कुरुक्षेत्र में विराटरूप दर्शन में अर्जुन ऩे श्री कृष्ण को देखा था - मानों आकाश में करोड़ों सूर्य एक साथ उदित हो उठे हों..जय श्री कृष्ण..वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में एक ऐसे प्रकाश-पुंज का संकेत मिला है जो हमारे सूर्य से १४० अरब गुना बड़ा हैं एवं जिसका प्रकाश, हम तक आने में, १४० अरब प्रकाश वर्ष का समय लगता है..
अरविंद पाण्डेय |
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.
वृन्दावन के निभृत कुञ्ज में श्री राधा-वनमाली .
स्वच्छ शिला पर बैठे थे , छाया करती थी डाली.
लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.
योगी थे साश्चर्य , देख , योगेश्वर का व्यापार .
प्राचीन काल में लाल रंग के लोध्र पुष्प के पराग के लेप से मुख का श्रृंगार किया जाता था.
कालिदास ऩे मेघदूत में लिखा है:
नीता लोध्रप्रसवरजसा पांडुतामानने श्री:
निभृत = एकांत.
साश्चर्य = आश्चर्य से युक्त.
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शनिवार, 23 जुलाई 2011
मैं देव और पशु साथ साथ, मैं हूँ मनुष्य .
ॐ.आमीन .
मै अणु बनता हूँ कभी ,कभी बनता विराट .
अनुभव करता परतंत्र कभी, बनता स्वराट.
मैं कभी क्रोध-प्रज्वाल, कभी श्रृंगार शिखर ,
मैं नियति-स्वामिनी का बस हूँ सेवक,अनुचर.
मैं देव और पशु साथ साथ, मैं हूँ मनुष्य .
अरविंद पाण्डेय |
बुधवार, 20 जुलाई 2011
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ ...
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ
यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा.
नरेंद्र मार्गाट्ट इव प्रपेदे
विवर्णभावं स स भूमिपालः
राजमार्ग-संचरण कर रही दीप शिखा सी, इंदुमती.
वरण हेतु आए जिस वर को छोड़,बढ़ चली, मानवती.
उस नरेंद्र का हुआ मुदित मुखमंडल,सद्यः कांति-विहीन.
दीपशिखा-रथ बढ़ जाने से पथ-प्रासाद हुआ ज्यों दीन.
कालिदास की सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वरमणीय उपमा का उदाहरण-
यह देवी इंदुमती के स्वयंवर का वर्णन है रघुवंश का.
वे वरमाला लेकर वर के वरण हेतु संचरण कर रही हैं..............................शेष आप दृश्य को अपनी चेतना में रूपायित करें और सहृदय-हृदय-संवेद्य रस-स्वरुप होकर , अलौकिक आनंद का भोग करे..
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
धीरसमीरे....
धीरसमीरे....
धीर-समीर-प्रकम्पित वन-कुंजो में श्री घनश्याम.
निरख रहे थे श्री राधा का स्वर्ण-वर्ण मुख, वाम.
अकस्मात् हो गया लाल, उनके कपोल का मूल.
खींच लिया था प्रिय मृग-शावक ऩे कौशेय दुकूल.
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धीर-समीर-प्रकम्पित - धीमी हवा के कारण हिलता हुआ..
कौशेय दुकूल = रेशमी दुपट्टा
मृग-शावक = हिरन का बच्चा
स्वर्ण-वर्ण मुख = सुनहरी आभा वाला चेहरा .
श्री राधा जी का दर्शन करने वाले भक्तो ऩे अपने अनुभव बताते हुए, उनके दृश्य - अंगो का रंग,चमकते हुए सोने जैसा बताया है.
शनिवार, 16 जुलाई 2011
बहने न दो सड़को की तपिश में मेरा लहू.
बहने न दो सड़को की तपिश में मेरा लहू.
ग़र ये गरम हुआ तो फिर तुम भी न जिओगे.
हम दिख रहे अभी तुम्हे बेबस, गिरे हुए.
ग़र उठ गए,फिर,भाग के भी बच न सकोगे.
शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
.कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् :ज्ञान-सिन्धु सी आज चंद्रिका नभ में लहराएगी.
स्वयं पूर्ण जो,करूणा से जिनकी, हो पूर्ण. अपूर्ण,
मात्र स्पर्श से जिनके, तम का , पर्वत होता चूर्ण.
जिनकी ज्ञान-अग्नि से भस्मीभूत अविद्या जीर्ण.
उन गुरु के प्रकाश की सत्ता कण कण में परिकीर्ण.
उन्हीं परम गुरु का प्रकाश सविता में होता व्यक्त.
वही सजल, शीतल, शशांक किरणों में हुए विभक्त.
उन्ही परम गुरु की करूणा बहती है जह्नु-सुता में.
उनके चरणों की कोमलता हंसती पुष्प , लता में.
अम्बर की निर्मेय नीलिमा सदृश वर्ण है उनका.
परम शान्ति के सदृश कांति-दीपित शरीर है उनका.
राग-द्वेष या अभिनिवेश का भय सत्वर मिटता है.
जो उन पर-गुरु का श्रद्धा से स्मरण आज करता है.
ज्ञान-सिन्धु सी आज चंद्रिका नभ में लहराएगी.
सकल धरा पर अक्षर किरणे, अविरल बरसाएगी.
आज परम गुरु की है आज्ञा द्विधा-ग्रस्त मानव को-
चन्द्र-किरण को बना शस्त्र, करदो समाप्त दानव को.
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