गुरुवार, 18 नवंबर 2010

धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं ..


तत्सुखे सुखित्वं स्यात: उसके सुख में ही सुख हो : नारद भक्ति सूत्र;

तुमने लिया किसी से और उसको कुछ दिया.
फिर इश्क तो नहीं किया, सौदा किया तुमने.
पाए बिना ही दे गए ग़र इश्क किसी को,
समझो, तुम्हें बस इश्क ही बस इश्क हुआ है..


माता रुक्मिणी श्री कृष्ण से अक्सर ये कहतीं थीं कि हम भी तो आपको असीम प्रेम करती हैं फिर प्रेम का प्रसंग आते ही आप श्री राधा और गोपियों की याद करके आखें सजल कर लेते हैं.. ऐसा क्यों ..हर बार श्री कृष्ण चुप हो जाते.. कुछ कह न पाते..अकथनीय को कहें भी कैसे.. जो समस्त सृष्टि के जीवों को वाणी का दान करते हैं, उनकी वाणी अवरुद्ध सी हो जाती..एक बार देवर्षि नारद, श्री द्वारिकाधीश के अतिथि बने..उनकी उपस्थिति में ही श्री कृष्ण को अचानक भयानक शिरोवेदना हुई.. मस्तक, पीड़ा से फटा सा जा रहा था..राजवैद्य आए..औषधि दी.. कोई लाभ नहीं ..श्री नारद ध्यानस्थ हुए ..फिर माता रुक्मिणी से कहा कि अगर श्री कृष्ण के किसी प्रेम करने वाले या भक्त के पैरों की धूल मिल जाए और उसे इन द्वारिकाधीश के मस्तक पर मल दिया जाय तो ये पीड़ा शांत होगी अन्यथा नहीं.ये पीड़ा किसी अनन्य प्रेमी की उपेक्षा के कारण हुई है श्री कृष्ण को .. सभी  पटरानियाँ और वहां उपस्थित सभी लोग स्तब्ध थे..देवर्षि ने रुक्मिणी  जी से कहा , आप तो इन्हें अनन्य प्रेम करतीं हैं..आपकी भक्ति तो विश्व-विख्यात है..आप अपने चरणों की धूल दीजिये तो इन्हें शान्ति मिले..रुक्मिणी जी ने कहा, मैं , प्रेयसी, भक्त, समर्पित, अपने पैरों की धूल दू तो सीधा नरक का द्वार दिख रहा मुझे..मुझसे ये महापाप न होगा...इसी तरह सभी ने वह ''महापाप'' करने से इनकार कर दिया..नारद ने कहा , अब एक ही  मार्ग दिख रहा...व्रज का मार्ग.. वे व्रज गए और यही प्रस्ताव राधा रानी और गोपियों के सामने रखा..राधा जी और गोपियों को तो लगा कि प्राण ही निकल जायेगे. उन्हें शिरो-वेदना..अभी तक शांत नहीं...कहा , देवर्षि , आपने इतनी देर क्यो की ? तुरंत आते..राधा जी ने गोपियों के पैरों धूल इकट्ठी करनी शुरू की.सभी गोपियों ने अपने पैरों की धूल दी.. उनके चरण-रज से नारद की झोली  भर गई..फिर सभी ने कहा , नारद जी, आप ले जाइए .फिर कभी उन्हें वेदना हो तो उसकी चिकित्सा के लिए भी हम अभी से दे रही हैं..हम जानती हैं कि उनके मस्तक पर हमारे पैरो धूल लगेगी तो हमें महापातक होगा..वे तो अनंत , सनातन,परमात्मा हैं..किन्तु हम नरक का कष्ट भोगने के लिए तैयार हैं अनंत काल तक.. उन्हें वेदना हो एक क्षण भी, ये तो हमें उस नरक से भी अधिक वेदानादायी है..नारद आए.. वह धूल की झोली लिए..आंसू बहाते..प्रेम-पारावार में अभिषिक्त हो रोमांचित..द्वारिकाधीश ने उस धूल का एक कण मस्तक पर लगाया ..उनकी देह  प्रेम-पुलकित हो रही थी .. प्रेमाश्रुओं से वक्षस्थल का अभिषेक हो रहा था..बार बार उस धूल का स्पर्श कर वे परमानन्दस्वरूप अनंत , स्वयं आनंदित हो रहे थे.. रुक्मिणी और अन्य सभी उस दृश्य को देख अपूर्व आनंद में मग्न थे .. रुक्मिणी को उनके प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन व्रजराजकिशोर,  द्वारिकाधीश ने जो स्वयं को पीड़ित किया, उसका स्मरण कर वे लज्जित हो रहीं थीं..धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं .. धन्य श्री शुकदेव जिन्होंने इस भागवत रूपी अमृत से संसार को शाश्वत काल के लिए भिगो दिया..
----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 10 नवंबर 2010

I often Fall on thorns of desires and I bleed


O Light of My Soul ! Come and See My Mind.
It is Shining ever with Love to You,Blind.
My Heart Keeps and Kisses You , Wild.
I Pine for Your Lovely Looks as A Weeping Child.

Come and Brush away my Despair,
Touch Me without making me aware,like gentle air.
I am Just  in Your Need, Indeed.
Look at Me,I often Fall on thorns of desires and I bleed.


----अरविंद पाण्डेय

रविवार, 7 नवंबर 2010

मेरी बहन ! मैं बहुत दूर हूँ मगर, फिर भी ..

भैया दूज : भ्रातृ-द्वितीया:

मेरी बहन ! मैं बहुत दूर हूँ मगर, फिर भी,
तेरे करीब मेरी रूह पहुँच जाती है.
किसी को याद करूं या न कर सकूं लेकिन,
हरेक पल तेरी दुआ की  याद आती है.

तेरे रुखसार से रुखसार मेरा मिलता है,
तेरे रुख़ से ही मेरा रुख़ भी बदल जाता है.
तेरी नज़र ही मेरी बद-नज़र मिटाती है,
मेरा दिल भी तेरे ही दिल की तरह गाता है.
-------------------------------

I Bow to My Sisters today and Dedicate these lines in their honor who prayed at the time when I was being Interviewed in a Room of UPSC , Delhi.. and , Their pure prayers were accepted .. 

I came out of the Interview room as an IPS officer in first Attempt.!!


-- अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 3 नवंबर 2010

तुझे मेरे लिए ज़मीन पे आना होगा .!


हे अबोध ! अगम्य ! प्रियवर ! 

मुझे मालूम  के तू आसमां पे रहता है.
तुझे ज़मीन पे आने की ज़रुरत भी नहीं.
मगर,कुछ इस तरह से मैं तुझे पुकारूंगा.
तुझे मेरे लिए ज़मीन पे आना होगा .. 

I know You are in distant sky of universal mind !
I know you need not to descend here.
Yet, I will call you in such a way,
You have to come to Earth only for me, I swear !! 

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 1 नवंबर 2010

A sweet sound came to me,''Are you alright !''


I came late tonight and was feeling tired,
I saw You standing before Mirror,
 Setting Bindi on Forehead,
And, I, an effortless kiss, aspired .

I came closer to You slowly,
Put my Chin on your right shoulder.
Your breath, I heard, got  faster ,
And, drew away all my melancholy.

I said to you ,'' Look at me , My Princess !
And, You turned your head towards me,abruptly.  
Oh! My dream,came true,of effortless and innocent kiss,
And, so, you filled in me infinite ecstasy, My Empress !

 A sweet sound came to me  ,''Are you alright !''
I  whispered warbling  ,'' yes , wonderful tonight ! ''.

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

पहले मंदिर नहीं, करें पहले भारत-निर्माण.



श्रीरामभद्रः विजयते:


मिले  तर्क  से  परे ,तुम्हारे  होनें  की अनुभूति.
प्रतिपल,प्रतिपदार्थ में तुम हो-बस हो यही प्रतीति .
समय नहीं,अब कृपा करो अभिराम-रूप हे राम.
हर ध्वनि जो मैं सुनूं गूंजता हो उसमे बस ''राम''. 



राम तुम्हारा नाम लिए फिरते हैं जो बाज़ार..

मंदिर जिनकी राजनीति है, रामभक्ति व्यापार.
उन्हें कहो अब तुम्हीं, किसी की बात रहे ना मान.
मंदिर का करें पहले  भारत-निर्माण.

शिला-शिला थी पावन जिसकी,जो आपका निवास.
खंड खंड कर उसे , दिया लाखों जन को संत्रास.
सत्ता में रह किया जिन्होंने पौरुष का  अपमान.
कंदहार में बेचा सारे भारत का अभिमान.

जिन्हें न चिंता राम-रूप मानव का हो उत्कर्ष.
कहीं,किसी को कष्ट नहीं हो, सब में हो बस हर्ष.
दैहिक,दैविक भौतिक तापों से समाज हो मुक्त.
राजनीति में वही तुम्हारा,करते, नाम,प्रयुक्त.

कह दो उनसे कण कण में तुम दीप रहे हो, राम !
कह दो उनसे हर मानव का हृदय तुम्हारा धाम .
कह दो-''मुस्लिम भी, ईसाई भी हैं मेरे पुत्र.
मंदिर जैसा मस्जिद भी है सबके लिए पवित्र.''

----अरविंद पाण्डेय

पहले मंदिर नहीं, करें पहले भारत-निर्माण.



श्रीरामभद्रः विजयते:


मिले  तर्क  से  परे ,तुम्हारे  होनें  की अनुभूति.
प्रतिपल,प्रतिपदार्थ में तुम हो-बस हो यही प्रतीति .
समय नहीं,अब कृपा करो अभिराम-रूप हे राम.
हर ध्वनि जो मैं सुनूं गूंजता हो उसमे बस ''राम''. 



राम तुम्हारा नाम लिए फिरते हैं जो बाज़ार..

मंदिर जिनकी राजनीति है,रामभक्ति व्यापार.
उन्हें कहो अब तुम्हीं,किसी की बात रहे ना मान.
पहले मंदिर नहीं  करें पहले  भारत-निर्माण.

शिला-शिला थी पावन जिसकी,जो आपका निवास.
खंड खंड कर उसे , दिया लाखों जन को संत्रास.
सत्ता में रह किया जिन्होंने पौरुष का  अपमान.
कंदहार में बेचा सारे भारत का अभिमान.

जिन्हें न चिंता राम-रूप मानव का हो उत्कर्ष.
कहीं,किसी को कष्ट नहीं हो, सब में हो बस हर्ष.
दैहिक,दैविक भौतिक तापों से समाज हो मुक्त.
राजनीति में वही तुम्हारा,करते, नाम,प्रयुक्त.

कह दो उनसे कण कण में तुम दीप रहे हो, राम !
कह दो उनसे हर मानव का हृदय तुम्हारा धाम .
कह दो-''मुस्लिम भी, ईसाई भी हैं मेरे पुत्र.
मंदिर जैसा मस्जिद भी है सबके लिए पवित्र.''

----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

Come into Me and be A Serene Slumber !


The Deadly Dim Dusk Roars and no Stars Shine.
The Sky is darkening slowly with despondency of Mine.

The Nasty Night is Coming Again.
Pouring down the Pulsating Pain.

Alas ! You are away and away, why ?
None will Live you as will , I .

My Heart aches when Yours, aches.
My Heart Leaps up when,Yours, Jump,Takes.

Come into Me and be A Serene Slumber.
Past Pained You but, Perished , don't Remember !


----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

वास्तव में,मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था:माता मैथिली:मैं नारी हूँ :3


श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित.3
६ .
मैंने अपनी निजता का निर्भय किया दान.
प्रज्ज्वलित-अग्नि में कर प्रवेश, मैं थी अम्लान.

मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों.
था स्वप्न - राम का सार्वभौम अभिनन्दन हो.

इसलिए, सहज निर्वासन था स्वीकार मुझे.
अन्यथा, राम क्या करते अस्वीकार मुझे?
७.
मैंने तमसा-तट पर लक्ष्मण से कहा -तात !
श्री राम बनें आदर्श चक्रवर्ती सम्राट .

वे करें प्रजा-पोषण सोदर भाई समान.
जीवन उनका, यश,धर्म,कीर्ति का हो निधान.

कहना उनसे- मैथिली नहीं हैं  व्यथा-विद्ध.
बस एक कामना, राघव हों अतुलित प्रसिद्द.
७.
श्री राम-राज्य की  नारी भी थी मैं, प्रबुद्ध.
मैंने चाहा था- रावण से हो महायुद्ध.

राक्षसी हिंस्र-संस्कृति का जिससे हो विनाश.
बंधुता तथा समता,स्वतन्त्रता का प्रकाश-

प्रत्येक मनुज के अंतर में उद्भासित हो.
वसुधा, करूणा से कुसुमित और सुवासित हो..
८.
यदि राम-सभा में जा,मैं करती अभिवेदन.
तब निश्चित ही  निरस्त हो जाता निर्वासन.
श्री राम और मैं करते वैयक्तिक-विलास.
पर उस आदर्श-परिस्थिति का रुकता विकास.

जिसमें शासक त्यागा करते हैं पद अपना .
पर,जो आसक्त पदों में,उनसे क्या कहना !
९.

वास्तव में, मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था.
क्या कहूं ,राज्य का जन-समुदाय अभागा था.

पुट-पाक सदृश वेदना राम को बींध गई.
जीवन भर मैं श्री राम-विरह में दग्ध हुई.

इस अग्नि-सिधु मंथन से बस यह अमृत मिला.
राघव के अक्षर यश का सुरभित पुष्प खिला.
१०.
मैं वही जबाला, जिसने नहीं विवाह किया. 
पर, सत्यकाम जाबाल-पुत्र को जन्म दिया.

प्रारंभ किया जिसने परम्परा गुरुकुल में
है पिता-नाम अनिवार्य नहीं नामांकन में 

गरिमामय नारी -स्वतन्त्रता का प्रथम घोष
था समय एक , मैं मानी जाती थी अदोष
८ . 
मैं वही अपाला , कुष्ठ -रोग से जो पीड़ित.
थी देह नही रमणीय , पुरूष सब थे परिचित.

सौन्दर्य नहीं था छलक रहा मुझसे बाहर
पर, प्रज्ञा का सागर लहराता था अन्दर

मेरे मंत्रों से प्रथम वेद है आलोकित
मेधा-बल से मैनें समाज को किया विजित..
==============================
स्त्री के प्रति भारत की विलक्षण, शाश्वत और यथार्थवादी दृष्टि के विरोध में, बुद्धि-दरिद्रों द्वारा, माता मैथिली के निर्वासन का उदाहरण दिया जाता है..किन्तु यह उदाहरण उनके द्वारा ही दिया जाता है  जिन्होंने एक बार भी वाल्मीकीय रामायण का पारायण नहीं किया.वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के पैंतालीसवें सर्ग के सत्रहवें श्लोक में श्री राम का लक्ष्मण को दिया गया आदेश अंकित है--
गंगायास्तु परे पारे वाल्मीकेस्तु महात्मनः .
आश्रमो दिव्यसंकाशः तमसातीरमाश्रितः 
श्री राम ने लक्ष्मण से कहा था -'' गंगा के पार स्थित तमसा नदी के तट पर, महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है..लक्ष्मण ! तुम कल प्रातः सीता को उसी आश्रम के निकट पहुचाकर वापस आना.''
 अर्थात श्री सीता को निर्जन वन में छोड़ने का आदेश श्री राम का नहीं था.
इसी तरह,जब श्री मैथिली को वाल्मीकि आश्रम के निकट ले जाकर निर्वासन की राजाज्ञा लक्ष्मण द्वारा सुनाई गई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा-
यच्च ते वचनीयम स्यादपवादः समुत्थितः 
मया च परिहर्तव्यम त्वम्  हि मे परमा गतिः
अर्थात श्री मैथिली ने लक्ष्मण से श्री राम के लिए अपना सन्देश भेजा था- ''जनसमुदाय के बीच जो आपकी निंदा कुछ घटनाओं के कारण हो रही है उसे समाप्त करना मेरा भी कर्तव्य है..आप धर्मपूर्वक जनसमुदाय का पालन वैसे ही कीजिये जैसे अपने सगे भाइयों का करते हैं.मुझे आपके धर्मानुकूल शासन की चिंता है , अपने शरीर की नहीं. ''
इस प्रकार श्री मैथिली ने निर्वासन स्वीकार करके, वास्तव में, राज्य-हित में अपना साम्राज्ञी का पद त्यागा था.
मानव-मन की इस सर्वोत्कृष्ट अवस्था को हृदयंगम कर पाना लोभ,मोह,मद से कलुषित चित्त के लिए संभव नहीं.
श्री मैथिली द्वारा साम्राज्ञी-पद का स्वेच्छया किये गए त्याग की परम्परा का ही निर्वाह आज भी तब होता है जब कोई लाल बहादुर शास्त्री या कोई नीतीश कुमार  किसी रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के वशीभूत, निजी रूप से दोषी न होते हुए भी, पद से त्यागपत्र देता है.

 ..पश्चिम में , महान नारीवादी चिन्तिका - सिमोन द बउआर एवं अन्यों द्वारा प्रारंभ किया गया नारी मुक्ति आन्दोलन , पश्चिमी समाज के लिए पूर्णतः हानिकारक रहा। .क्योंकि यह प्रतिक्रया में, पुरूष - द्वेष के साथ , प्रारंभ किया गया था ..
प्रतिक्रया या द्वेष में प्रारंभ किया गया कोई भी कार्य अपने परिणाम के साथ अप्रिय अंश भी लेकर आता है .. 
वही हुआ..
पश्चिमी समाज में , नारी-वादी स्त्रियों ने, पुरूष द्वेष में ,पुरुषों से बचने के लिए, ऐसी विकृतियों को आत्मसात् किया जिसनें वहाँ की परिवार -प्रणाली का सर्वनाश कर दिया ।
माता , पिताके प्रारम्भिक प्रेम और वात्सल्य से वंचित युवा ,
सहजात मनोवृत्तियों के वशीभूत और मनोविकृतियों से पीड़ित स्त्री -पुरूष,
और खंडित परिवारों का विशाल खँडहर ॥
परिणाम यह भी हुआ कि भारत का कोई संत वहाँ जाए तो लाखों की संख्या में स्त्री -पुरूष उसके अनुयायी बनने के लिए तैयार , समर्पित ॥
आज सारा पश्चिम भारत की ओर आशा के साथ देख रहा कि भारत, उसके सामाजिक -अस्तित्व की रक्षा, अपने पुरातन किंतु चिर-नवीन संस्कारों के साथ कर पायेगा !
हम भारत के लोगों ने कभी किसी विषय पर खंडित अथवा अपूर्ण दृष्टि के साथ विचार नहीं किया ।
स्त्री - स्वतन्त्रता हमारे यहाँ जितनी वैज्ञानिकता के साथ उपलब्ध थी , वैसी कहीं नही थी, न है ।
इन कविताओं में मैंने भारत की उन  महान स्त्रियों की स्तुति की है जिन्होनें अपनी प्रज्ञा के बल से स्त्री - मूलक सामाजिक क्रान्ति का नेतृत्व किया था जो आज की स्त्रियों के लिए भी अति कठिन है ।
आज ऋग्वेद के आकार लेने के हजारों साल बाद , भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि किसी बच्चे का विद्यालय में नामांकन कराते समय , यह अनिवार्य नही होगा कि उसके पिता का नाम बताया जाय ।
विद्यालय में यदि सिर्फ़ माता अपना ही नाम बताती है तो भी नामांकन किया जाएगा।
इस निर्णय को हम ऋग्वेद में वर्णित माता जबाला की कथा के प्रकाश में देखें तो लगेगा कि माता जबाला नें अपने आत्मबल से जो कार्य उस समय अकेले किया था उस कार्य को कराने के लिए आज सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पडा ।
माता जबाला नें अपने पुत्र जाबाल को को गुरुकुल में नामांकन के लिए भेजा ।
वहा कुलपति ने जाबाल से पिता का नाम पूछा और कहा कि पिता के नाम के साथ ही नामांकन होगा ।
जाबाल को पिता का नाम माँ ने कभी बताया नही था न ही वह अपने पिता से कभी मिला था .
उदास जाबाल माँ के पास आया और सारी बातें बताईं ..
माँ ने कहा कि तेरे पिता का नाम मैं भी नहीं जानती । मैं आश्रम में रहती थी । विवाह नही किया ।
किंतु प्रेम - पूर्ण स्थिति में किस ऋषि से तेरा जन्म हुआ , नही मालूम ।
तू जा गुरुकुल और आचार्य से कह दे कि मेरी माता का नाम जबाला है और मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है .वे मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं । किस ऋषि से मेरा जन्म हुआ , यह उन्हें भी नही मालूम .
बालक जाबाल जाता है गुरुकुल माँ के वचन दुहराता है वहाँ आचार्य से।
कुलपति, सत्यकाम जाबाल और माता जबाला की सत्यनिष्ठा का सम्मान करते हैं और जाबाल का नामांकन गुरुकुल में हो जाता है ।
इसी प्रकार माता अपाला कुष्ठ -रोग से पीड़ित थीं । किंतु, उन्होंने अपने प्रग्याबल से उस रोग को समाप्त किया । और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि बनीं ।
समस्त पुरुषों के लिए सम्माननीय ।
भारतीय - संस्कृति में स्त्री-स्वातंत्र्य सार्वभौम रूप से उपलब्ध किए जाने का संकल्प है ।
किंतु यह स्वातंत्र्य अपने इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति के लिए नही अपितु सत्यकाम जाबाल जैसा महान पुत्र उत्पन्न कराने के उद्देश्य से संकल्पित है ।
स्त्री अपने प्रग्याबल से समाज को सशक्त, सुबुद्ध , सुंदर , सुनम्र बना सकती हैं ।
स्त्री की सृष्टि ही इस हेतु हुई ।
किंतु ऐसा करने के लिए स्त्री को स्वयं प्रग्यावती , सशक्त , सुबुद्ध और अंतःकरण से सुंदर बनना होगा ।
सौन्दर्य स्त्री की नियति है --
पुरूष को वश में करने के लिए और उससे समाज की सार्वभौम सेवा कराने के लिए ।
पुरूष के समस्त कर्मों की प्रेरक स्त्री है --
स्त्री है तो पुरूष है --
स्त्री - पुरूष हैं तो समाज और प्रकृति सुरक्षित हैं ।
समस्त प्रकृति की रक्षा के लिए स्त्री का सुन्दरीकरण ,सशक्तीकरण और समरस स्त्री-पुरूष संबंधों का विकास आवश्यक है.

----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

मैं चाहूँ तो कामुक नर को निष्काम करूं : मैं नारी हूँ :2

... मैं नारी हूँ : 2 


 श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित. 
३ 
मुझसे   ही   है अस्तित्ववान कण कण पदार्थ.
मुझसे ही है प्रज्ज्वलित मनुज में सकल स्वार्थ.

मैं सिद्ध पुरुष का अंतर भी कामुक कर दूं.
मैं चाहूँ तो कामुक नर को निष्काम करूं.

प्रत्येक पुरुष का चित्त,बस मुझी में विहरे.
है शांत वही जो माँ कहकर आराधना करे.
४ 

जब पुरुष बुभुक्षित तब मैं उसकी हूँ माता.
मैं भव-सागर में डूब रहे नर की त्राता.

मैं  रमण-भाव पीड़ित पुरुषों की हूँ रमणी. 
मैं प्रणत पुरुष की इच्छाओं की हूँ भरणी.

मेरे मंद-स्मित से मृत उपवन महक  उठे .
मेरे प्रमत्त नयनो से योगी बहक उठे .
५  
मैं आदि-पुरुष की कामत्रिषा की मधुशाला.
मैं बनी मोहिनी,शिव के मन को मथ डाला.

जो पुरुष-सिंह हुंकार भर रहा हो, अविजित.
वह मृग सा मेरे पास रहेगा, सम्मोहित.

मैं क्रुद्ध अगर तो हो जाएगा विश्वयुद्ध .
मैं प्रेमपूर्ण तो शान्ति रहेगी अनवरुद्ध 


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि:मैं नारी हूँ:.1

नवरात्र के इस महापर्व पर विश्व की समस्त शक्तिस्वरूपा स्त्रियों को समर्पित :
मैं नारी हूँ , नर को मैनें ही जन्म दिया
मेरे ही वक्ष-स्थल से उसने अमृत पिया
मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि
मेरे पिघले अन्तर से होती प्रेम-वृष्टि ।

जिस नर को किया सशक्त कि वह पाले समाज
मैं, उसके अकरुण अनाचार से त्रस्त आज ।


मैं वही शक्ति, जिसने शैशव में शपथ लिया
नारी-गरिमा का प्रतिनिधि बन, हुंकार किया --
'' जो करे दर्प-भंजन, जो मुझसे बलवत्तर
जो रण में करे परास्त मुझे, जो अविजित नर ।


वह पुरूष-श्रेष्ठ ही कर सकता मुझसे विवाह
अन्यथा, मुझे पाने की, नर मत करे चाह ।''

क्रमशः

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यह लम्बी कविता मेरे अब तक के जीवनानुभवों के आधार पर प्रस्तुत है । यह क्रमशः प्रस्तुत की जायेगी ब्लॉग में ।

नारी के विषय में भारतीय दृष्टि , अतिशय वैज्ञानिक, मानव-मनोविज्ञान के गूढ़ नियमों से नियंत्रित , सामाजिक-विकास को निरंतर पुष्ट करने वाली तथा स्त्री - पुरूष संबंधों को श्रेष्ठतम शिखर तक ले जाने की गारंटी देती है ।

भारत ने सदा स्त्री -पुरूष संबंधों में स्त्री को प्रधानता दी और स्त्री को यह बताया कि कैसे वह पुरूष को अपने अधीन रख सकती है । कैसे वह पुरूष के व्यक्तित्व में निहित सर्वोत्तम संभावनाओं को प्रकृति और मानव-समाज के कल्याण में नियोजित करा सकती है ।

मैं इन कविताओं में , स्त्री के अनेक स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि यदि समाज को अपराधमुक्त , अनाचार-मुक्त बनाना है तो स्त्री-पुरूष संबंधों को भारतीय-प्रज्ञा के आलोक में परिभाषित करना अनिवार्य है अन्यथा समाज को सुव्यवस्थित रूप से चलाना कठिन से कठिनतर होता जाएगा ।



----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

निष्काम-कर्म की मधुशाला .


वृन्दावन में जिन चरणों से,
लहराई रस की हाला.

जिनका चिंतन,स्मरण कर रहा,
प्रतिपल मुझको मतवाला.

गया धाम के उन्हीं विष्णुपद
को मैं अर्पित करता हूँ.

अपने निस्पृह,नित्यशुद्ध
निष्काम-कर्म की मधुशाला.
=============
श्री गया धाम का श्री विष्णुपद मंदिर.. 
सजल इन्दीवर सदृश  सुकोमल एवं पुष्कल, त्रिविक्रम श्री भगवान वामन के सर्व-काम-प्रद श्री चरण का प्रतिमान इस मंदिर में सुशोभित है.. इस विशाल मंदिर में ही श्री कृष्ण का एक छोटा सा मंदिर है जिसमें उनकी अतिशय सम्मोहक कृष्णवर्णा प्रतिमा विराजमान है.
मैं, गया में २००६ के प्रारंभ में, डी आई जी मगध क्षेत्र के रूप में  पदस्थापित हुआ.बिहार में कार्यरत होने के बाद, वासना थी मन में कि गया में  रहूँ कुछ दिनों तक और श्री महाविष्णु के श्री चरणों का और श्री महाबुद्ध के मनोहर मुख  का बारम्बार दर्शन कर सकूं..तो यह वासना पूर्ण हुई बिहार में २००५ से प्रारम्भ हुए सुशासन मे .. 
गया-पदस्थापन का एक ईश्वरीय लक्ष्य भी था कि मेरे माध्यम से २००२ में औरंगाबाद जिले के धावा रेलवे पुल पर अपराधियों द्वारा गिराई गई राजधानी एक्सप्रेस के अपराधियों को सामने लाया जा सके..
इस मानव-कारित दुर्घटना जैसे महा-अपराध में लगभग १५० निर्दोष रेल-यात्री मृत्यु को प्राप्त हुए थे और इस अपराध में अंतर्लिप्त अपराधियों को तत्कालीन पुलिस ने बचा लिया  था ..चूकि दूसरा कोई यह कार्य कर नहीं सकता था इसलिए नियति-प्रेरित कार्यकारी प्रधान के माध्यम से, ईश्वर द्वारा, मेरे गया-पदस्थापन की योजना क्रियान्वित कराई गई..इस प्रकरण को विराम..लंबा है ..कभी विस्तार से कहना ही है ब्लॉग में.
श्री विष्णुपद मंदिर का ऐतिहासिक माहात्म्य भी विलक्षण है.. भगवान चैतन्य को प्रथम बार भाव-समाधि इसी मंदिर में हुई थी..वे श्री चरणों का दर्शन करते खड़े थे मंदिर में..श्री चरणों की आरती की जा रही थी और उनके माहात्म्य से सम्बंधित संस्कृत के छंद उच्चारित किये जा रहे थे वहां के पुरोहित द्वारा..
उस स्तुति को सुनते सुनते निमाई तन्मय होने लगे और समाधिस्थ होकर गिर गए.. कुछ देर तक उस परम दुर्लभ ब्रह्मानंद में मग्न रहे ..
ज्ञाता , ज्ञेय, ज्ञान की त्रिपुटी विलुप्त थी..शेष  था मात्र परम चिन्मय आनंद..
इस घटना के बाद ही वह भाव-समाधि उन्हें बारम्बार होने लगी और परम नैय्यायिक  निमाई, दिव्य-रस-धारा प्रवाह के प्रवर्तक बने.. 
भक्ति-भागीरथी के इन  भगीरथ भगवान चैतन्य का जन्म-स्थल यही विष्णुपद मंदिर है ..और मेरा सौभाग्य कि मुझे और मेरी पुत्रियों और पत्नी को, प्रतिदिन तक  भी , श्री चरणों के दर्शन का अवसर मिल पाया..
इस मंदिर में श्री कृष्ण के लघु मंदिर के निकट भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस के पिताश्री एवं माताश्री, गया तीर्थयात्रा के क्रम में , सो रहे थे..यहीं उन्हें स्वप्न-सन्देश प्राप्त हुआ था कि श्री भगवान् उनके पुत्र के रूप में आगमन कर रहे हैं..यहाँ से जाने के बाद गदाधर का  जन्म हुआ जो बाद में भगवान् रामकृष्ण परमहंस के रूप में   रूपांतरित हुए.
इस प्रकार इस मंदिर से ही भारत की उन  दो दिव्य ज्योतियों का प्रज्ज्वलन हुआ जिन्होंने अपने हृदय और मस्तिष्क  की शक्तियों से पूरे विश्व को प्रभावित कर रखा है और आगामी सहस्राब्दियों तक प्रभावित रखेगीं .
गया की और संस्मृतियाँ हैं जो बाद में..
श्री कृष्णार्पणमस्तु 

----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

तुम सो जाओ ...


तुम सो जाओ

कि वक्त की सर्दी में
सिकुड़ती हुई मेरी किस्मत भी
अब सोने को है ।

तुम सो जाओ

कि कुहासे के धुंध से ढके हुए
तुम्हारी यादों के फूल
तुषार के आंसुओं में
अब रोने को हैं ।

तुम सो जाओ

कि ख़ुद की ही खूबसूरती से
बेपनाह माहताब
स्याह बादलों की परछाईं में
ख़ुद से ही ख़ुद को डुबोने को है ।

तुम सो जाओ

कि कहकशा की खामोश गहराई में
पिघलकर बेजार बहती हुई
सितारों की मायूस रोशनी भी
अब अपना नूरानी वजूद
खोने को है ।

तुम सो जाओ

कि तुम्हारी साँसों से सरककर बिखरी हुई
महक से प्रफुल्लित
दिलकश सवेरा
अभी बहुत देर से होने को है ।

तुम सो जाओ ...

तुम सो जाओ .....



----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 29 सितंबर 2010

It is My Destiny to be Ached, not it is of Thee.


I know not how are You, My Empress ! in this Midnight,
No More this Moon Seems to Me Lovely and bright.

The Magic of  Magnificent  Moon is about to Vanish,
I Sit beneath  the Dome of this Black Night,with Waning Wish.


Melancholy Pervades the Sky, where ever I See,
My Bleeding Head,with Stabbed Dreams,Bow to Thee.

I Beg for Your Perpetuating Pain , Give it to me,
It is My Destiny to be Ached, not it is of Thee.

--  Aravind Pandey

सोमवार, 27 सितंबर 2010

मैं भगत सिंह हूँ, भारत माता का बालक.


१.
 मैं अंग्रेजो  के दीप्त-दर्प का संहारक .
मैं भगत सिंह हूँ, भारत माता का बालक.

यदि कायरता , हिंसा दोनों ही हों समक्ष.
तब, गांधी  जी ने हिंसा का था लिया पक्ष.

मैंने तो उनके ही मत का अनुसरण किया.
कायरता का कर त्याग, शौर्य का वरण किया.
२.
नेहरू जी ने रावी - तट से सन्देश दिया--
''अंग्रेजों को भारत ने अब तक सहन किया.

अब मौन ,सिर्फ मानवता का अपराध नहीं.
ईश्वर के प्रति भी है भीषण अपराध यही.''

इस तरह, सभी थे चाह रहे- वे  क्रान्ति करें.
पर, नहीं चाह थी वे  शहीद की तरह मरें.
३.
हमने शहीद होने का था संकल्प लिया.
मन में गोरों के अन्यायों को याद किया.

जालियांवाला का रक्त-कुंड, लाजपत राय.
शोषित भारत के घर घर की जो साँय साँय .

हांथों में हानि-रहित बम,पर,दुश्मन दुर्मद.
बहरों से करने बहस , गए  हम सब संसद .
४.
प्रज्ञा थी सबकी  ''दास कैपिटल''  से समृद्ध.
था हृदय तथागत के वचनों से स्वयं-सिद्ध.

सुखदेव,राजगुरु मैंने स्वयं लिया निर्णय.
हम एक बार कर चुके शत्रुओं का संक्षय.

अब दुनिया से कहना है-''देख लिया तुमने.
अपराध किया अंग्रेजों ने या फिर हमने.''
क्रमशः....

आज अमर शहीद भगत सिंह की जन्म तिथि २७ सितम्बर है..वे होते तो क्या कहते , मैं वही कहने की कोशिश कर रहा इस कविता में..आगे भी इसका अंश प्रस्तुत  होगा.
आज इतना ही..
----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 25 सितंबर 2010

O Empress of Infinity !


O Empress of Infinity,
Lovely and Luminous are Your Hairs,


Lips are Luscious, but,Eyes are in Despairs.

See,the Sky is Waiting for You to Smile,
Open Your Lips in Joy for a While.

Let the Full Moon Shine More Bright.
And,Let the Stars Surround the Moon in Sweet Delight


Aravind Pandey

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

..I will take You to the City of Stars,above.


Come with me and
Be My Love.
I will take You to the
City of Stars, above.

God has sent You to me
As a Bliss.
Walk with Me and Let
His desire, accomplish.

There will be 
Melted Moon's Pool.
Sun will be bright, 
But,Lovely and cool.

I will make a Garland 
of Roses for You.
It will not wither away,
Will smile ever A New.

I will make a dish 
of Jupiter's fruits.
It tastes as Nectar,
and,to Angels, Suits.

Come with me and
Be My Love.
I will take You to the
City of Stars, above.

--- अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 18 अगस्त 2010

तुम भी तो भारत माता हो..


         तुम भी तो भारत माता हो.

अर्धरात्रि में जब सारी दुनिया सोई थी,
स्वतन्त्रता के नव-प्रकाश में,
भारतमाता जाग उठी थीं.

प्रतिदिन ही नव-रोज़गार के लिए तरसते भ्रमण कर रहे नर की नारी ! 

तुम भी तो प्रति अर्धरात्रि में,
जब सारी दुनिया सोती है,
भूखे शिशु को दूध पिलाने की कोशिश में,
अक्सर ही जागा करती हो..!

तुम भी तो भारत माता हो..


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 14 अगस्त 2010

जिसके सौ करोड़ मस्तक हैं और भुजाएं द्विशत करोड़...

महाशक्ति भारत और चीन 
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जिसके सौ करोड़ मस्तक हैं और भुजाएं द्विशत करोड़.
उस भारत को नहीं समझना जन-धन-हीन और कमज़ोर.

महाशक्ति  तुम अगर बन रहे, फिर इतना तो रख लो याद.
अगर ''एशिया के सिंहों'' में स्थापित नहीं हुआ संवाद.

नियति-नटी फिर शक्ति-केंद्र अन्यत्र करेगी विस्थापित.
काल-पुरुष तब  ''तुम्हें''  करेंगे सदा सदा को अभिशापित.
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नीचे मैंने भारत के प्रथम और अद्वितीय प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू तथा हिंदी फिल्मोद्योग के  भारत-भक्त, धीरोदात्त नायक  श्री मनोज कुमार को याद करते हुए उनकी फिल्म ''पूरब और पश्चिम'' का गीत-''भारत का रहने वाला हूँ , भारत की बात सुनाता हूँ''--अपनी आवाज़ में प्रस्तुत किया है .
यह गीत आज भारत की स्वतन्त्रता की आलोकित रात्रि मे, उन सभी भारत-भक्तों को समर्पित करता हूँ जो भारत के  स्वर्णिम अतीत पर गर्व करते हुए उसे स्वर्णिम वर्तमान मे रूपांतरित करने हेतु निरंतर प्रयासरत हैं.
BHARAT KA RAHNE WA...


































----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

सिंध ही तो है हमारी सभ्यता की दास्तान....


Aazadi Mubarak to All Brothers in Pakistan !!

सिंध ही तो है हमारी सभ्यता की दास्तान.
बँट गयी ज़मीन,पर तारीख तो अपनी ही है.
है किसी में हैसियत जो कह सके ये बात अब-
सिन्धु-घाटी है अलग तारीखे-हिन्दुस्तान से.

Pakistan will never be Problem for Us.
If will be, Only Bihar&Panjab will Solve it.
We have to switch over to Think about China-How to '' BEFRIEND ''

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 26 जुलाई 2010

श्रावण के इस प्रथम दिवस पर , आओ शिव को नमन करें


सुख हो दुःख हो,यश अपयश हो ,मान हो या अपमान .
झूठा सारा खेल है जग का करले शिव का ध्यान.
सब कुछ करदे शिव को अर्पण ,माया मोह बिसार.
मेरे शिव हैं दीनदयाल.

नीचे प्रस्तुत शिव-भजन मैंने आज से ५ वर्ष पहले लिखकर साम्ब सदाशिव को अर्पित किया था..यह हिन्दी फिल्म --१. प्रेमरोग के गीत -- सुख दुःख आये , जाए, २.काजल के गीत के तोरा मन दर्पन कहलाये ,३.संत ज्ञानेश्वर के गीत जोत से जोत -- की धुनों पर संगीतबद्ध किया गया था..
किन्तु इसकी रिकार्डिंग का अवसर २०१० मे तब मिला जब तनुसागर ने अपना एक रिकार्डिंग स्टूडियो अंतरा -- पटना मे बनाया..इस भजन की रिकार्डिंग और मिक्सिंग उन्होंने की है और मेरा विश्वास है यह भजन साम्ब-सदाशिव को प्रिय है ..
आज श्रावण के प्रथम दिवस पर यह पुनः शिवार्पित -- लोकार्पित है.. 
नीचे का लिंक क्लिक करें --


---अरविंद पाण्डेय