मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.


द्वितीयं ब्रह्मचारिणी 
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करोतु श्रीविन्ध्यनिवासिनी शुभं 
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कनक-कमल-किसलय के पुट में,
माँ ! रख,  रवि का अरुणिम रंग.
ह्रदय-पटल पर मैं खीचूँगा ,
तेरा करुणामय मुख - अंग .

विश्व कहेगा तब विस्मय से ,
अहा प्राणमय यह नव-चित्र .
कब, कैसे तुमने खींचा है ,
कहो , कहो,  हे मेरे मित्र.

तब तो अपने विश्व-रूप का
कथन,  सत्य करने के हेतु.
निज-मंदिर से मेरे उर तक.
माँ , तुम रचित करोगी सेतु.

मेरा, चिर- सुषुप्ति से विजड़ित,
शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.
माँ, तेरे चिन्मय विलास का,
बन जाएगा शाश्वत सद्म.




  स्वर्णिम-स्वप्न-मयी कल्पना से सुगन्धित माँ की यह स्तुति मैंने १०/०६/१९८३ को जगन्माता को अर्पित की थी जो मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ '' में प्रकाशित है..आज नवरात्र महापर्व की द्वितीया को पुनः माँ के चरणों में समर्पित करता हूँ..

-- अरविंद पाण्डेय.

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.


प्रथम-दिवस नवरात्र का.

ॐ 

विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां विन्ध्यपर्वतवासिनीं.
योगिनीं योगजननीं  चंडिकां प्रणमाम्यहं .

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जब  कण  कण अपने  कारण  में  मिलता  है .
अस्तित्व,  काल का भी,  जिस  क्षण हिलता है.
जब खंड खंड हो , देश, शेष  हो  जाता .
तब, जगदम्बा का मुक्त केश लहराता.

जब सूर्य, शून्य बनकर सत्ता-च्युत होता.
जब महाप्रलय-जल, कृष्ण-चरण को धोता.
जब द्वैत, दृश्य-द्रष्टा का  मिट जाता है.
तब, माँ के मुख पर मधुर हास्य  छाता है.

जब घन-प्रकाश, तम में परिणत होता है.
जब तम भी अपनी सत्ता खो देता है.
जब महाविष्णु भी निद्रित हो जाते हैं.
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.

जब, सारी पृथ्वी,  जल में घुल जाती है.
जब , जल-सत्ता, पावक में मिल जाती है.
जब, पावक भी, पवमान स्वयं बनता है .
तब, महाप्रकृति का कमल-नयन खिलता है.

--  अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 3 अप्रैल 2011

..अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.



इस विश्व-कप का जश्न तब मनेगा मेरे घर.
अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.
अफ़ज़ल,कसाब हैं असल जांबाज़ बल्लेबाज़.
जो, कर सको, करो ज़रा इनको भी कुछ नासाज़ .

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एक ''मैच'' था हुआ कारगिल में, पहले कुछ साल.
गिरे पांच सौ ''विकेट'' हमारे, धरती पूरी लाल.
''मैच'' हुआ फिर ''फिक्स'',और दोनों दल थे खुशबख्त .
दिया बहत्तर घंटे तक वापस होने का वक्त.


अफ़ज़ल और कसाब उन्हीं के ऐसे ''बल्लेबाज़''.
''विकेट'',जिन्हें दो सौ तक का,लेने का अब भी नाज़.
मगर उन्हें '' बाहर '' करने के खतरे का जो मोल,
कैसे, कौन चुकाए, हैं खामोश सभी के बोल.


इसी तरह, अक्साईचिन का ''क्रिकेट मैच'' हम हारे.
बासठ में चीनी सेना के हाथों बने बेचारे.
सैन्य-कारखाने में बनना बंद हुआ हथियार .
युद्धाभ्यास छोड़, हमने था किया शांति-व्यापार.


पञ्चशील के भ्रम में, जब हम शान्ति सहित सोते थे.
उसी समय, उनके सैनिक , हथियारों को ढोते थे.
तभी, अचानक ''मैच'' हुआ घोषित चीनी सेना का .
 क्रीडा-दक्ष सजग हो खेला करता सदा शलाका.

हम तो  खुदमुख्तार और आज़ाद वतन कहलाते.
पर, अपनी ही सीमा पर, जब जब भी, हम हैं जाते.
पूछा करते हैं अधिकारी अपने दोस्त वतन के.  
''अरुणाचल में क्यों प्रधानमंत्री आये भारत के .''


यहाँ सभी हैं विकेट,क्रिकेट, बल्लेबाजी में अटके.
ताकतवर बनने का रास्ता छोड़, नौजवां भटके.
और,श्रेष्ठ रहनुमा यहाँ छल-छद्मों में मशगूल.
ताज,मुंबई,कन्दहार,संसद हमले को भूल.
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जिस मुल्क में गेंदों से  जीतने पे जश्न हो.
कंधार-कारगिल पे, पर, कोई न प्रश्न हो.
उस मुल्क की मासूमियत को देख, देख कर .
दहशत-पसंद दिल को भला, क्यूँ न तश्न हो.


- अरविंद पाण्डेय        

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

इसी के नूर में श्री कृष्ण ने गीता थी कही..



मिटेगी सल्तनत, फटेगा आसमां इक दिन .
ये  शम्स ,चाँद सितारे बुझे बुझे होंगें. 
अगर बचेगा तो ईमान , आखिरत के दिन.
अगर  बचा सके उसे, तो, बच सकोगे तुम.

इसी के नूर में  श्री कृष्ण ने गीता थी कही.
इसी की रोशनी में आयतें उतरीं थीं कभी.
कुरआन , बाइबिल भी बस इसी से रोशन है.
इसी दरिया से कभी वेद  की ऋचा थी बही 


- अरविंद पाण्डेय

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.




तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.

मृदु वसंत की शांत,सुशीतल पवन का मिले अभिनन्दन.
व्याकुलता-परिपूर्ण हृदय में अब हो ईश्वर का वंदन.
भेद, भीति ,भ्रम से विमुक्त हो सबका शिव-संकल्पित मन.
दिव्य-दीप्ति से दीपित देखे प्रतिजन, प्रतिपल ही प्रतिकण .

- अरविंद पाण्डेय