महाकाश, उत्फुल्ल - धवल सागर सा लहराता है.
एकमेव है चन्द्र किन्तु शत - शत बन इतराता है.
रात्रि गहन, कल-कल, छल-छल चेतना बही जाती है.
है सुषुप्ति का द्वार खुला निद्रा अब गहराती है.
स्वप्न-हीन हो निशा, दिवस में स्वप्न बनें साकार.
आओ , ऐसा ही अद्भुत हम , रचें एक संसार.
अरविंद पाण्डेय