महाकाश, उत्फुल्ल - धवल सागर सा लहराता है.
एकमेव है चन्द्र किन्तु शत - शत बन इतराता है.
रात्रि गहन, कल-कल, छल-छल चेतना बही जाती है.
है सुषुप्ति का द्वार खुला निद्रा अब गहराती है.
स्वप्न-हीन हो निशा, दिवस में स्वप्न बनें साकार.
आओ , ऐसा ही अद्भुत हम , रचें एक संसार.
अरविंद पाण्डेय
क्या खूब लिखा है आपने । रचना अच्छी लगी। असीम शुभकामनाएं। -- मिलन सिन्हा
जवाब देंहटाएंकाश, यह स्वप्न सच हो..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव..आभार!
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