जिन्हें कुरआन से,गीता से वास्ता न रहा,
वो भी मजहब के रिवाजों की बात करते हैं.
कभी मज़ार पे,मस्जिद में,कभी मन्दिर में,
कभी मोमिन,कभी पंडित का स्वांग भरते हैं.
हर एक सर,जो है सज़दे में, ज़रूरी तो नहीं.
कि वो झुका हो इबादत में,बस,खुदा के लिए.
हमने देखा है कि मछली की ताक में अक्सर,
यहाँ बगले भी इबादत सा किया करते हैं.
अरविंद पाण्डेय
आपने सही लिखा है। विचारोत्तेजक हैं।
जवाब देंहटाएंअसीम शुभकामनाएं। -- मिलन सिन्हा
धन्यवाद...
हटाएंधन्यवाद प्रवीण जी
जवाब देंहटाएं