शनिवार, 21 जुलाई 2012
मंगलवार, 17 जुलाई 2012
सोमवार, 16 जुलाई 2012
Sabke Paalan Haar Aravind Pandey Presents Shiv Bhajan
आज पवित्र श्रावण की दूसरी सोमवारी को भगवान् सदाशिव को मेरे स्वर में , मेरे अपने ही शब्दों में अर्पित भजन :
यहाँ मैंने ''मेरा'' शब्द का प्रयोग किया ,, किन्तु मेरा कुछ भी नहीं,, सब कुछ उन्हीं का है..
आप सभी शिव-भक्त भी इस भजन में वर्णित भगवान् के गुणों का रसास्वादन करें..
1.
शिव ही इस संसार में सबके पालनहार .
शिव को तू मत भूलना,हर पल शिव को पुकार.
2.
शिव शिव जप ले रे मना,शिव का कर गुणगान.
तू भी शिव हो जाएगा, शिव का कर ले ध्यान.
3.
शिव की शरण जो आए.
काल छुए ना उसको वो तो,
अजर-अमर हो जाए,
शिव ने जो पिया था हालाहल ,
अमृत बनकर बरसा पल पल,
नाम जपे जो शिव का उसका भव-बंधन कट जाए.
शिव की शरण जो आए.
4.
सुख हो दुःख हो यश अपयश हो मान हो या अपमान.
झूठा सारा खेल है जग़ का, कर ले शिव का ध्यान.
सब कुछ कर दे शिव को अरपन माया-मोह बिसार.
मेरे शिव हैं दीनदयाल .मेरे शिव हैं दीनदयाल.
5.
शिव की जोत से जगमग करते सूरज चन्दा तारे .
शिव की शरण में कट जाते हैं भव के बंधन सारे.
शिव का ध्यान लगाते चलो.
प्रेम की गंगा बहाते चलो.
जोत से जोत जगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो.
Written and Sung and Dedicated to Lord Shiv by Aravind Pandey .
( IPS 1988 Bihar Cadre )
रविवार, 15 जुलाई 2012
गुवाहाटी में हम भारत के लोग
गुवाहाटी की घटना से यह संकेत मिलता है कि इस देश में प्रत्येक संस्था , प्रत्येक वर्ग यह मानता है कि अपने सामने घटित होते हुए अपराध में हस्तक्षेप करने या पुलिस को तत्काल सूचना देने या ऐसे अपराधी को गिरफ्तार करके पुलिस के हवाले करने की जिम्मेदारी आम नागरिको की नहीं है ..
मगर क़ानून ऐसा नहीं कहता..
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ३७ : किसी पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट की मांग पर, प्रत्येक नागरिक, किसी अपराधी की गिरफ्तारी में उसकी मदद करने के लिए कानूनन बाध्य है.
धारा ३९ : कुछ अपराधों के घटित होने या उस अपराध की योजना की जानकारी मिलने पर प्रत्येक नागरिक पुलिस या मजिस्ट्रेट को सूचना देने के लिए कानूनन बाध्य है..जिसमें लोक-प्रशांति भंग करने का अपराध भी आता है जो गुवाहाटी की घटना में हुआ...
४३ (१ ) कोई भी नागरिक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जो उस नागरिक के सामने कोई गैर ज़मानातीय और संज्ञेय अपराध कर रहा हो और ऐसी गिरफ्तारी के बाद उसे पुलिस को सौंप सकता है..
गुवाहाटी की घटना के साक्षी और घटना का फिल्मांकन करते हुए वहा उपस्थित लोग, उपर्युक्त कानूनी प्रावधानों का पालन न करने के कारण स्वयं भी आरोपित की श्रेणी में आते हैं .
और पुलिस की भूमिका की जांच तो होनी ही चाहिए कि घटना के समय वहाँ के क्षेत्रीय पदाधिकारी कहाँ थे और क्या कर रहे थे..
जर्मनी सहित अनेक देशों में ऐसा क़ानून है जो आप नागरिक द्वारा सक्षम रहते हुए अपराध न रोकने के आचरण को गम्भीर अपराध की श्रेणी में परिगणित करता है..
भारत में भी ऐसा क़ानून बनाए जाने की आवश्यकता है ..
३ साल पहले पटना में एक लडकी के साथ दो लोगो ने सड़क पर इसी तरह का अपराध किया था और उसके बाद माननीय मुख्यमंत्री ने उस समय के आई जी , डी आई जी सहित पटना के एस पी का स्थान्तरण दूसरे दिन ही किया था..
मैंने एस पी , डी आई जी के रूप में रांची, चतरा , पलामू, खगडिया, गया, मोतिहारी , बेतिया , सहरसा ,मुजफ्फरपुर आदि जिलो में पैम्फलेट के माध्यम से जनता को प्रशिक्षित किया था कि वे भी आत्मरक्षा के अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपराधी के ऊपर हमला कर सकते हैं और ऐसा करने से उन्हें कानूनी सुरक्षा भी प्राप्त रहेगी..पुलिस द्वारा ऐसा किया जाना चाहिए जिससे आम नागरिक भी अपने कानूनी कर्तव्यों के प्रति सचेत रहें और पुलिस की सहायता निर्भय होकर कर सकें...
शुक्रवार, 13 जुलाई 2012
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
मंगलवार, 3 जुलाई 2012
The Brilliance of Indian Police Service : Shri Manoje Nath
श्री मनोज नाथ , आई पी एस (१९७३ बैच .बिहार संवर्ग ) |
श्री मनोज नाथ : ३० जून को सेवा निवृत्त हुए और आई पी एस मेस में ३० जून को उनके सम्मान में आयोजित रात्रि-भोज में वे ऐसे लग रहे थे मानो राष्ट्रीय पुलिस अकादमी से बस अभी अभी निकला हुआ कोई आई पी एस प्रोबेशनर हो...एक निरंतर प्रज्ज्वलित बौद्धिक-प्रदीप जिसका आलोक उनके जाने के बाद भी बिहार पुलिस को ज्योतित करता रहेगा.
मैं साक्षी हूँ इस सत्य का कि जिस पद पर आने के लिए प्रत्येक आई पी एस अधिकारी कामना करता है और उस कामना को पूर्ण करने लिए अक्सर उस पद की पवित्रता के पणन को अतिशय सहज भाव से स्वीकार कर लेता है उस पद की ओर उन्होंने उससे भी अधिक सहज होकर, देखा तक नहीं .. श्री मनोज नाथ का स्वागत करने को आतुर वह पद , उन्हें देखता ही रह गया और वे अपनी राह पर चलते गये..और , एक आई पी एस प्रोबेशनर की उन्मुक्त प्रफुल्लता के साथ आई पी एस मेस से ३० जून को अपनी चिरंतन स्वतन्त्रता का आलोक बिखेरते हुए विदा हुए .. सेवा-निवृत्ति के बाद अक्सर लोग कहते हैं कि वे स्वतंत्र नागरिक के अधिकारों का उपभोग करने के योग्य हो गये किन्तु श्री मनोज नाथ , सेवा-काल में भी उस स्वतन्त्रता का भोग-आस्वाद करते रहे जिसकी कल्पना तक करने में दूसरों को भय लगता है..
पटना में रहते हुए मैंने बिहार में अपराध-नियंत्रण के लिए उत्तरदायी माने जाने वाले पद पर विराजमान होते हुए और उस पद से मुक्त होते हुए अनेक लोगो को देखा है किन्तु उस पद पर पदासीन को भी मार्गदर्शन देने की क्षमता से संपन्न अधिकारी को पहली बार देखा था ,, अपनी अतुलनीय गरिमा की प्रभा से आलोकित ,, अपने प्रखर किन्तु फिर भी प्रफुल्लित भाव-प्रवाह के साथ..
मैंने उनके साथ एस पी के रूप में चार साल काम किया .. मेरे वे चार साल अगर मेरी सेवा में नहीं जुड़े होते तो शायद मुझे यह भान भी न होता कि मैंने अपने जीवन में क्या खो दिया .. एक वरीय अधिकारी अपने अधीनस्थ को क्या दे सकता है , उसे कितना मूल्यवान बना सकता है ,, उसमें मूल्यों के प्रति कितनी आसक्ति भर सकता है , यह उन्हें ही पता होगा जिन्होंने उनके साथ काम किया..
बिहार में २२ साल की सेवा-अवधि में डी जी पी के रूप में अगर किसी की याद करके मुझे रोमांच होता है तो वे थे श्री डी पी ओझा .. किन्तु, श्री डी पी ओझा ने डी जी पी के रूप में जो कुछ किया उससे कहीं अधिक गरिमा के साथ, वह सब कुछ और उससे भी अधिक, श्री मनोज नाथ ने बिना डी जी पी बने ही कर दिखाया .. और यह वे ही कर सकते थे..
सेवा नियमों के कारण , बिहार में ,भारतीय पुलिस सेवा के इस सूर्य का प्रकाश-संवरण हुआ है ..और, भारतीय पुलिस सेवा की वर्तमान और भावी पीढ़ी, भविष्य में शायद यह विश्वास भी न करे कि श्री मनोज नाथ जैसे अधिकारी भी हमारी सर्विस में हुआ करते थे ..
जिन्होंने उन्हें पहचाना उनका सौभाग्य था और वे दुर्भाग्यशाली हैं जिन्होंने उन्हें पहचान कर भी नहीं पहचाना ..
श्री मनोज नाथ पहचाने जाने की वासना से मुक्त थे ..
-- अरविंद पाण्डेय
शनिवार, 16 जून 2012
गुरुवार, 7 जून 2012
Sometime think in favour of your Protectors
One must do proper analysis before judgement !
पुलिस की आलोचना के पहले क़ानून द्वारा पुलिस को दिये गए अधिकारों के बारे में भी सोचना चाहिए....
आरा के चर्चित ह्त्या-काण्ड के बाद पटना में घटित घटनाओं के बारे में अखबारों में तथा इंटरनेट पर अनेक विचार व्यक्त किये गए जिसमें पुलिस द्वारा आलोचकों की इच्छा के अनुरूप कार्रवाई न करने के लिए विशेष रूप से आलोचना की गई..इससे चिंतकों को समझना होगा कि -- पुलिस के बल प्रयोग के बाद सरकार , मानवाधिकार आयोग और अन्य मानवाधिकार एजेंसियों द्वारा यह देखा देखा जात है कि वह बल-प्रयोग उचित और क़ानून-सम्मत था या नहीं.?? और यदि वह कानून के अनुसार सही नहीं पाया जाता है पुलिस के लिए समस्या होती है.
इसलिए इस प्रकरण में कुछ बाते और समझनी होंगीं :
१- अभी जो व्यवस्था काम कर रही है उसमें जिला-मजिस्ट्रेट ही विधिव्यवस्था का प्रभारी होता है..पटना में शवयात्रा के समय उत्पन्न समस्या विधिव्यवस्था की थी और डी एम तथा एस एस पी पटना के संयुक्त आदेश से मजिस्ट्रेट और पुलिस की प्रतिनियुक्ति की गई थी..
क़ानून के अनुसार परिस्थिति का मूल्यांकन करके मजिस्ट्रेट को आदेश करना कि पुलिस गैरकानूनी भीड़ के विरुद्ध कैसा बल प्रयोग करे..
पटना में उस दिन लगाए गए मजिस्ट्रेटों ने बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं समझी होगी और पुलिस को बल प्रयोग का आदेश नहीं दिया..
यहाँ पुलिस की कोई निष्क्रियता नहीं थी..
इसलिए उस दिन के लिए पुलिस या पुलिस-प्रमुख के बारे में कही जाने वाली प्रतिकूल बातें अतर्कसंगत हैं और क़ानून के अनुसार सही नहीं हैं..
२.जो भी अप्रिय घटना की गई वह पटना शहर के सिर्फ २ किलोमीटर क्षेत्र में घटित हुई..जब कि शवयात्रा का जुलूस आरा से आ रहा था.. इसलिए यह कहा जा सकता है कि जुलूस मूलतः शांतिपूर्ण था ...बाद में पटना आने के बाद उसमें कुछ उपद्रवी लोग मोटरसाइकलों के साथ मिल गए और अकस्मात ये घटनाएँ की.
मामले दर्ज हैं और जांच के परिणाम सामने आयेगे किन्तु इतना कहा जा सकता है कि उस दिन पुलिस को उत्तेजित करके बल-प्रयोग कराने ( जिसमें पुलिस फायरिंग और नागरिकों की मृत्यु भी संभावित थी ) के षड्यंत्र को पुलिस ने धैर्य-पूर्वक असफल किया और इतने बड़े घटनाक्रम में एक भी गोले नहीं चली ..एक भी नागरिक आहत या मृत नहीं हुआ...
Aravind Pandey
सोमवार, 4 जून 2012
यह पूरे समुदाय खींचकर पीछे ले जाने का षड्यंत्र है ..
बिहार के आरा में हुई ह्त्या की घटना एक सुचितित बहुआयामी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए की गई और इसका मूल उद्देश्य था कि बिहार और बिहारियों की छवि और प्रतिष्ठा में हो रही विश्वस्तरीय उर्ध्वगति को रोका जा सके.
पूरी दुनिया देख रही है कि बिहार में क्या हो रहा है और हमें बताना होगा कि बिहार के नागरिक बड़े संकटों में भी संयम नहीं खोते ..
घटना के बाद ह्त्या के विरोध में आरा,पटना और दूसरे स्थानों पर जो हुआ , ह्त्या के षड्यंत्रकारी यही चाहते थे..लोग उनके बिछाए जाल में फंस गए..और इस बात को भावुकता में लोग समझ नहीं पाए कि वे जो कर रहे हैं वह उन्हीं के लिए नुकसानदेह है.... अभी भी समय है ..यह बात समझी जानी चाहिए और वैधानिक-सत्ता का प्रयोग करते हुए हत्यारों को शिकस्त देनी चाहिए..
निजी शक्ति का प्रयोग करना प्रतिगामी कदम होगा और अब बिहार के लोग वह कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं..अभी बिहार में एक ऐसी व्यवस्था काम कर रही जो सर्ववर्ग-हितकारिणी है..इस व्यवस्था के प्रति विश्वास रखना होगा और ऐसे किसी भी कार्य से बचना होगा कि लोगों को यह प्रचार करने का मौक़ा मिले कि देखिये बिहार में यह सब हो रहा है..
इस बात को समझना होगा कि यह ह्त्या व्यक्तिगत और सामूहिक - दोनों प्रकार की असावधानी का परिणाम थी...खुद के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए था..सुरक्षा के जो नियम हैं उनका पालन यदि नहीं होता है तो इतिहास साक्षी है कि अनेक ताकतवर और महत्त्वपूर्ण लोग भी इस षड्यंत्र के शिकार हुए हैं...
इसलिए शांत-बुद्धि से ह्त्या के पूरे षड्यंत्र समीक्षा करनी होगी क्योकि यह एक व्यक्ति ह्त्या नहीं की गई है .यह एक पूरे समुदाय खींचकर पीछे ले जाने का षड्यंत्र है और मैं जानता हूँ कि हम बिहार के लोग इतने प्रतिभाशाली हैं कि इस बात को समझ सकें..
Aravind Pandey
शुक्रवार, 1 जून 2012
An Appeal by Karl Marx : 1870 के पेरिस कम्यून से बाहर निकलो कामरेड्स
छद्म-माओवाद को वास्तविक माओवाद ही खत्म कर सकता है क्योकि छद्म-माओवाद के विनाश के बीज स्वयं उसी के गर्भ में विद्यमान हैं.और चूँकि यह विषय आधुनिक विश्व का विशेषतः विगत शताब्दी का सर्वाधिक ज्वलंत विन्दु था इसलिए मार्क्स की बौद्धिक-सफलता और उनकी वैश्विक स्तर पर व्यावहारिक असफलता मेरे अध्ययन का विषय रही है.
वर्ष १९८७ में यू जी सी की जूनियर अध्येतावृत्ति के साथ ' द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और सांख्य' के साम्य पर शोध कर रहा था तभी भारतीय पुलिस सेवा के लिए मेरा चयन हो गया और बिहार मेरी सेवाभूमि निर्धारित हुई.चूँकि मार्क्स मुझे किशोरावस्था से ही प्रिय थे इसलिए पी एच डी के लिए मैंने स्वयं ही यह विषय निर्धारित कराया था.
मार्क्सवाद की प्रथम प्रयोगभूमि सोवियत संघ में मार्क्स और लेनिन की प्रतिमाओं और प्रतिमानों के खंडन एवं ध्वंस के बाद भी दुनिया में अगर कहीं कोई संगठन या व्यक्ति उसके पुनःप्रयोग की बात करता है तो यह स्वयं मार्क्स और लेनिन के साथ अन्याय होगा क्योकि पूंजीवाद के विनाश तथा जिस समाजवादी और साम्यवादी समाज के क्रमिक उदय की भविष्यवाणी की थी वह असत्य सिद्ध हुई है.इसलिए विश्व के लिए विचारणीय यह है कि अब कौन सी व्यवस्था निर्मित की जाय कि मानव द्वारा मानव के किसी भी प्रकार के शोषण की समस्त संभावनाएं समाप्त हो जाँय .
माओवाद के नाम पर जो संगठन सक्रिय हैं उनका इस विश्वदृष्टि बिल्कुल परिचय नहीं.जहाँ मार्क्स एक ऐसे स्थिति-विकास को एक ज्योतिषी के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो शताधिक वर्षों बाद क्रियान्वित हो सकता है वहीं ऐसे संगठन अपने 'सम्पूर्ण क्रान्तिक्षेत्र ' को जंगल तक सीमित रखे हुए हैं और ऐसा करने के लिए वे विवश भी हैं क्योकि विज्ञान के विकास और राज्यों की सैन्यशक्ति में असाधारण वृद्धि के कारण अब अंतर्राष्ट्रीय क़ानून या राष्ट्रों के क़ानून के अनुसार अवैध मानी जाने वाली रण-नीति के साथ कोई संगठन सत्ता नहीं पा सकता .वर्ष १९६१ में फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्यूबा में हुई कथित क्रान्ति के बाद पूरी दुनिया में कहीं कोई क्रान्ति नहीं हुई क्योकि सशस्त्र क्रान्ति अब संभव ही नहीं है.
जैसे परमाणु बम के निर्माण ऩे परमाणु बम के प्रयोग की संभावना को ख़त्म कर दिया उसी तरह सशत्र-क्रान्ति के विचार ऩे ही सशत्र-क्रान्ति की संभावनाओं को ख़त्म कर दिया और चूँकि मार्क्स ऩे इस टेक्नीक के अलावा और किसी टेक्नीक का उपदेश अपने शिष्यों को नहीं किया था इसलिए ये धर्मांध लोग अब इससे आगे कुछ सोच ही नहीं सकते.समस्या यह है कि मार्क्स का पुनर्जन्म हो नहीं सकता और वे सशरीर आकर इन्हें उपदेश नहीं कर सकते कि अब १८७० के पेरिस कम्यून से बाहर भेई निअक्लो इसलिए अब इनका बौद्धिक विकास वहीं रुक गया है जहाँ १८७० में था जब १० दिनों के लिए पेरिस कम्यून बना था
जैसे परमाणु बम के निर्माण ऩे परमाणु बम के प्रयोग की संभावना को ख़त्म कर दिया उसी तरह सशत्र-क्रान्ति के विचार ऩे ही सशत्र-क्रान्ति की संभावनाओं को ख़त्म कर दिया और चूँकि मार्क्स ऩे इस टेक्नीक के अलावा और किसी टेक्नीक का उपदेश अपने शिष्यों को नहीं किया था इसलिए ये धर्मांध लोग अब इससे आगे कुछ सोच ही नहीं सकते.समस्या यह है कि मार्क्स का पुनर्जन्म हो नहीं सकता और वे सशरीर आकर इन्हें उपदेश नहीं कर सकते कि अब १८७० के पेरिस कम्यून से बाहर भेई निअक्लो इसलिए अब इनका बौद्धिक विकास वहीं रुक गया है जहाँ १८७० में था जब १० दिनों के लिए पेरिस कम्यून बना था
तब प्रश्न है कि ऐसे संगठन क्यों सक्रिय हैं और वे लोगो को क्यों ऐसे स्वप्न दिखा रहे हैं कि वे बस क्रान्ति होने ही वाली है और २०२४-२५ तक माओवाद नामक व्यवस्था दिखाई देने लगेगी?
यह इसलिए कि ऐसे संगठनो ने जनता के शोषण की अपनी नयी तकनीक विकसित कर ली है जिसे लेकर वे जंगलों,गाँवों में जाते हैं जिन्हें वे आधार-क्षेत्र कहते हैं.इन आधार क्षेत्रों की खासियत यह होती है कि वहाँ न तो बिजली हो , न सड़क हो आधुनिक मनुष्य के लिए आवश्यक अन्य कोई सुविधा भी न हो..क्योकि यह सब रहने पर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के वहाँ पहुचने का खतरा होगा.तो इनका मूल आधार और मूल लक्ष्य ही है कि इनके समर्थक दरिद्रता का जीवन जी रहे हो.क्योकि यदि इनका समर्थक शिक्षित और ईमानदार हुआ तो इन्हें वह स्वयं खतम कर देगा जैसा कि बड़े स्तर पर सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के लोगो ने किया .
बिहार में आने के बाद रांची और खगडिया के बाद मेरी पदस्थापना चतरा जिले के पुलिस अधीक्षक के रूप में वर्ष १९९३ में हुई..चतरा जिला अत्यंत अविकसित होने के कारण इन लोगों के आधार क्षेत्र के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान था .
१९९३ का पद्रह अगस्त मुझे याद है क्योकि इस दिन से मैंने वहाँ सक्रिय छद्म माओवादियों को मार्क्सवाद और माओवाद के मूल सिद्धांतों का प्रशिक्षण देना शुरू किया था.मैंने इन्हें पैम्फलेट्स और सार्वजनिक मंचों से यह बताया कि अगर तुम माओवादी हो तो मैं माओवाद की गंगोत्री मार्क्सवाद में पी एच डी हूँ.
१९९३ का पद्रह अगस्त मुझे याद है क्योकि इस दिन से मैंने वहाँ सक्रिय छद्म माओवादियों को मार्क्सवाद और माओवाद के मूल सिद्धांतों का प्रशिक्षण देना शुरू किया था.मैंने इन्हें पैम्फलेट्स और सार्वजनिक मंचों से यह बताया कि अगर तुम माओवादी हो तो मैं माओवाद की गंगोत्री मार्क्सवाद में पी एच डी हूँ.
मुझे सूचना मिली कि माओवादियों ने पन्द्रह अगस्त के दिन सुदूर क्षेत्रों के कुछ स्कूलों में बच्चों के माध्यम से काला झंडा लगाने तथा बच्चों का जुलूस थाना पर भेजने और उनके माध्यम से स्वतन्त्रता-दिवस मुर्दाबाद का नारा लगवाने की योजना बनाई है .मैंने जिला मजिस्ट्रेट से बात की और निर्णय किया कि परेड में सिपाहियों की संख्या कुछ कम भी करके ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में पुलिस बल भेजा जाय और वहाँ काला झंडा फहराने की इनकी योजना को विफल किया जाय.
मैंने चतरा में माओवादियों का मुख्यालय माने जानेवाले कुंदा थाना में एक इन्स्पेक्टर के नेतृत्व में पुलिस बल भेजा और उन्हें कहा कि जब बच्चों का जुलूस थाना पर आए तो सावधानी और धैर्य के साथ उनके नारों को सुनना है और जब वे थक जांय तब उन्हें टाफी और चाकलेट देना है और स्वतन्त्रता-दिवस का महत्त्व बताना है और उन्हीं बच्चों के द्वारा थाना में राष्ट्रीय ध्वजोत्तोलन कराना है.
पुलिस ने वही किया .उनके नारे शांतिपूर्वक सुने फिर उन्हें को टाफिया खिलाईं और थानाध्यक्ष के स्थान पर खडा करके उनके बाल-नेता द्वारा ध्वजोत्तोलन कराया और वे जो काले झंडे, बैनर ,तख्तियां लेकर वे आये थी उन्हें ले लिया .
दूसरे दिन ही जिला मजिस्ट्रेट ने मुझे फोन किया और कहा कि आपकी रणनीति के कारण समस्या हो गई है. कुंदा के सारे टीचर वहाँ से भाग आए हैं और यह बताया है कि माओवादियों ऩे मान लिया है कि उन्हीं के बुलाने पर पुलिस आई थी इसलिए उन्हें धमकी दी गई है कि जो झंडा बैनर पुलिस ऩे जब्त किया है वो वापस लेकर आओ वर्ना जन-अदालत में हाथ-पैर काट दिया जाएगा.यह धमकी माओवादियों द्वारा क्रांतिकारी किसान मोर्चा नामक संगठन के लेटर पैड पर लिखकर टीचरों को भेजी गई थी.
मैंने जिला मजिस्ट्रेट को कहा कि आप चिंता न कीजिये .ये तो एक बड़ा अवसर है इन पाखंडी माओवादियों के जन-विरोधी कार्यों को जनता के सामने लाने का.मैंने कुंदा में विराट जन-सभा बुलाई और वहाँ जिला-प्रशासन के सारे अधिकारियों को लेकर गया.लोगो के बीच दवाइयां और अन्य चीज़े बाटी गई.फिर मैंने कहा कि मध्य विद्यालय के सभी टीचरों को तब तक के लिए जिलामुख्यालय स्थानांतरित किया जाता है जब तक यहाँ के सभी अभिभावक जुलूस बनाकर माओवादियों के पास जाकर यह नहीं कहते कि -- हमारा टीचर हमें वापस दो .या हमारे बच्चों को तुम खुद पढाओ, परीक्षा दिलाओ और सर्टिफिकेट दो जिससे वे आगे की पढ़ाई कर सकें.. मैंने एक बड़ा सा बोर्ड बनवाया था जिसमें लिखा हुआ था -
एम् सी सी के जन-अत्याचार का प्रतीक
कुंदा मध्यविद्यालय
यहाँ के शिक्षकों को एम् सी सी के गुंडों ऩे धमकी देकर भगा दिया है जिससे यहाँ पढ़ने वाले २४३ बच्चों का भविष्य अन्धकार में है.
एम् सी सी के लोग नहीं चाहते कि यहाँ बच्चे पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी करे.
पुलिस अधीक्षक
चतरा
और हम वापस आ गए .. दूसरे दिन माओवादियों की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति अखबारों में प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया कि क्रांतिकारी किसान मोर्चा ऐसी कोई धमकी टीचरों को नहीं दी है बल्कि एस पी ऩे खुद वह लेटर पैड छपवाकर हमें बदनाम करने के लिए यह किया है..हम सभी टीचरों को चेतावनी देते हैं कि वे सही समय से स्कूल आए और बच्चो को पढाये वर्ना उन्हें जन अदालत में सज़ा दी जायेगी.
इस विज्ञप्ति के बाद उन्होंने टीचरों के घर जाकर उन्हें स्कूल जाकर पढ़ाने को कहा..
इस घटना का निहितार्थ यह है कि माओवादियों के खतरे को समाप्त करने के लिए यह साबित करना होगा कि वे माओवादी हैं ही नहीं बल्कि लेवी वसूलने वाले अवैध गिरोह के सदस्य हैं..पुलिस को आमलोगों को यह बताना होगा कि माओवाद और मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतो पर पुलिस खुद चलती है और माओवादी उस सिद्धांत की ह्त्या कर रहे हैं.जो लोग इस विचार के हैं कि माओवादियों से वार्ता करके समाधान किया जा सकता है वे मार्क्सवाद और माओवाद की प्रकृति और चरित्र से अनभिग्य हैं . भारत में प्रतिवर्ष न्यूनतम दस हज़ार करोड़ रुपये इन लोगो द्वारा लेवी के रूप में वसूले जा रहे हैं.इतनी बड़ी राशि की आय वाला कोई संगठन खुद को समाप्त कर लेगा - यह एक अव्यावहारिक चिंतन है.
इनके एक रणनीति और है कि इनके विरुद्ध कोई ऐसा संगथान भी खडा हो जो कुछ ऐसे कार्य करे कि जिससे इन्हें अपने आपराधिक कार्यों को करने का नैतिक और व्यावहारिक आधार मिल सके . बिहार में माओवादियों और उनके प्रतिरोध में खड़े किये गए संगठन वास्तव में इन्हीं को मज़बूत करते रहे हैं.
माओवाद को मार्क्स के इस उपदेश का अनुसरण करते हुए ख़त्म किया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था - क्रान्ति के लिए आवश्यक है कि जनता अपनी स्थिति की वीभत्सता पर दहल उठे.
अगर हम इनके आधार क्षेत्र में इतना बता सकें कि इनलोगों ऩे आपकी स्थिति भयावह रूप में वीभत्स बना दी है तो हम इन्हें ख़त्म कर सकते है और इसके लिए स्वयं पुलिस और प्रशानिक अधिकारियों को यह घोषित करना होगा कि हम तुमसे श्रेष्ठ मार्क्सवादी हैं.
मैंने मगध रेंज के डी आई जी के रूप में एक पर्चा छपाकर पूरे रेंज में वितरित कराया था जिसकी अंतिम पंक्तियाँ थीं--
यदि जन-सेवा है साम्यवाद.
है न्याय दिलाना साम्यवाद.
शोषण का खात्मा साम्यवाद
रिश्वत ना लेना साम्यवाद
तब मैं हूँ शुद्ध साम्यवादी
मै हूँ असली माओवादी
अरविंद पाण्डेय
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