गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

दीपावली मेरी..



 मासूम से इक दिल में कल मैंने जलाया इक चिराग.
अजब पुरनूर सी दिखती है ये दीपावली मेरी..
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राष्ट्रीय  सहारा 
२५ अक्टूबर .२०११   



--  अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

स्मित-वदन सविता, धरा पर



आज स्वर्णिम अमृत, मधुरिम,
 दान करने मुक्त मन से.
स्मित-वदन सविता, धरा पर,
उतर आए थे गगन से.

पर, यहाँ पर व्यस्त थे सब, 
स्वर्ण-मुद्रा संकलन में.
अमृत का था ध्यान किसको,
भक्ति थी श्वोभाव धन में.


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स्मित-वदन = जिसके चेहरे पर मुस्कान हो .
श्वोभाव = ephemeral  = अल्पकालिक -- यह शब्द कठोपनिषद में प्रयुक्त है. 
 श्वः भविष्यति न वा अर्थात जो कल रहेगा या नहीं रहेगा - यह सुनिश्चित न हो - ऐसी वस्तु 
= शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तु .



-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

कहना-खिंचा-खिंचा रहता है दिल,उनको कर याद..


कृष्ण-मित्र सुदामा:

कहना - श्वास श्वास में लेता हूँ उनका ही नाम.
गली-गली फिरता हूँ, मन में ही लेकर व्रज-धाम.
कहना-खिंचा-खिंचा रहता है दिल,उनको कर याद.
कहना-अब मुझको अपना लें,बस इतनी फ़रियाद...

वृदावन की यात्रा पर गए एक मित्र से सुदामा का श्री कृष्ण के लिए सन्देश :


--  अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

महारास : नौ वर्षों की आयु कृष्ण की,सजल-जलद सी काया.



१ 

एक निशा में सिमट गईं थीं   मधुमय निशा सहस्र .
एक  चन्द्र  में  समा  रहे थे अगणित  चन्द्र अजस्र.
स्वर्गंगा का सुरभि-सलिल उच्छल प्रसन्न बहता था.
सकल सृष्टि में  महारास  का  समाचार  कहता था.

२ 
शरच्चंद्रिका निर्मल-नभ का आलिंगन करती थी.
अम्बर के  विस्तीर्ण पृष्ठ पर अंग-राग भरती थी.
तारक,बनकर कुसुम,उतर आये थे मुदित धरणि पर.
प्रभा-पूर्ण थी धरा , शेष थीं किरणें नही तरणि पर.

गर्व भरी  गति से यमुना जी  मंद मंद बहतीं थीं .
मैं  भी कृष्ण-वर्ण की  हूँ - मानो सबसे कहतीं थीं.
शुभ्र चंद्रिका,कृष्ण-सलिल पर बिछी बिछी जाती थी.
कृष्णा, आलिंगन-प्रमुग्ध, आरक्त छिपी जातीं थीं.

४ 
पृथुल पुलिन पर, पारिजात,पुष्पित-वितान करता था.
पवन, उसे कम्पित कर,कुसुमास्तरण मृदुल  रचता था.
प्रकृति,परम प्रमुदित,कण-कण,क्षण-क्षण प्रसन्न हंसता था.
आज धरा पर ,  प्रतिक्षण  में  शत-कोटि  वर्ष  बसता था.

५ 
नौ वर्षों की आयु कृष्ण की, सजल जलद सी काया.
कनक-कपिश पीताम्बर, नटवर वपु की मोहक माया.
श्रीवत्सांकित  वक्ष ,  वैजयंती   धारण  करता  था. 
कर्णिकार दोनों कर्णों में श्रुति-स्वरुप सजता था.

मस्तक पर कुंचित अलकावलि पवन-केलि करती थी .
चारु-चन्द्र-कनकाभ-किरण चन्दन-चर्चा भरती थी.
चन्दन-चर्चित चरण ,सृष्टि को शरण-दान करता था.
करूणा-वरुणालय-नयनों से रस-निर्झर बहता था.

७ 
पारिजात का भाग्य, आज उसकी शीतल छाया  में.
श्री व्रजराज तनय राजित थे, निज निगूढ़ माया में.
उधर, गगन  में चारु  चंद्रिका, नवल नृत्य करती थी.
इधर, कृष्ण के मधुर अधर - पुट पर वंशी सजती थी.

८ 
महाकाल , तब  महारास के दर्शन  हेतु  पधारे .
व्रज-वनिता का रूप , मुग्ध,साश्चर्य देव थे सारे.
व्रज-सुन्दर ने सस्मित देखा, वंशी मधुर बजाया.
क्लींकार  का  गुंज  गोपिकाओं में मात्र, समाया.

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महारास के रहस्य पर श्री कृष्ण को अर्पित मेरी  लम्बी कविता  का यह एक अंश है .. मेरी यह लम्बी कविता , मेरी आगामी पुस्तक का प्रमुख अंश होगी..

जैसे आइन्स्टीन के द्वारा देखे गए सापेक्षता के रहस्य को विश्व में बस दो-चार लोग ही पूरी तरह समझ पाते हैं , उसी तरह महारास के रहस्य को विश्व में श्री कृष्ण-कृपा-प्राप्त कुछ लोग ही, वास्तव में,  समझ पाते हैं.

महारास के समय श्री कृष्ण की अवस्था नौ वर्ष की थी ..

जिन गोपिकाओं ने महारास में भाग लिया था उनमे सभी , श्री कृष्ण से अधिकतम दो वर्ष मात्र  बड़ी थीं.

 श्री राधा जी,  श्री कृष्ण से एक वर्ष बड़ी थीं. ..


-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

कोटि कोटि सूर्यों की आभा एक ज्योति में हुई प्रविष्ट

जगन्माता धूमावती -यन्त्र 


महानिशा में किया प्रज्ज्वलित माँ को अर्पित दीप,विशिष्ट 
कोटि कोटि सूर्यों की आभा एक ज्योति में हुई प्रविष्ट.
देखा सूर्य - चन्द्र को लेते जन्म और फिर देखा अंत.
देखा माँ की मधुर-मूर्ति , फिर देखा भीषण रूप , दुरंत.


सो अकामयत एकोsहं बहुस्यां प्रजायेय .. 
उन्होंने -- ईश्वर ऩे कामना की कि मैं एक हूँ , अनेक को जन्म दूं... 
और ये अनंत अपरिसीम ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो गया.. 

पृथ्वी माता , प्रति सेकेण्ड ३० किलोमीटर की गति से , भगवान सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं.. 
एक सेकेण्ड के लिए भी उनकी यात्रा रुकी नहीं .. जन्म से अब तक... 

क्या हम पृथ्वी पर अपने अपने अहंकार में डूबे हुए लोगो को यह  अनुभव होता है कि हम एक ऐसे पिंड पर जीवन बिता रहे हैं जो इतनी तेज़ गति से यात्रा कर रहा है अंतरिक्ष में.. 

विज्ञान कहता है की जिस दिन मनुष्य को यह अनुभव हो जाय , उस व्यक्ति की तुरंत मृत्यु हो जायेगी..

-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने - Vandita Sings


ॐ नमश्चंडिकायै .

आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित:भजन 
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मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गईन दयालु आजु मोरे अंगने.
१ 
मैया के माथे पे सोने की बिंदिया .
बैंठीं करके सिंगार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
२ 
मैया के पैरों में चांदी की पायल.
बाजे रन झुन झंकार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
३ 
मैया के होठों पर पान की लाली..
पल पल बरसे आजु मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने. 
४ 
माँ के गले मोतियन की माला.
मुख पे नैना विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
५ 
गोरे बदन पर चमके बिजुरिया.
जिसपे चुनरी है लाल मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
६ 
मैया करती हैं सिंह सवारी .
नाचे सिंह विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.

विन्ध्याचल-धाम के घरों में ये गीत गाया जाता रहा है..

अपनी माता जी के स्वर में ये गीत, मैं बचपन से ही, प्रत्येक पारिवारिक उत्सव के अवसर पर, सुनकर आनंदित होता रहा हूँ..

मूलरूप से ये गीत विन्ध्याचल की लोक-भाषा में है.इसे मैंने फिर से लिखा-खडी बोली में.और मुखड़े को छोड़ कर, भाव भी मेरे हैं .. 

वन्दिता ऩे इसे स्वर दिया .२००२ में रिकार्ड हुआ और वीनस ऩे इसे रिलीज़ किया था.. आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित..

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.





ॐ नमश्चंडिकायै

नारी का नारीत्व, पुरुष का पौरुष हो तुम.
कुसुम-सुकोमल और अशनि के सदृश परुष तुम.
सर्व-व्याप्त हो, सर्वमयी हो किन्तु एक तुम.
माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.

Aravind Pandey 

बुधवार, 28 सितंबर 2011

माँ,तू रूद्राणी,शूलधारिणी,नारायणी,कराली है.नंदिता पाण्डेय का स्वर-पुष्प


 नवरात्र पर्व के प्रथम दिवस पर .
माँ को अर्पित भक्ति-गीत 
नंदिता पाण्डेय के स्वर में..

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर,चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

१ 

माँ , तू रूद्राणी , शूलधारिणी , नारायणी, कराली है.
विन्ध्यवासिनी माता मेरी , तू ही शेरावाली है.

माँ स्वर्ण-कमल है आसन तेरा , आँखों से करूणा बरसे .
शंख, चक्र औ पद्म लिए तू , माँ , मेरे ही मन में बसे.

तू असुरों का नाश करे औ तुझसे ये संसार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

२ 

माँ मधु-कैटभ का नाश किया औ देवों का कल्याण किया.
चामुंडा बन कर तूने ही रक्तबीज का प्राण लिया .

माँ, फिर से धरती पर असुरों का फैला है आतंक बड़ा.
धर्म हुआ कमज़ोर, अधर्मी पापी फिर से सर पे चढ़ा .

ले ले अब तू फिर से इस धरती पर वो अवतार, हे माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर, चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

Aravind Pandey

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है

हज़रत मूसा , नख्ल-ए-तूर के सामने, वृक्ष  में  प्रकट  ईश्वरीय-प्रकाश  के   दर्शन
से  परमानंदित
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तेरे नज़दीक आ पाता हूँ, अक्सर, मैं इन्हीं के साथ.
मुझे रातों की रानाई से , इस खातिर, मुहब्बत है.
खलाओं की खलिश में ख्वाहिशों की खैरियत मत पूछ,
तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है.

I love the lustre of lonely nights ,
Since, with it, I come closer to You. 
O GOD ,  My desire to get Your affinity
is powerty of My Emperorship, now. 


जिस वृक्ष के सामने हज़रत मूसा को  ईश्वरीय  प्रकाश का दर्शन हुआ था  उसे 
  नख्ल-ए-तूर   कहा जाता है ..

ग़ुरबत = दरिद्रता 
खलिश = चुभन .

Aravind Pandey 

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी..

                              
 मुझसे कई मित्रों ने पूछा कि आप प्रेम की कवितायें या नज़्म किसे लक्षित कर लिखते हैं .. क्योंकि लिखते समय लेखक की दृष्टि में कोई व्यक्ति या वस्तु तो रहनी ही चाहिए जिसे लक्षित कर शब्दों के माध्यम से प्रकट भाव, अपनी यात्रा कर सकें .. इन प्रश्नों पर मैंने कई बार सोचा ।

मैनें एक दिन , किसी प्रणयिनी के प्रसन्न-मन की तरह अनंत रूप से विस्तृत और खिलखिलाते हुए आकाश को देख कर, खुद से प्रश्न किया था ---

'वह कौन जिसे देख गुनगुना उठा ये मन .
वह कौन जिसे छूके गमगमा उठा ये तन
वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी,
महकी हुई हवा ये बही सन सनन सनन ..

मैनें जब किसी सांस्कृतिक-कार्यक्रम में - चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल' गाया तो भी यही प्रश्न मुझसे कुछ मित्रों ने किया कि आखिर गाते समय जो भाव, स्वर-लहरियों में पग कर, छलकते हैं, वे किसको भिगोने को बेताब होते हैं ॥

ये प्रश्न मुझे अति प्रासंगिक लगे थे और इन प्रश्नों पर मेरा अपना चिंतन है . मै समझता हूँ कि मेरा यह चिंतन, वैज्ञानिक और यथार्थवादी भी है .
चांदी जैसा रंग - क़तील शिफाई की बेहतरीन खूबसूरत नज़्म, जब मैंने पढा तो मुझे लगा कि ये नज़्म , बज्मे कुदरत के लिए लिखी गयी ..

मगर इश्क की हकीकत से महरूम लोगों नें ये समझा कि ये किसी खूबसूरत, परीजाद जैसी स्त्री के हुस्न की तारीफ़ में लिखी गयी .

सत्य यह है कि दुनियावी खूबसूरती एक ऐसा सितारा है जिसे पाने को जो जितना ही आगे बढे वह सारी कोशिशों के बाद , खुद को उतना ही पीछे महसूस करता है ।

एक कार्यक्रम में मैंने ' चांदी जैसा रंग ' गाने के पहले श्रोताओं से पूछा - ' क्या आपमें से किसी ने कोई ऐसी स्त्री देखी है जिसकी देह का रंग चांदी जैसा चमके और जिसके बाल सोने की तरह कान्तिमान हों ।'

सभी ने एकस्वर से कहा - नहीं देखा ।

तो मैंने गाना शुरू किया और कहा की इस गीत को मैं उस मातृभूमि - धरती माता को समर्पित करते हुए गा रहा हूँ जिसका रंग सचमुच चांदी जैसा है और जिसके बाल . वास्तव में स्वर्णिम कान्ति से विभूषित हैं । तालियाँ बजी लोगों ने गीत का स्वाद लिया , आनंदित हुए ..

नयी दृष्टि ने उन्हें बौद्धिक दृष्टि से भी समृद्ध भी बनाया ..

प्रेम की शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा और लक्षण नारद भक्तिसूत्र में प्राप्त होता है । श्री नारद ने प्रेम का लक्षण निरूपित करते हुए कहा -- तत्सुखे सुखित्वं स्यात् अर्थात जिस पुरूष में यह लक्षण मिले कि वह किसी स्त्री के सुखी हो जाने पर स्वयं सुख का अनुभव करता है । या कोई स्त्री, किसी पुरूष के सुखी होने में स्वयं सुखी होने का अनुभव कर रही तो यह लक्षण प्रेम का है ।

मगर संसार में हो क्या रहा अक्सर ? स्त्री और पुरूष एक दूसरे के अस्तित्व का प्रयोग, स्वयं को सुखी करने में कर रहे । तो यह प्रेम का लक्षण तो है नही । फ़िर , चाँद-फ़िज़ा जैसी कथाएं , प्रेम के नाम पर , आतंक का प्रतीक बन, प्रेम शब्द के प्रति भयग्रस्त बना रहीं लोगों को ।

वस्तुओं के प्रति प्रेम ने समाज को घायल कर रखा है । दहेज़-प्रताड़ना के मामलों में अक्सर मैनें पाया कि पत्नी अत्यन्त रूपवती है फ़िर भी उसके रूप की संपत्ति को न आंक पाने के कारण पति ने पैसे के लिए उसे प्रताडित किया । और जब उसे मैंने इस बात के बारे में समझाया तो उसे गलती का एहसास हुआ और पत्नी-पति के सम्बन्ध सुधर गए ।

एक बात और । संसार में जो आकर्षण है स्त्री -पुरूष का एक दूसरे के प्रति, वह किसी भौतिक -गुण के प्रति आकर्षण है न कि उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति कोई आकर्षित हो रहा । ऐसे आकर्षणों में स्त्री या पुरूष के वे भौतिक गुण यदि अधिक मात्रा में किसी अन्य स्त्री या पुरूष में दिखाई पड़ेंगे तो आकर्षण की दिशा निश्चित रूप से बदल जायेगी । उस ओर जहा वे गुण अधिक दिखाई पड़ रहे । फ़िल्म उद्योग और शोभा डे की सितारों भरी रात्रियों की मस्ती में डूबने वालों के विशिष्ट समुदाय , में इस प्रणय - विचलन की घटनाएँ प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं ।

वास्तव में अनंत प्रेम या तो ईश्वर के प्रति ही हो सकता है या जिसे ईश्वर मान लिया जाय उसके प्रति हो सकता है । क्योंकि इश्वर में ही अनंत मात्रा में सौन्दर्य, माधुर्य, कोमलता , ऐश्वर्य , पौरुष, यशस्विता , श्री , उपलब्ध है जिसके कारण कोई भी किसी के प्रति संसार में आकर्षित होता है ।

अनेक प्रेम-अपराधों के अनुसंधान में मैंने यही पाया कि अपराध इसलिए हुआ क्योंकि श्री नारद की परिभाषा के अनुरूप वहाँ प्रेम था ही नही मात्र प्रेम का आभास था जिसे प्रेम कहा जा रहा था । लोग स्वयं को सुखी बनाने के लिए दूसरों की ताकत का प्रयोग कर रहे थे और यह स्वयमेव एक अपराध है ।

समाज को समृद्ध , शांत और सुंदर बनाने के लिए यह ज़रूरी है की लोग प्रेम का प्रशिक्षण प्राप्त करें , उसे समझें और यह देखें कि वे जिसे प्रेम करते हैं उसे कितना सुखी बना रहे । दूसरों को सुखी करने वाले में ही प्रेम घटित हो सकता है वरना इश्के मिजाजी का तो यही हाल देखा और लिखा -

इस इश्के मिजाजी की तो है बस इतनी दास्तान
इक तीर चुभा , खून बस बहता ही जा रहा
हर शख्स की ज़ुबान , आँख , कान बंद है
इक मैं हूँ जो बस दर्दे दिल कहता ही जा रहा


----अरविंद पाण्डेय