स्वप्न :पृष्ठ १
१
ललित रजनी का मृदु परिरंभ,
ले रहे थे समोद शशकांत .
यथा नारी को भोग्या मान,
रमण करता है मानव, भ्रान्त.
२
कुमुद के विकसित सुन्दर पुष्प,
कौमुदी का पाकर संयोग,
मधुर यौवन रस का साह्लाद,
कर रहे थे अशंक उपभोग.
३
भूलकर अपना निकट भविष्य,
वासना के सागर में मग्न.
शीघ्र ही तल-स्पर्श के हेतु,
कुमुद, शशि थे प्रयत्न-संलग्न.
४
निशा का मनमोहक सौन्दर्य,
पी रहे थे रसमय रजनीश .
यथा माया आकर्ष देख,
भूल जाता है नर को ईश.
५
प्रकृति को पाणि-पाश में बाँध ,
चपल शीतल सुरभित पवमान .
प्रणय में अन्य कर्म को भूल,
सतत करता था सुमधुर गान.
क्रमशः
५२ छंदों में लिखी गई '' स्वप्न '' शीर्षक यह कविता मैंने २/४/१९७९ से प्रारम्भ कर ८/४/१९७९ को पूर्ण की थी.यह मेरे एक स्वप्न-दर्शन पर आधारित है..जिसको मैंने अक्षरशः सत्य घटित होते हुए पाया है.उस समय मै , कालिदास , भारवि, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त,पन्त, निराला , महादेवी आदि कवियों का साहित्य नियमित पढ़ रहा था..और मेरे मन में, कविता को उसी रूप में सृजित करने की प्रेरणा होती थी जो संकृत की गंगोत्री से प्रवाहित शास्त्रीय हिन्दी के रूप में अभिरूप पदों से सुमधुर हो ..
इसमे मेरी शैली, मुझे हिन्दी-कविता के उस स्वर्णयुग का स्मरण कराती है जब हम यह कह सकते थे कि हिन्दी कविता भी विश्व-कविता की पंक्ति में , समान स्थिति में, ,स्वाभिमान के साथ, अपनी उपस्थिति का बोध करा सकती है.
यह कविता , प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ '' में सम्मिलित है..
-- अरविंद पाण्डेय