शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
जम्हूरियत में ताज को समझो न तुम जागीर
ये सच है कि ये ताज तुम्हें दे रहा ठंडक.
सेहरा के सहर सा मगर होगा ये जल्द गर्म.
सब कुछ भुला दिया करो ,पर याद ये रखो.
देना पडेगा हर जवाब आखिरत के दिन.
अपने ही फैसले से क्यों खुरच रहे हो तुम.
चहरे पे चढ़ा है जो सफेदी का मुलम्मा.
ताकत है बेशुमार दिया जिस अवाम ने.
उसके ही बर-खिलाफ लिख रहे हो फैसले..
जम्हूरियत में ताज को समझो न तुम जागीर.
इस मुल्क में अवाम का नौकर है हर वजीर.
करते हुए भी जुर्म जब कांपें न तेरे हाथ.
बस जान लो अल्लाह का अज़ाब आ गया.
अजाज़ को माथे पे भी रखा करो कभी.
आखिर,तुम्हारा ताज भी होगा सुपुर्द-ए-खाक.
=======================
अजाज़=मिट्टी.
अज़ाब= ईश्वरीय दंड
----अरविंद पाण्डेय
रविवार, 13 फ़रवरी 2011
O Sleep ! Come not to lotus eyes of my Queen.
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
हे समस्त स्वर की साम्राज्ञी !
हे समस्त स्वर की साम्राज्ञी !
हे चिन्मय श्रुति - सिन्धु. .
देवि, तुम्हारी , सजल शुभ्रता
निर्मित करती इंदु.
शुभ्र तुम्हारा वर्ण, शुभ्र हैं
वस्त्र , शुभ्र है हास्य.
शुभ्र हंस की शुभ्र काकली,
शुभ्र स्वरों का लास्य .
शुभ्र तुम्हारा दर्शन,भर दे
मन में शुभ्र विचार.
शीतल हो संतप्त हृदय भी,
जैसे शुभ्र तुषार.
शुभ्र तार-सप्तक वीणा के,
शुभ्र ,स्वादु झंकार.
शुभ्र स्वरों के अभिषिन्चन से,
शुभ्र बने संसार.
शुभ्र चेतना, सुरभित चिंतन
का हो अब विस्तार .
तन-मन-धन की सब अशुभ्रता
की हो अब से हार.
वस्त्र-मात्र ही नहीं शुभ्र हो,
अन्तर भी हो शुभ्र.
मानव की चेतना शुभ्र हो,
ज्यों नभ नित्य निरभ्र.
शुभ्र दृष्टि हो, शुभ्र सृष्टि का
शुभ्र दिखे हर दृश्य.
शुभ्र सभी के अंग अंग हों,
शुभ्र सभी के स्पृश्य.
शुभ्र कर्म हों , शुभ्र चर्म हो,
शुभ्र हमारा धर्म.
अब सबका सर्वस्व शुभ्र हो,
शुभ्र सौम्य हो मर्म.
शुभ्र काम हो, शुभ्र धाम हो,
शुभ्र वासना, भोग..
शुभ्र प्रेयसी , प्रेयस , प्रिय हों ,
शुभ्र रहे संयोग .
----अरविंद पाण्डेय
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
सोमवार, 31 जनवरी 2011
You are my lost but regained delight
When I say- I love you , it is not love, ephemeral.
It comes from inner heart , not oral.
I see you with my inward eyes ,
My wanton fancy, then with you, flies.
I love you as moon loves blushing lily.
Be it bubbling summer or winter chilly.
I fall in love innately with you.
Like the rosy sun falls and kisses a lotus , new.
I feel you in the fresh airy affairs of the spring,
when flowers feel empowered and cuckoos sing.
I feel you in the smiling starry sky , above,
And, in the melting moon, fallen in love.
Thus , I feel You , day and night,
You are my lost but regained delight
----अरविंद पाण्डेय
बुधवार, 26 जनवरी 2011
मैं रौनके-जहां हूँ, भारत है नाम मेरा
मैं रौनके-जहां हूँ, भारत है नाम मेरा.
मेरे ही दर से होता है इल्म का सवेरा.
जब जब जहां पे छाया था तीरगी का साया.
ज़ालिम ने तशद्दुद से इन्सां को था जलाया.
तब मैं ही कभी गांधी या बुद्ध, बन के आया.
रहमो-करम से रोशन रस्ता नया दिखाया.
पर,जब कोई सिकंदर था लूटने को आया.
मैंने ज़हर भरा, तब, था तीर भी चलाया.
गिरते हुए जहां को मैंने ही है संभाला.
हर मुल्क, हर वतन है, हमराह, हमपियाला.
दुनिया में बिक रहा था, सामान ,बस हमारा.
बह कर यहीं आता था, दुनिया का सोना सारा .
अब फिर से उस मुकामे-तारीख पर है आना.
इक बार फिर से बोले, मेरी जुबां, ज़माना.
बस मुल्क ही नहीं मैं, मैं मुल्के-मुहज्ज़ब हूँ.
इंसानियत की अब तक की अज्बीयत,अदब हूँ.
इतिहास की किताबें हैं दे रही गवाही .
इंसानियत के दिल से, मिटाता हूँ मैं सियाही.
मुझसे ही हैं मुसलमां, मुझसे ही हैं ईसाई .
दुनिया के मज़हबों में, है मेरी रौशनाई.
भारत है नाम मेरा, फिरदौस मेरी सूरत.
इक बार, फिर से दुनिया को है मेरी ज़रुरत.
आओ शुरू करें अब, फिर से नयी इबारत .
दुनिया के कोने कोने में लिख दें - मैं हूँ भारत.
================================
तीरगी=अन्धकार
मुहज्ज़ब=शिष्टाचार
अज्बीयत = सभ्यता
तशद्दुद = हिंसा
रौशनाई = प्रकाश
अब फिर से उस मुकामे-तारीख पर है आना.
इक बार फिर से बोले, मेरी जुबां, ज़माना.
बस मुल्क ही नहीं मैं, मैं मुल्के-मुहज्ज़ब हूँ.
इंसानियत की अब तक की अज्बीयत,अदब हूँ.
इतिहास की किताबें हैं दे रही गवाही .
इंसानियत के दिल से, मिटाता हूँ मैं सियाही.
मुझसे ही हैं मुसलमां, मुझसे ही हैं ईसाई .
दुनिया के मज़हबों में, है मेरी रौशनाई.
भारत है नाम मेरा, फिरदौस मेरी सूरत.
इक बार, फिर से दुनिया को है मेरी ज़रुरत.
आओ शुरू करें अब, फिर से नयी इबारत .
दुनिया के कोने कोने में लिख दें - मैं हूँ भारत.
================================
तीरगी=अन्धकार
मुहज्ज़ब=शिष्टाचार
अज्बीयत = सभ्यता
तशद्दुद = हिंसा
रौशनाई = प्रकाश
----अरविंद पाण्डेय
गुरुवार, 20 जनवरी 2011
तुझ सा नहीं कोई है माँ ! दोनों जहान में.
1
जगती हूँ अंधेरों में सुलाने को तुझे मैं.
खूँ से बनाती दूध, पिलाने को तुझे मैं.
घुल घुल के खुद,तुझे जो बड़ा कर रही,बेटे !
रोते हुए हर शय को हंसाने के लिए मैं..
2
तेरे पहलू में जो आंसू हैं बहाए मैंने.
उसी से पोछता औरों की आँख के आंसू.
तेरे पहलू में , काश, फिर मेरे बहते आंसू .
ऐ मेरी माँ ! तू बस इतनी सी इनायत करना .
3
दुनिया तो मिल गई है, मगर तू चली गई.
ऐ माँ ! ये ज़िंदगी तो मेरी यूँही ढल गई.
इक बार जो मालिक से मैं, ऐ काश,मिल सकूं.
बदले में ज़माने के, मेरी माँ, तुझी को लूं.
4
मुझ सा तो करोडो मिलेगे इस जहान में.
तुझ सा नहीं कोई है माँ ! दोनों जहान में.
5
एक ओर है दिनभर की मजदूरी औ' चेहरे पर धूल.
और दूसरी ओर खिला रहा मुख पर ज्यो गुलाब का फूल.
मिटे फर्क यह, और सभी स्त्री का जब हो रूप समान.
तब चमकेगा दुनिया में अपना महान यह हिन्दुस्तान.
6
पति-पत्नी हों उमा-महेश्वर सदृश अर्धनारीश्वर.
यही चतुर्थी-व्रत का फल है,बने प्रेम अविनश्वर.
प्रेम, चतुर्थी-चन्द्र सदृश कुछ क्षीण भले दिखता है.
किन्तु,अंत में पूर्ण-चन्द्र सा शीतल बन खिलता है.
=============
ये कविताएं फेसबुक में मेरे द्वारा सृजित पेज --
I am Woman-I Created Man:मैं नारी हूँ नर को मैनें ही जन्म दिया
में समय समय पर लिखी गईं थीं.इन्हें एक साथ ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की इच्छा हुई क्योंकि आज दिव्य-मातृत्व के भाव-बोध में रहा मैं..
पेज का लिंक नीचे है..
-- अरविंद पाण्डेय
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत
जो है व्यवहार तुम्हें अप्रिय ,
वह नहीं किसी के साथ करो.
नैतिकता का बस यही सूत्र ,
प्रिय-कर्म में कभी नहीं डरो.
स्मृति में धर्म और नैतिकता की एक सार्वभौम परिभाषा दी गई है--
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावाधार्यताम.
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत .
अर्थात-
जो है अपने प्रतिकूल करो मत वह व्यवहार किसी से.
प्रसिद्द जर्मन दार्शनिक इमानुअल कांट ने भारत द्वारा नैतिकता की उपर्युक्त परिभाषा को यथावत स्वीकार करते हुए अपना प्रथम नैतिक नियम प्रतिपादित किया था-
''उसी नियम के अनुसार चलो जिसे तुम सार्वभौम बनाने का संकल्प कर सको.''
उसने उदाहरण दिया कि तुम चोरी अपने यहाँ नहीं होने देना चाहते इसलिए दूसरे के यहाँ तुम्हारे द्वारा चोरी किया जाना तुम्हारे लिए अनैतिक है..और चूंकि,यह स्वस्थ बुद्धि के मनुष्यों की सार्वभौम इच्छा होती है इसलिए चोरी किया जाना सार्वभौम रूप से अनैतिक है.. समाज द्वारा सार्वभौम रूप से स्वीकृत नैतिक-आचरणों के सम्बन्ध में भाषण देने वाले इस नियम के अनुसार स्वयं अनैतिक आचरण कर रहे होते हैं..रजनीश से लेकर अन्य सभी स्वघोषित वैचारिक क्रांति-कारियों की यही स्थिति है..
----अरविंद पाण्डेय
मंगलवार, 7 दिसंबर 2010
जब जब शासक,खल के समक्ष झुकता है --
पर,कौन घोलता इस अमृत में विष है.
यह शक्ति-पुंज कैसे असहाय हुआ है.
यह एवरेस्ट क्यों झुक सा अभी गया है.
षड्यंत्र घृणित दिखता जो,वह किसका है.
है सूत्रधार वह कौन, सूत्र किसका है.
विधि के शासन की गरिमा कौन लुटाता.
मर्यादा की रेखा है कौन मिटाता.
दावा करता है कौन न्याय का,नय का.
सारे समाज के शुभ का और अभय का.
वह कौन कि जिसने स्वर्णिम स्वप्न दिखाया.
पर,कर्म किया प्रतिकूल,मात्र भरमाया.
जब जब शासक,खल के समक्ष झुकता है.
तब तब ललनाओं का सुहाग लुटता है.
जब कर्म-कुंड की अग्नि शांत होती है.
तब दुष्टों से धरती अशांत होती है.
जब उच्छृंखल,अपवाचक लोग अभय हों.
जब सत्यनिष्ठ जन को सत्ता का भय हो.
जब श्रेष्ठ,श्रेष्ठता से मदांध सोता है.
वर्चस्व तब अनाचारी का होता है.
विधि के शासन की गरिमा तब लुटती है.
मर्यादा की सब रेखाएं मिटती हैं.
पौरुष का पर्वत भी झुक सा जाता है.
सारा समाज आतंक तले आता है.
इसलिए,अगर सम्मान सहित है जीना
आतंक का न अब और गरल है पीना .
तब नपुंसकों का बहिष्कार करना है.
क्यों बार बार, बस,एक बार मरना है.
छः दिसंबर कल था और वाराणसी के पवित्रतम प्रसिद्द घाटों - दशाश्वमेध घाट शीतला घाट पर श्री गंगा जी की आरती के समय बम विस्फोट किया गया जिसमें श्री गंगा-भक्त हताहत हुए.. इस देश के एक अरब से अधिक लोग उन कर्णधारों से सलीके से, सही तरीके से यह नहीं पूछ रहे कि तुमने इस बम विस्फोट से पहले जो विस्फोट हुए थे उनके अपराधियों को सज़ा दिलाने कि ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभाई.. कंदहार जाकर उन राक्षसों को क्यों मुक्त किया जो भारत पर हमले के अपराधी थे..?? और , जब तक उनसे सही तरीके से यह नहीं पूछा जाएगा तब तक आतंक का यह सिलसिला शायद निश्चिन्त होकर चलाया जाता रहेगा.. !!
छः दिसंबर कल था और वाराणसी के पवित्रतम प्रसिद्द घाटों - दशाश्वमेध घाट शीतला घाट पर श्री गंगा जी की आरती के समय बम विस्फोट किया गया जिसमें श्री गंगा-भक्त हताहत हुए.. इस देश के एक अरब से अधिक लोग उन कर्णधारों से सलीके से, सही तरीके से यह नहीं पूछ रहे कि तुमने इस बम विस्फोट से पहले जो विस्फोट हुए थे उनके अपराधियों को सज़ा दिलाने कि ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभाई.. कंदहार जाकर उन राक्षसों को क्यों मुक्त किया जो भारत पर हमले के अपराधी थे..?? और , जब तक उनसे सही तरीके से यह नहीं पूछा जाएगा तब तक आतंक का यह सिलसिला शायद निश्चिन्त होकर चलाया जाता रहेगा.. !!
----अरविंद पाण्डेय
सदस्यता लें
संदेश (Atom)