तुम आये साथ जो मौसम के तो आना भी क्या आना.
बिना मौसम अगर आओ तो फिर कुछ बात होगी.
अगर , बूंदों को मुझसे है मुहब्बत तो मेरे घर,
बिना मौसम, मेरी खातिर ही , बस, बरसात होगी.
प्रह्लाद जी ऩे कहा , '' हाँ , इसमें भी वे श्री हरि निवास करते हैं..''
इतना सुनते ही मृत्यु के वशीभूत उस महाराक्षस ऩे अपने खड्ग से उस खम्भे पर प्रहार किया ..
श्री मद्भागवत में वर्णित है कि -- प्रहलाद के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री हरि उस खम्भे से नृसिंह रूप में प्रकट हो गए.................''
जिन लोगो ऩे श्रीमद्भागवत का पाठ एवं मनन नहीं किया , मेरी दृष्टि में, वे एक विलक्षण असीम , अनंत आनंद के भोग से वंचित हैं...
इन चार पंक्तियों में उसी महाभाव को प्रकट किया गया है कि जब, जहाँ जो नहीं है , वह , वहाँ भी प्रकट हो सकता है यदि दर्शक और दृश्य में अनन्य सम्बन्ध हो .. यदि यह नहीं तो दृश्य , अपनी प्रकृति अर्थात अपने स्वार्थ के अनुसार ही दर्शक के समक्ष प्रकट होता है और दर्शक को भ्रम होता है कि वह दृश्य , उसके लिए प्रकट हुआ.. संसार में यही दिखाई देता है .. सूर्य , चन्द्र, तारक, पुष्प, फल, आदि अपनी प्रकृति के वशीभूत उदय-अस्त , प्रफुल्ल-शुष्क हो रहे किन्तु .. मनुष्य-मनुष्य के बीच सारे सम्बन्ध इसी प्रकृति के हैं ..किन्तु , मोह और अज्ञानवश प्रेम , स्नेह का भ्रम होता है...
स्वामी विवेकानंद ऩे माया की व्याख्या करते हुए कहा -- पुत्र, माता का अपमान करता है, किन्तु माता , पुत्र के प्रति स्नेह ही रखती है,, यही माया है.......,
-- अरविंद पाण्डेय
जिन जिन चाहा, तिन तिन पाया..
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