नहीं बनाया कभी किसी ने,
अपनी मर्जी की हाला.
अपना कह कर सभी पी रहे,
किसी दूसरे का प्याला.
किन्तु, हाथ में मेरे, जो तुम
देख रहे हो चषक नया,
उसे भेजती, हर दिन, मुझ तक,
मेरी खुद की मधुशाला.
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चषक = प्याला
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ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः
उपनिषद् कहते हैं की ऋषियों ने मन्त्रों का दर्शन किया , उन्हें लिखा या उनकी रचना नहीं की जैसे कवी या लेखक करते हैं.. यह व्यवहार में भी देखा जाता है कि जो जिस कवि या लेखक में अनुभूति जितनी ही गहन होती है उसकी कविता या साहित्य उतना ही प्रभाव उत्पन्न करता है ..
सदा से ही अधिकांश धर्म के प्रवाचकों में स्वयं के अनुभव का अभाव रहता है.. वे किसी तथाकथित गुरु या सम्प्रदाय के ग्रंथों को पढ़कर या याद करके उसे ही लोगो को सुनाया करते हैं और लोग उनका अनुकरण करना प्रारम्भ कर देते हैं ..
मेरी उपर्युक्त कविता इसी भाव को प्रस्तुत करती है...
मानो '' हाला '' वह अनुभूति है जो किसी साधना से साधक को प्राप्त होती है..
'' किसी दूसरे का प्याला '' का अर्थ दूसरे संत द्वारा अनुभव किया गया ज्ञान ..
अधिकांश कथित संत या धर्म-प्रवक्ता किसी दूसरे के अनुभव को ही बताते हैं...
'' मेरी खुद की मधुशाला '' मेरी आत्मा , मेरा अपना अनुभविता ..
जो मैं स्वयं हूँ..
सोऽहं !
सोऽहं !
सोऽहं !
-- अरविंद पाण्डेय
सच कहा आपने, सर्वाधिक प्रसन्न रहने का साधन आप स्वयं हैं।
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