बुधवार, 26 जनवरी 2011

मैं रौनके-जहां हूँ, भारत है नाम मेरा


मैं रौनके-जहां हूँ, भारत है नाम मेरा.
मेरे ही दर से होता है इल्म का सवेरा.

जब जब जहां पे छाया था तीरगी का साया.
ज़ालिम ने तशद्दुद से इन्सां को था जलाया.

तब मैं ही कभी गांधी या बुद्ध, बन के  आया.
रहमो-करम से रोशन रस्ता नया  दिखाया.

पर,जब कोई सिकंदर था लूटने को आया.
मैंने ज़हर भरा, तब, था तीर भी चलाया.

गिरते हुए जहां को मैंने ही है संभाला.
हर मुल्क, हर वतन है, हमराह, हमपियाला.

दुनिया में बिक रहा था, सामान ,बस हमारा.
बह कर यहीं आता था, दुनिया का सोना सारा .

अब फिर से उस मुकामे-तारीख पर है आना.
इक बार फिर से बोले,  मेरी जुबां, ज़माना.

बस मुल्क ही नहीं मैं, मैं मुल्के-मुहज्ज़ब हूँ.
इंसानियत की अब तक की अज्बीयत,अदब हूँ.

इतिहास की किताबें हैं दे रही गवाही .
इंसानियत के दिल से, मिटाता हूँ मैं सियाही.

मुझसे ही हैं मुसलमां, मुझसे ही हैं ईसाई .
दुनिया के मज़हबों में, है मेरी रौशनाई.

भारत है नाम मेरा, फिरदौस मेरी सूरत.
इक बार, फिर से दुनिया को है मेरी  ज़रुरत.

आओ शुरू करें अब, फिर से नयी इबारत .
दुनिया के कोने कोने में लिख दें - मैं हूँ  भारत.

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तीरगी=अन्धकार
मुहज्ज़ब=शिष्टाचार
अज्बीयत = सभ्यता
तशद्दुद = हिंसा
रौशनाई = प्रकाश

----अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

तुझ सा नहीं कोई है माँ ! दोनों जहान में.


जगती हूँ अंधेरों में सुलाने को तुझे मैं.
खूँ से बनाती दूध, पिलाने को तुझे मैं.
घुल घुल के खुद,तुझे जो बड़ा कर रही,बेटे !
रोते हुए हर शय को हंसाने के लिए मैं..
2
तेरे पहलू में जो आंसू हैं बहाए मैंने.
उसी से पोछता औरों की आँख के आंसू.
तेरे पहलू में , काश, फिर मेरे बहते आंसू .
ऐ मेरी माँ ! तू बस इतनी सी इनायत करना .
3
दुनिया तो मिल गई है, मगर तू चली गई.
ऐ माँ ! ये ज़िंदगी तो मेरी यूँही ढल गई.
इक बार जो मालिक से मैं, ऐ काश,मिल सकूं.
बदले में ज़माने के, मेरी माँ, तुझी को लूं.
4
मुझ सा तो करोडो मिलेगे इस जहान में.
तुझ सा नहीं कोई है माँ ! दोनों जहान में.
5
एक ओर है दिनभर की मजदूरी औ' चेहरे पर धूल.
और दूसरी ओर खिला रहा मुख पर ज्यो गुलाब का फूल.
मिटे फर्क यह, और सभी स्त्री का जब हो रूप समान.
तब चमकेगा दुनिया में अपना महान यह हिन्दुस्तान.
6
पति-पत्नी हों उमा-महेश्वर सदृश अर्धनारीश्वर.
यही चतुर्थी-व्रत का फल है,बने प्रेम अविनश्वर.
प्रेम, चतुर्थी-चन्द्र सदृश कुछ क्षीण भले दिखता है.
किन्तु,अंत में पूर्ण-चन्द्र सा शीतल बन खिलता है.
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ये कविताएं फेसबुक में मेरे द्वारा सृजित पेज --
I am Woman-I Created Man:मैं नारी हूँ नर को मैनें ही जन्म दिया
में समय समय पर लिखी गईं थीं.इन्हें एक साथ ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की इच्छा हुई क्योंकि आज दिव्य-मातृत्व के भाव-बोध में रहा मैं..
पेज का लिंक नीचे है..
-- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत


जो है व्यवहार तुम्हें अप्रिय ,
वह नहीं किसी के साथ करो.
नैतिकता का बस यही सूत्र ,
प्रिय-कर्म में कभी नहीं डरो.

स्मृति में धर्म और नैतिकता की एक सार्वभौम परिभाषा दी गई है--
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावाधार्यताम.
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत .
अर्थात-
जो है अपने प्रतिकूल करो मत वह व्यवहार किसी से.
प्रसिद्द जर्मन दार्शनिक इमानुअल कांट ने भारत द्वारा नैतिकता की उपर्युक्त परिभाषा को यथावत स्वीकार करते हुए अपना प्रथम नैतिक नियम प्रतिपादित किया था-
''उसी नियम के अनुसार चलो जिसे तुम सार्वभौम बनाने का संकल्प कर सको.''
उसने उदाहरण दिया कि तुम चोरी अपने यहाँ नहीं होने देना चाहते इसलिए दूसरे के यहाँ तुम्हारे  द्वारा चोरी किया  जाना  तुम्हारे  लिए  अनैतिक  है..और चूंकि,यह स्वस्थ बुद्धि के मनुष्यों की सार्वभौम इच्छा होती है इसलिए चोरी किया जाना सार्वभौम रूप से अनैतिक है.. समाज द्वारा सार्वभौम रूप से स्वीकृत नैतिक-आचरणों के सम्बन्ध में भाषण देने वाले इस नियम के अनुसार स्वयं अनैतिक आचरण कर रहे होते हैं..रजनीश से लेकर अन्य सभी स्वघोषित वैचारिक क्रांति-कारियों की यही स्थिति है.. 



----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

जब जब शासक,खल के समक्ष झुकता है --


सत्ता के पौरुष का पर्याय पुलिस है.
पर,कौन घोलता इस अमृत में विष है.
यह शक्ति-पुंज कैसे असहाय हुआ है.
यह एवरेस्ट क्यों झुक सा अभी गया है.

षड्यंत्र घृणित दिखता जो,वह किसका है.
है सूत्रधार वह कौन, सूत्र किसका है.
विधि के शासन की गरिमा कौन लुटाता.
मर्यादा की रेखा है कौन मिटाता.

दावा करता है कौन न्याय का,नय का.
सारे समाज के शुभ का और अभय का.
वह कौन कि जिसने स्वर्णिम स्वप्न दिखाया.
पर,कर्म किया प्रतिकूल,मात्र भरमाया.

जब जब शासक,खल के समक्ष झुकता है.
तब तब ललनाओं का सुहाग लुटता है.
जब कर्म-कुंड की अग्नि शांत होती है.
तब दुष्टों से धरती अशांत होती है.

जब उच्छृंखल,अपवाचक लोग अभय हों.
जब सत्यनिष्ठ जन को सत्ता का भय हो.
जब श्रेष्ठ,श्रेष्ठता से मदांध सोता है.
वर्चस्व तब अनाचारी का होता है.

विधि के शासन की गरिमा तब लुटती है.
मर्यादा की सब रेखाएं मिटती हैं.
पौरुष का पर्वत भी झुक सा जाता है.
सारा समाज आतंक तले आता है.

इसलिए,अगर सम्मान सहित है जीना 
आतंक का न अब और गरल है पीना .
तब नपुंसकों का बहिष्कार करना है.
क्यों बार बार, बस,एक बार मरना है.

छः दिसंबर कल था और वाराणसी के पवित्रतम प्रसिद्द घाटों - दशाश्वमेध घाट शीतला घाट पर श्री गंगा जी की आरती के समय बम विस्फोट किया गया जिसमें श्री गंगा-भक्त हताहत हुए.. इस देश के एक अरब से अधिक लोग उन कर्णधारों से सलीके से, सही तरीके से यह नहीं पूछ रहे कि तुमने इस बम विस्फोट से पहले जो विस्फोट हुए थे उनके अपराधियों को सज़ा दिलाने कि ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभाई.. कंदहार जाकर उन राक्षसों को क्यों मुक्त किया जो भारत पर हमले के अपराधी थे..?? और , जब तक उनसे सही तरीके से यह नहीं पूछा जाएगा तब तक आतंक का यह सिलसिला शायद निश्चिन्त होकर चलाया जाता रहेगा.. !! 

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 29 नवंबर 2010

Aravind Pandey Speaks Benefits of not Taking Bribe .wmv

यह वीडिओ पटना के रैदिएन्त  स्कूल के एक वार्षिकोत्सव में मेरे द्वारा बच्चों के बीच दिए गए व्याख्यान से सम्बंधित है.
इसका सारतत्त्व यह है कि भारत को महाशक्ति बनने में सबसे भयानक बाधा है - यहाँ के राजनीतिज्ञों और सरकारी अधिकारियों के एक समूह द्वारा योजनाबद्ध रूप से भ्रष्टाचार करना और भारतीय जनता के धन को विदेशी बैंकों में जमा करना.. अगर हम यह रोक दे तो हमारा देश १० वर्षों में ही विश्व की ऐसी महाशक्ति बन जाएगा जो अमेरिका की तरह हिंसा के प्रसार और समर्थन के लिए नहीं जाना जाएगा बल्कि जो विश्वशांति को चिरस्थायी बनाने के लिए विश्व इतिहास में एक बार पुनः सम्मानित होगा..
----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

यहाँ भी रात, सितारों से इश्क करती है.

शेक्सपीयर की मिरांडा 

तुम्हें  निहारने को खिल के हंस रहे हैं गुल .
गुलों के दिल का  कुछ ख़याल तो करना होगा.
मेरे लिए न सही, मैं तो यूँ ही कहता हूँ.
तुम्हें इनके ही लिए अब यहाँ आना होगा.

सुबह यहाँ भी तो मदहोश हवा बहती है.
सुबह यहाँ भी शम्स आसमां पे खिलता है.
यहाँ भी रात, सितारों से इश्क करती है.
यहाँ भी शाम से शर्मा के चाँद मिलता है.

तुम्हारे दिल सा  समंदर यहाँ लहराता है.
तुम्हारे हुस्न सी हसीं यहाँ  फिजाएं हैं.
तुम्हारी ज़ुल्फ़ सा महका हुआ चमन भी है.
तुम्हीं सी शोख यहाँ रुत की कुछ अदाएं हैं.

--- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 21 नवंबर 2010

अक्षर-रमणी के साथ हुआ मेरा विवाह



१ 
मैं महामृत्यु का मित्र, गगन है मेरा पथ.
इस संसृति का मिथ्यात्वज्ञान है मेरा रथ
मैं महाकाल की गति से सत्ता में विचरूं
मैं महाशून्य में सृष्टि-कर्म की प्यास भरूँ.

मैं शुद्ध बुद्धि, मैं शुद्ध सत्य, मैं शुद्ध काम.
मैं नामरूप का सृजन करूं ,रहकर अनाम.
मैं नभ से भू पर उतर रही  गंगा का जल.
प्रक्षालित कर भूतेश-जटा को करूं सरल.
आकाश-चारिणी गंगा सा मेरा प्रवाह.
अक्षर-रमणी के साथ  हुआ मेरा विवाह.

मैं हूँ अनंत का चुम्बन करती अग्निशिखा.
मैंने समस्त संसृति का भावी भाग्य लिखा.
मैं जीव जीव में जीवन भरता सविता हूँ.
मैं महाप्रकृति की सबसे सुन्दर कविता हूँ.
मेरा ही रस पीकर होती संसृति, रसाल.
मेरा दर्शन कर परम क्षुद्र होता विशाल.

मैं प्राण भरूँ तो जीवन पाता पंचभूत.
मेरी सत्ता ही जड़-चेतन में अनुस्यूत .
शत-कोटि सूर्य सा फैल रहा मेरा प्रकाश.
जो पलक गिरे मेरी तो होता सृष्टि-नाश.
इस दृश्य-विश्व की सत्ता का मैं हूँ कारण.
मैं जगद्योनि का सृष्टि-कर्म में करूं वरण.

मैं महापुरातन,चिर-नूतन,प्रतिपल अभिनव.
मैं परम-स्फोट,मैं परम शांत मैं महा-प्रणव. 

यह कविता , वेदान्त-साधना के  सर्वोच्च शिखर  निर्विकल्प समाधि  के ठीक पहले की अवस्था - अखंड ब्रह्माकाराकारित चित्तवृत्ति --  को शब्दांकित करने का प्रयास करती है..
जो इसे मनन कर समझ पाए वे स्वयं भी उस अनुभूति के परमानंद का कण रसास्वादित कर धन्य होगें..

-अरविंद पाण्डेय