तुम प्रकृति-कांति में मिले मुझे ,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.
रश्मिल-शैय्या पर शयन-निरत,
चंचल-विहसन-रत अप्रतिहत,
परिमल आलय वपु,मलायागत,
तुम अरुण-कांति में मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.
जब विहंस उठा अरविंद-अंक,
अरुणिम-रवि-मुख था निष्कलंक,
पतनोन्मुख था पांडुर मयंक,
तुम काल-क्रांति में मिले मुझे ,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन .
जब ज्वलित हो उठा दिव्य-हंस,
सम्पूर्ण हो गया ध्वांत-ध्वंस,
गतिशील हो उठा मनुज-वंश,
तुम कर्म-क्लान्ति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.
आभा ले मुख पर पीतारुण,
धारणकर, कर में कुमुद तरुण,
जब संध्या होने लगी करुण,
तुम निशा-भ्रान्ति में मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.
जब निशा हुई परिधान-हीन,
शशकांत हो गया प्रणय-लीन,
चेतनता जब हो गई दीन,
तुम स्वप्न-शान्ति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन.
तुम प्रकृति-कांति मे मिले मुझे,
जब नहीं हुआ प्रत्यक्ष मिलन..
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यह गीत मैंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति हुई अपनी वास्तविक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए लिखा था दिनांक ०८.१०.१९८३ को .. रवीन्द्रनाथ का जीवन मुझे अपना सा लगता है..मुझे लगता है मैं उनके साथ रहा हूँ.या मैं वही था ..बड़ी गहन अनुभूतियाँ हैं ..कभी विस्तृत रूप मे व्यक्त होंगी ही..
यह गीत मैंने ७ मई के अवसर पर आपके लिए प्रस्तुत किया है..
ब्लॉग में अपनी टिप्पणी अवश्य लिखे आप..
----अरविंद पाण्डेय