जोत से जोत जगाते चलो.
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बचपन से श्री ज्ञानेश्वर सा.
गीत यही मैं गाता था.
खिले फूल, हंसते पेड़ों को,
देख देख मुस्काता था.
लगता जैसे कण कण से
बस कृष्ण नाम - धुन होती है.
उन्हें पूजने को,फूलों की
माला प्रकृति पिरोती है.
वे ही देख रहे आँखों से,
बोल रहे हैं जिह्वा से.
बस, वे ही बस रहे सभी में,
सब जीवित हैं बस उनसे.
-- अरविंद पाण्डेय
बहुत मधुर..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति!
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