शनिवार, 28 मई 2011

सावरकर को शत बार नमन.




अंग्रेजों के वक्षस्थल पर जो गरज उठा - हम हैं स्वतंत्र .
''अत्याचारों के नाश हेतु अब क्रांति उचित''-का दिया मन्त्र.
अपनी बन्दूको से फिर तो थी बरस  उठी गोली घन घन.
उस अमर विनायक दामोदर सावरकर को शत बार नमन.

-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 24 मई 2011

I honored them with my lips.



Today, in the warm noon,
You touched me with powerful innocence.
I feel embraced by summer flowers ,
 full of sweet essence.

I looked at your sandal colored feet,
enriched by rosy strips.
And, in my fancy, 
I honored them with my lips. 

-- Aravind Pandey 

शुक्रवार, 6 मई 2011

जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया...


पृष्ठ - दो 

५ 
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.

६ 
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब  मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.

काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत  पडी हो.

८ 
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.

(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)

-- अरविंद पाण्डेय .

शब्दार्थ:

मृषा = मिथ्या 
अवगुंठ=घूँघट

सोमवार, 2 मई 2011

मंद मंद बह चला समीरण..


(यह कविता १४/०७/१९८० को लिखी गई थी जो आठ छंदों में है और मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ'' में प्रकाशित है..)
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पृष्ठ - एक
१ 

सरिता का आलिंगन करने नील, सुदूर गगन से.
उस प्रशांत रजनी में शशि, धरती पर उतर पडा था.
अतुलनीय,अमिताभ देह की शुभ्र कांति बरसाकर.
उसने गतिमय सरिता को भी शाशिमय बना दिया था.

२ 

मुक्ति प्राप्त कर रवि की शोषक,संतापक किरणों से.
विहँस रही थी मंद मंद वह अपनी प्राकृत विजय में.
वर्तमान-सुख के सागर में डूबी - उतराई सी.
विगत दुखों को भूल, एक विस्मय सी बनी हुई थी.

३ 

अहं भूलकर, प्रिय के आलिंगन के सुख में डूबी.
उसके चंचल मृदुल करों से मस्त केलि करती थी.
कुमुद-वृन्द के वस्त्र हो रहे अस्त-व्यस्त प्रतिपल थे.
सकल सलिल अनुरागानिल से उर्मिल , अनुकंपित था.


मंद मंद बह चला समीरण उनको कम्पित करता .
लगा गान करने सरिता का रोम-रोम कल स्वर में .
शुभ्र कौमुदी के प्रकाश में उस रसमय रमणी का  .
अंग अंग परिरम्भ-राग से अनुरंजित दिखता था.


( क्रमशः )


--अरविंद पाण्डेय 




सलिल = पानी 
 अनुरागानिल = प्रेम की हवा 
 उर्मिल = लहराता हुआ 
परिरम्भ-राग = आलिंगन का रंग