मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012
रविवार, 7 अक्तूबर 2012
शैशव के ही सन्निकट स्वर्ग हँसता है
स्वप्न और विस्मृति है अपना जीवन.
है सुदूर , आत्मा का मूल - निकेतन.
तारक सा ज्योतित नभ से यहाँ उतरता.
आकर वसुधा पर,कुछ विस्मृति में रहता.
गरिमा के जलद-सदृश हम विचरण करते.
ईश्वर के शाश्वत सन्निवास में रहते.
शैशव के ही सन्निकट स्वर्ग हँसता है.
तब, सार्वभौम शासक सा शिशु सजता है.
पर,जब यह शिशु, विकसित किशोर में होता.
तब, सघन कृष्ण - छाया परिवेष्टित होता.
यह, किन्तु, किया करता प्रकाश का दर्शन.
जब होता है उन्मुक्त हर्ष का वर्षण.
-- अरविंद पाण्डेय
गुरुवार, 20 सितंबर 2012
अब अपनों से आकुल हिन्दुस्तान पुकारे..
बहुत कर लिया बंद, अब ज़रा भारत खोलो.
कहा खड़े हो दुनिया में अब खुद को तोलो.
बाजारों में कब्ज़ा है जापान , चीन का.
कितनी दौलत वहाँ जा रही ,यह तो बोलो.
एक वक़्त था जब यूनानी, रोमन सारे.
खूब खरीदा करते थे सामान हमारे.
वही सुनहरी सदी आज फिर कोई दे दे-
अब अपनों से आकुल हिन्दुस्तान पुकारे.
-- अरविंद पाण्डेय
सदस्यता लें
संदेश (Atom)