मंगलवार, 24 मई 2011
शुक्रवार, 6 मई 2011
जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया...
पृष्ठ - दो
५
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.
६
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.
७
काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत पडी हो.
८
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.
(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)
-- अरविंद पाण्डेय .
शब्दार्थ:
मृषा = मिथ्या
अवगुंठ=घूँघट
सोमवार, 2 मई 2011
मंद मंद बह चला समीरण..
(यह कविता १४/०७/१९८० को लिखी गई थी जो आठ छंदों में है और मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ'' में प्रकाशित है..)
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पृष्ठ - एक
१
१
सरिता का आलिंगन करने नील, सुदूर गगन से.
उस प्रशांत रजनी में शशि, धरती पर उतर पडा था.
अतुलनीय,अमिताभ देह की शुभ्र कांति बरसाकर.
उसने गतिमय सरिता को भी शाशिमय बना दिया था.
२
मुक्ति प्राप्त कर रवि की शोषक,संतापक किरणों से.
विहँस रही थी मंद मंद वह अपनी प्राकृत विजय में.
वर्तमान-सुख के सागर में डूबी - उतराई सी.
विगत दुखों को भूल, एक विस्मय सी बनी हुई थी.
३
अहं भूलकर, प्रिय के आलिंगन के सुख में डूबी.
उसके चंचल मृदुल करों से मस्त केलि करती थी.
कुमुद-वृन्द के वस्त्र हो रहे अस्त-व्यस्त प्रतिपल थे.
सकल सलिल अनुरागानिल से उर्मिल , अनुकंपित था.
४
मंद मंद बह चला समीरण उनको कम्पित करता .
लगा गान करने सरिता का रोम-रोम कल स्वर में .
शुभ्र कौमुदी के प्रकाश में उस रसमय रमणी का .
अंग अंग परिरम्भ-राग से अनुरंजित दिखता था.
( क्रमशः )
--अरविंद पाण्डेय
सलिल = पानी
अनुरागानिल = प्रेम की हवा
उर्मिल = लहराता हुआ
परिरम्भ-राग = आलिंगन का रंग
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति..
स्वप्न :पृष्ठ ९
=======
४५
''पूर्ण वसुधा में है परिकीर्ण,
दुःख-सम्मिश्रित सुख का जाल.
अतः,इनमे रहता जो तुल्य,
लांघता वह संसृति का जाल.''
४६
''सतत निस्पृहता से जो व्यक्ति,
नित्य करता रहता सत्कर्म.
वही है योगी की प्रतिमूर्ति,
उसी में बसा वास्तविक धर्म.''
४७
''हलाहल पीने के भी बाद,
बना रहता है जिसका स्वत्व.
महायोगी पशुपति के तुल्य,
प्राप्त करता है वही शिवत्व.''
४८
''कामना का आच्छादन भेद,
प्राप्त करता है नर,सत्त्व.
शीघ्र ही ताज माया निर्मोक,
जान लेता वह मेरा तत्त्व.''
४९
''चतुर्दश विद्याओं के बीच,
एक मेरा स्वरुप है व्याप्त.
सतत विद्यार्जन में संलग्न,
मनुज मुझको करता है प्राप्त.''
५०
''मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति,
शक्त जो होता है निष्काम.
सूर्य-मंडल को भी वह भेद,
देख लेता मत्पथ उद्दाम .''
५१
''याद रखना ये मेरे शब्द,
वत्स, हे मेरे प्रियतम शिष्य.
देख मचला जाता प्रत्यक्ष,
मोदमय तेरा कान्त भविष्य.''
५२
तभी वह मृदुला वत्सल मूर्ति,
हो गई सहसा अंतर्धान.
दानकर मुझे प्रेम-संलिप्त,
एक पावक समदृश शुचि ज्ञान.
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स्वप्न शीर्षक ५२ छंदों की इस काव्यमाला का यह अंतिम पुष्प था..
-- अरविंद पाण्डेय
रविवार, 24 अप्रैल 2011
पान करता था, रूप-मरंद .
खडा था मैं आनंद-विभोर,
चपल मन के सब पट थे बंद.
मुख-कमल का बस, मैं, बन, भृंग ,
पान करता था, रूप-मरंद .
३८
तभी, माँ,मधुराधर को खोल,
मृदु वचन बोलीं, मुझे निहार.
बह उठी थी मानों सर्वत्र,
सुधाकर से अमृत की धार--
३९
'' क्रांत-दर्शी कवि-दृष्टि समान,
नहीं है मेरा कोई अंत.
व्यापता है बस जग में नित्य,
एक मेरा ही रूप अनंत.
४०
''गगन के ये सुन्दर श्रृंगार,
सूर्य,तारक,एवं शशकांत.
प्राप्त कर, मेरी एक मरीचि,
सदा हंसते हैं, होकर कान्त.''
४१
''मधुर मेरे विहसन के संग,
मुदित हँसने लगती है सृष्टि.
तनिक, यदि', मुझको आता क्रोध,
प्रलय की होने लगती वृष्टि .''
४२
''देखकर मेरा दिव्य-स्वरुप,
भक्ति में परिणत होता ज्ञान.
सिद्ध योगी में भी तत्काल,
सृष्ट होता मेरा संधान .''
४३
''बुद्धि-अनुशासित-मानस बीच,
सतत, मैं करती मोहक लास्य.
क्रोध-विरहित-मानव ही मात्र,
देख सकता है मेरा हास्य.''
४४
''काम-आसक्त मनुज को शीघ्र,
''काम-आसक्त मनुज को शीघ्र,
नष्ट करता है उसका क्रोध.
काम से मानव का राहित्य,
दान करता है उसे सुबोध .''
क्रमशः
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
स्नेह-रस-पूर्ण सिन्धु से नेत्र..
''तभी,सस्मित हो, मेरी ओर, मुझे, देखा माँ ने सस्नेह.''' ============ |
स्वप्न :पृष्ठ ७
=======
३१
नासिका पर शोभित छवि-धाम.
एक लोहित मणि की नव-कील.
राग-रंजित संध्या के संग,
रमण करता ज्यों सूर्य सलील.
३२
स्नेह-रस-पूर्ण सिन्धु से नेत्र,
फेकते थे अनुराग-तरंग.
निरंतर, मातृ-विरह से शुष्क,
भीगते थे मेरे सब अंग.
३३.
विश्व में विस्तृत सब सौन्दर्य,
हो गया था मानों साकार.
गात के रोम रोम से नित्य,
बह रही थी करुना की धार.
३४
सौम्य करता था मुख का क्षेत्र,
मूर्त होकर चिन्मय वेदान्त.
त्याग देते योगी भी योग,
देख पाते यदि वह मुख, कान्त.
३५
सौम्य करता था मुख का क्षेत्र,
मूर्त होकर चिन्मय वेदान्त.
त्याग देते योगी भी योग,
देख पाते यदि वह मुख, कान्त.
३५
शांत देवी की स्नेहिल दृष्टि,
घूम जाती थी जब,जिस और.
बिखरता था प्रसाद सर्वत्र ,
सृष्टि में हो जाती थी भोर.
३६
तभी,सस्मित हो, मेरी ओर,
मुझे, देखा माँ ने सस्नेह.
एक स्वर्गीय शक्ति से पूर्ण,
हो गई मेरी सारी देह.
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
सोमवार, 18 अप्रैल 2011
एक मंजुल नारी की मूर्ति,
भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी
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स्वप्न :पृष्ठ ६
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२६
तभी गैरिक प्रकाश का पुंज,
लगा घनता को होने प्राप्त.
एक मनमोहक मधुर सुगंध,
लगी अंतर में होने व्याप्त.
२७
एक मंजुल नारी की मूर्ति,
दिखाई पडी मुझे तत्काल.
चरण-चुम्बन से परम प्रसन्न,
विहँसता था गुलाब का जाल.
२८
गात पर था पुष्कल परिधान,
आ रहा था अरुणाभ प्रकाश.
उषा-कर में मानो रवि,बंद,
कर रहा था आनंदित हास.
२९
सुलाक्षा-ललित चरण-नख-वृन्द,
कर रहे थे यह सुन्दर व्यंग-
रागमय होने के पश्चात ,
प्राप्त होता है उनका संग.
३०
कोकनद-कान्त अधर के बीच,
झांकती थी रदालि मुक्ताभ.
यथा, अनुराग-सरोवर मध्य,
खिले हों शेत कमल, अमिताभ.
क्रमशः
---अरविंद पाण्डेय
============
गैरिक = गेरुआ रंग का.
पुष्कल = अत्यंत श्रेष्ठ .सुन्दर.
उषा-कर = उषा की किरणे
सुलाक्षा-ललित नख-वृन्द = नाखून में लगाने वाले रंग से सुन्दर बनाए गए नाखून .
कोकनद = लाल कमल
रदालि = दांतों की पंक्ति .
मुक्ताभ = मोती जैसी आभा वाली.
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
पुष्प से कंटक का संयोग..
पुष्प से कंटक का संयोग =========== |
स्वप्न :पृष्ठ ५
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२१
मनुज का सत्त्व-संवलित कर्म
सतत करता है आत्म-विकास.
तथा गंतव्य दिशा की और
दिखाता है वह अमल प्रकाश.
२२
प्रभा से पा विकास का लाभ,
कर्म होता है परम अमंद.
कर्म-पूर्णत्व-प्राप्ति पश्चात,
मनुज पाता है परमानंद.
२३
पुष्प से कंटक का संयोग,
कर रहा था यह वाणी सिद्ध-
'''मनुज का जीवन यह सुकुमार,
विपुल विघ्नों से है आविद्ध.''
२४
''सभी कंटक का जब कर नाश,
वीर सा करता है सत्कर्म,
प्रकृति करती है तब साहाय्य,
साथ देता है उसका धर्म.''
२५
वहीं पर एक वृक्ष के पास,
रुदन करता था अफल अनंग.
सत्त्व-गुण मध्य गमन से आज,
हो गया था उसका मद-भंग.
--- अरविंद पाण्डेय
क्रमशः
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शब्दार्थ
अनंग=कामदेव.
आविद्ध=घिरा हुआ.
अमंद= बाधा से मुक्त
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
पुष्प-परिमल-सुरभित पवमान
स्वप्न :पृष्ठ ४
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१६
पुष्प-परिमल-सुरभित पवमान ,
ह्रदय में करता था मद-सृष्टि.
अहा , वह मादकता भी आज,
सत्त्व-गुण की करती थी वृष्टि.
१७
एक शुचि-सलिला सरिता शांत,
बही जाती थी वहां सवेग.
हमें देती थी मानो सीख-
कभी मत रोको जीवन-वेग.
१८
फलाशा ईश्वर पर ही छोड़,
सदा हो स्वस्य-कृत्य में लीन.
प्रकृति फल देगी तुम्हें अवश्य,
वह सदा है अन्याय विहीन.
१९
एक धवलाम्बु-सरोवर मध्य,
खिले थे रक्त-सरोज सहस्र.
भक्त के उर में ज्यों प्रभु हेतु,
बह रहा हो अनुराग अजस्र .
२०
पूर्ण- विकसित गुलाब के पुष्प,
प्रकट करते थे यही रहस्य.
''मनुज के जीवन का आनंद ,
नहीं रखता है केवल कश्य.
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
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कश्य = शराब.
धवलाम्बु-सरोवर = स्वच्छ जल वाला तालाब.
अजस्र = निरन्तर
पुष्प-परिमल = फूलों की सुगंध.
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