''तभी,सस्मित हो, मेरी ओर, मुझे, देखा माँ ने सस्नेह.''' ============ |
स्वप्न :पृष्ठ ७
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३१
नासिका पर शोभित छवि-धाम.
एक लोहित मणि की नव-कील.
राग-रंजित संध्या के संग,
रमण करता ज्यों सूर्य सलील.
३२
स्नेह-रस-पूर्ण सिन्धु से नेत्र,
फेकते थे अनुराग-तरंग.
निरंतर, मातृ-विरह से शुष्क,
भीगते थे मेरे सब अंग.
३३.
विश्व में विस्तृत सब सौन्दर्य,
हो गया था मानों साकार.
गात के रोम रोम से नित्य,
बह रही थी करुना की धार.
३४
सौम्य करता था मुख का क्षेत्र,
मूर्त होकर चिन्मय वेदान्त.
त्याग देते योगी भी योग,
देख पाते यदि वह मुख, कान्त.
३५
सौम्य करता था मुख का क्षेत्र,
मूर्त होकर चिन्मय वेदान्त.
त्याग देते योगी भी योग,
देख पाते यदि वह मुख, कान्त.
३५
शांत देवी की स्नेहिल दृष्टि,
घूम जाती थी जब,जिस और.
बिखरता था प्रसाद सर्वत्र ,
सृष्टि में हो जाती थी भोर.
३६
तभी,सस्मित हो, मेरी ओर,
मुझे, देखा माँ ने सस्नेह.
एक स्वर्गीय शक्ति से पूर्ण,
हो गई मेरी सारी देह.
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
पढ़कर साहित्यिक ऊर्जा मिल जाती है।
जवाब देंहटाएंकविता काफी प्रेरक लगी। आभार।
जवाब देंहटाएंपरम आदरणीय सर, अजब प्रेम की गज़ब स्नेह से भरी हुई कविता हैं ....सादर अभिवादन के साथ !!!!!
जवाब देंहटाएंशांत देवी की स्नेहिल दृष्टि,
जवाब देंहटाएंघूम जाती थी जब,जिस और.
बिखरता था प्रसाद सर्वत्र ,
सृष्टि में हो जाती थी भोर.
अद्भुत ममतामयी रचना .....!!
बहुत ही सुंदर .
कविता में वर्णित प्रेम ,स्नेह से मन भी सरोबार हो गया ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
सुंदर भाव लिए रचना |बधाई |
जवाब देंहटाएंआशा