राजनीतिक और आध्यात्मिक स्फोटवाद के द्रष्टा :महर्षि पतंजलि
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( बिहार शताब्दी वर्ष के बौद्धिक-समारोह हेतु बिहार राज्य अभिलेखागार,पटना द्वारा प्रकाशित '' बिहार गौरव '' नामक संग्रह-ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ लिखित लेख )
जीवन और जगत के प्रति भारतीय-दृष्टि , विश्व की अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक और शान्ति-परक रही है .. हमने समाज को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले व्यक्तित्वों के जीवन , जन्म एवं जैव-परम्परा के बारे तथ्य सुरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं समझी क्योंकि इसी से मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद के प्रचार की संभावना पैदा होती है.प्राचीन भारत में गायों की सुरक्षा और विश्राम के लिए विभिन्न ऋषियों ऩे आश्रय स्थल बनाए थे जिन्हें गोत्र कहा जाता था..गां त्रायते इति गोत्रं .. अर्थात जहाँ गायों को त्राण मिलता हो उसे गोत्र कहा गया.सभी अवगत हैं कि भारद्वाज,शांडिल्य , वसिष्ठ आदि ऋषियों के नाम से गोत्र आज भी प्रवर्तित-प्रचलित हैं.और, गोत्र-स्थापना-काल से ही , एक गोत्र की कन्या या पुरुष का विवाह, उसी गोत्र के पुरुष या कन्या से नहीं करने का नियम था.यह नियम, बिना इसकी ऐतिहासिक-वैज्ञानिकता पर पुनर्विचार किये, आज भी उसी रूप में प्रवर्तित है.अर्थात गोत्र-स्थापक ऋषियों की जैव या सामाजिक परम्परा सुरक्षित बने रहने के कारण आज गोत्र के नाम पर लोगो के बीच एक अवैज्ञानिक भेद बना हुआ है.
व्यक्ति की अभिव्यक्ति मूलतः उसके विचारों और उसकी दार्शनिक-दृष्टि के माध्यम से होती है.. किसने, कहाँ जन्म लिया यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना यह महत्त्वपूर्ण है कि जन्म के बाद के उसके अवदान क्या रहे.. उपनिषद में निर्दिष्ट -
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः
आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मननेन निदिध्यासनेन इदं सर्वं विज्ञातं भवति ..
यह आत्मदर्शनवाद ही भारतीय संस्कृति का वह मूल प्रेरक तत्त्व है जिसके प्रभाव में हमारी सारी सभ्यता निर्बाध और अव्यवहितरूप से एकस्वर, एकगति से प्रवाहित होती रही है.. हमने शुद्ध मानव-हितकारी विचारों के विशाल सागर के सदृश , विश्व की समस्त सभ्यताओं की तृषित-भूमि को तृप्त करने हेतु, ऐसे बादलों को जल-परिपूर्ण किया जो गगन-संतरण करते हुए चिंतन-जल की वर्षा करते रहे और शाश्वत चिंतन-जल के अभाव में तृषित धरा, धन्य होती रही..
बीज के ज्ञान से उस बीज से निष्पन्न विशाल वृक्ष का पूर्ण ज्ञान हो जाता है..क्योकि बीज का बीजत्व ही वृक्ष के रूप में प्रकट करता है स्वयं को .. इसीप्रकार , किसी व्यक्ति की आत्मा के प्रकाश के बोध से उस प्रकाश को विकीर्ण करने वाले व्यक्ति का भी सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है.. अन्य भारतीय ऋषियों, महाकवियों आदि की तरह महासेनापति सम्राट पुष्यमित्र शुंग के महामात्य महर्षि पतंजलि के जीवन के वस्तुपरक तथ्य हमें उसी सुस्पष्ट रूप में उपलब्ध नहीं हैं जिस सुस्पष्ट रूप में उनकी दार्शनिक-दृष्टि उपलब्ध है ..और, इस लेख में , इसीलिये, हम , महर्षि पतंजलि के व्यक्तित्व के इस सर्वाधिक अमहत्वपूर्ण पक्ष पर विशेष चर्चा नहीं करेगे..
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ-त्रय -- १ . चरक-संहिता २. महाभाष्य ३. योगसूत्र के अध्ययन से कोई भी व्यक्ति यह मानने के लिए विवश होगा कि अब तक के सम्पूर्ण मानव इतिहास में श्री कृष्ण के बाद पतंजलि सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए हैं.. यह कहना समीचीन है , प्रशंसित-प्राचीन नहीं कि चरक-संहिता आज तक के चिकित्साशास्त्र के समस्त शोधों को स्वयं में समाहित किये हुए है.. आगे भी जो शोध संभावित हैं उनके बीज और विस्तार भी उसमें प्राप्त हैं..
समाज की सुव्यस्थित प्रगति के लिए व्यक्ति की देह, मन और वाणी का शुद्धीकरण आवश्यक होता है..जिन महापुरुषों में लोकसंग्रह के महाभाव के कारण लोक-कल्याण की इच्छा हुई उन्होंने उपर्युक्त तीन पक्षों पर अपना चिंतन और दर्शन, समाज के समक्ष प्रस्तुत किया..
इन सभी महापुरुषों में महर्षि पतंजलि श्रेष्ठतम एवं अतिशय लोकोत्तर हैं क्योकि उनके द्वारा देह-चित्त शुद्धि के लिए चरक संहिता, मानस-शुद्धि के लिए योगसूत्र एवं वाक्-शुद्धि हेतु महाभाष्य का प्रणयन किया गया..महाभाष्य, यद्यपि महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी की व्याख्या है किन्तु यह एक आत्मपूर्ण दर्शन-ग्रन्थ भी है ..
भारतीय साम्राज्य के लोक-स्वास्थ्य के लक्ष्य से महर्षि द्वारा प्रणीत चरक संहिता में एक विशिष्ट ऐतिहासिक काल-खंड का वर्णन किया गया है जिसमें उस संहिता के प्रणयन की आवश्यकता और औचित्य की परिस्थितियां प्रस्तुत की गई है.. इतिहास के अनुसार, सत्य युग में प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के समस्त नियमों का पालन करते हुए, सर्वभूत-हित के सार्वभौम सिद्धांत के अनुसार जीवन यापन करता था..किसी भी व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति अथवा चराचर जगत के किसी भी अस्तित्व से कोई संघर्ष नहीं होता था..प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक अन्य व्यक्ति के साथ समस्वर था..
'' न राज्यं न राजासीत, न दण्डो न च दाण्डिकः
धर्मेणैव प्रजाः सर्वाः रक्षन्ति स्म परस्परं .''
अर्थात , सत्ययुग में न राज्य था, न राजा था, न दंड था न दंड देने वाला था क्योकि सभी व्यक्ति सार्वभौम धर्म के अनुसार जीवन यापन करते हुए अन्य सभी सह-जीवियों के अधिकारों की रक्षा उसी रीति से करते थे मानों वे स्वयं के अधिकारों की रक्षा कर रहे हों..इसलिए, शत्रुता-विहीन समाज का अस्तित्व था सत्ययुग में.. किन्तु, जब सत्ययुग का अंतिम काल-खंड निकट आया तब लोगों में धर्म के उल्लंघन की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई और लोगो का शरीर रुग्ण होने लगा..यह काल , सत्ययुग के द्वापर में संक्रमित होने का काल था..
इस स्थिति को देख कर , उस समय के लोक-सेवक , जिन्हें ब्राह्मण कहा जाता था, अतिशय चिंतन-शील हुए और हिमालय की तराई में इस गंभीर मानवीय समस्या के निराकरण के लिए एक महासम्मेलन आयोजित किया गया जिसमे उस समय के समस्त मन्त्र-द्रष्टा महर्षि गण , यथा वसिष्ठ,विश्वामित्र,गालव,कण्व, भारद्वाज आदि उपस्थित हुए और उन्होंने मनुष्य-शरीर को नीरोग रखने हेतु एक संहिता के निर्माण का संकल्प लिया .. उस संकल्प को क्रियान्वित करने का दायित्व महर्षि पतंजलि को दिया गया जिन्होंने चरक-संहिता नाम से विश्व का प्रथम चिकित्साशास्त्रीय ग्रन्थ प्रस्तुत किया..इसमें जैव-स्वास्थ्य के समस्त नियमों को संहिता-बद्ध किया..
चरक संहिता विश्व का प्रथम चिकित्साशास्त्रीय ग्रन्थ है जो मनुष्य के समग्र-स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के समस्त उपायों का वर्णन करता है..इसमें देह के साथ साथ मन और चित्त को भी स्वस्थ रखने के उपायों का वर्णन भी है .. आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र एवं सिगमंड फ्रायड ऩे भी बहुत बाद में, पतंजलि के सिद्धांत को अग्रसर करते हुए , यह स्वीकार किया कि देह में उत्पन्न होनेवाले अधिकांश रोग पहले मन में उत्पन्न होते हैं फिर वहाँ से उनका प्रतिबिम्ब देह में उतरता है जो रोग के रूप में दिखाई देने लगता है.. रोगों की मनोकायिकता के सिद्धांत के आलोक में, चरक-संहिता समग्र-चिकित्सा-प्रणाली का प्रवर्तन करती है..
चरकसंहिता के पुरुषविचयशारीरं , पंचम अध्याय में महर्षि ऩे आध्यात्मिक-शारीर के विज्ञाता महर्षि अग्निवेश, आत्रेय , पुनर्वसु आदि का प्रमाण के रूप में सन्दर्भ दिया है..अर्थात इस सन्दर्भ से भारत की वह एकात्मवादी चिंतन पद्धति भी व्यक्त होती है जिसमे कोई भी महर्षि यह दावा नहीं करते कि कोई विचार उनका निजी आविष्कार है अपितु प्रत्येक महर्षि उस शाश्वत , सार्वभौम , सर्व-जन-कल्याणकारी,प्राचीन होते हुए भी चिर-नवीन ब्रह्मवादी परम्परा के एक प्रतिनिधि के रूप में ही स्वयं को प्रस्तुत करते हैं..यहाँ उल्लेखनीय प्रतीत होता है कि अर्वाचीन ऋषियों में स्वामी विवेकानंद एकमात्र ऋषि हैं जिन्होंने शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन के आयोजकों यह कहा था कि मैं भारत के सभी प्राचीन ऋषियों की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने उन ऋषियों द्वारा प्रवर्तित ईश्वरीय दर्शन - एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति के दर्शन का अनुसरण करते हुए इस विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया है..
चरक संहिता में , प्रकृति में प्राप्त तत्त्वों के, मानव शरीर में व्यक्त स्वरूपों का अद्भुत निदर्शन किया गया है.. एक उदाहरण समीचीन और उपादेय होगा -- यथा खलु ब्राह्मी विभूतिः लोके तथा पुरुषेप्यान्तरात्मिकी विभूतिः ..यस्त्विन्द्रो लोके स पुरुषे अहंकारः .. तमो मोहः ज्योतिः ज्ञानम् .. यथा कृतयुगमेव बाल्यं , यथा त्रेता तथा यौवनं , यथा द्वापरं तथा स्थाविर्यं यथा कलिरेवमातुर्यम यथा युगान्तः तथा मरणं .. प्रकृति में प्राप्त तम पुरुष में मोह के रूप में व्यक्त होता ऐ तथा प्रकृति में प्राप्त प्रकाश , पुरुष में ज्ञान के रूप में व्यक्त होता है.. कलियुग को समाज की वृद्धावस्था के प्रतीक के रूप में प्रस्तुति शरीरविज्ञान की दृष्टि से पूर्ण सार्थक है अर्थात जिस प्रकार पुरुष की वृद्धावस्था में शरीर के अंग शिशील होने लगते हैं..इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है ..स्मृतिलोप आदि मस्तिष्क की अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं उसी प्रकार कलियुग में विराट पुरुष के अंगो में शैथिल्य का संचार होता है... यहाँ यह ध्यातव्य है कि चरकसंहिता में जहान भी पुरुष शब्द का प्रयोग है व - स्त्री पुरुष दोनों के लिए है .. दिग्भ्रमित स्त्रीवादी इसे पतंजलि के पुरुष-प्रभुत्ववाद के रूप में देख कर द्रष्टि-भ्रम से ग्रस्त हो सकते हैं - इसलिए यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है..
संहिता के निदानस्थान के उन्माद-निदानाध्याय में उन्माद के कारण सहित स्वरूपों की जो प्रस्तुति है वह आज के उन्नत मानस रोग विज्ञान के लिए भी मार्ग दर्शक है.. आज के मनोरोग वैज्ञानिक, रोगों के लक्षणों और उनके समाधान की आपाततः क्षतिकारक पद्धति प्रस्तुत करते हैं किन्तु महर्षि पतंजलि ऩे उन्माद का वातोन्माद, पित्तोन्माद , श्लेश्मोन्माद और त्रिदोषोन्माद के रूप में वर्गीकरण करते हुए जो कारण-विश्लेषण और समाधान दिया है वह अधुनातन मनो चिकित्सकों के लिए लाभदायक और अनुकरणीय है..
वृहत्तर भारतीय साम्राज्य की लोक-शिक्षा के लक्ष्य से , पाणिनि की अष्टाध्यायी की व्याख्या करने वाला महाभाष्य, महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत अध्यात्मिक स्फोटवाद की दृष्टि देने वाला विश्व का प्रथम व्यवस्थित ग्रन्थ है...महाभाष्य , पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या तो करता ही है, उन सूत्रों में अन्तर्निहित राजनीति एवं देश , वहाँ के मौसम , संस्कृति और मानव-विज्ञान के आधार पर परिवर्तनशील भाषा , एक ही शब्द के परिवर्तनीय उच्चारण के साथ साथ अज्ञेय दार्शनिक तत्त्वों को भी स्पष्ट करता है....एक ही शब्द देवदत्त कैसे देश-भेद से देवदिन्न हो जाता है ..या नरेन्द्र कैसे बंगाल में नरेन् , पंजाब में नरिंदर हो जाता है -- इसकी समाज-राजनीतिक विवेचना की महाभाष्य ऩे..महाभाष्य में प्रस्तुत तथ्यों से ही यह ही इतिहासकारों ऩे यह निर्णीत किया कि जितनी व्यापक भौगोलिक वस्तु-स्थिति की प्रस्तुति महाभाष्य में की गई है उतनी व्यापकता के साथ लिखने वाला व्यक्ति राजनीति का भी महापंडित रहा होगा..
यहीं से इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि हुई कि महासेनापति पुष्यमित्र शुंग के महामात्य महर्षि पतंजलि ही हो सकते थे क्योकि जिस '' राजीतिक स्फोटवाद '' का प्रयोग करते हुए पुष्यमित्र शुंग ऩे महान मौर्य साम्राज्य के सम्राट वृहद्रथ का शिरच्छेद करते हुए वृहद्रथ के ही पूर्वज सम्राट चन्द्रगुप्त के राष्ट्रवादी शासन तंत्र को पुनर्स्थापित किया उसका अनुप्रेरण महर्षि पतंजलि जैसा आध्यात्मिक स्फोटवादी विराट और भगवत्ता के अंश से दीपित व्यक्तित्व ही कर सकता था..
महाभाष्य में मात्र एक बार -- एक व्याहारिक उदारण के रूप में - इह पुष्यमित्रं याजयामः - वाक्य का प्रयोग करते हुए महर्षि पतंजलि ऩे सम्राट को भी गौरवान्वित करने वाले अपने गुरु-सम्बन्ध का व्यपदेश किया .. सम्प्रति-प्राप्त अन्य किसी भी सन्दर्भ-ग्रन्थ में महर्षि और महासेनापति के संबंधों का उल्लेख दृश्य नहीं है.. संभव है ऐसे सन्दर्भ-ग्रन्थ रहे हों और नालंदा और विक्रमशिला में बुभुक्षित अग्नि-देव ऩे उन्हें उदरस्थ कर लिया हो..
पुष्यमित्र का राष्ट्रवादी-स्फोट या इस शब्द को और अधिक स्पष्ट करने लिए विस्फोट भी कह लें , एक सुचिंचित राजीतिक-दर्शन और जन-मनोविज्ञान पर आधारित था .. पुष्यमित्र ऩे महर्षि पतंजलि के आदेशानुसार तीन अश्वमेध यग्य किये -- अतएव उन्हें त्रिरश्वमेधयाजी कहा गया, किन्तु, स्वयं को उन्होंने कभी सम्राट विशेषण-युक्त नहीं कराया.. इस निर्णय में वास्तव में उनकी महामात्य चाणक्य के राजनीतिक दर्शन के प्रति गहन श्रद्धा , स्वयं को सम्राट चन्द्रगुप्त का वास्तविक उत्तराधिकारी मानते हुए कर्तव्य-पालन की अभीप्सा ही मुख्य कारण थी तथा , यदि, क्षुद्र राजनीतिक दृष्टि से भी देखें तो मौर्य-वंश के प्रति समर्पित राज्य-सेवकों और जन सामान्य के विद्रोह के बीज को समाप्त कर देने का एक व्यावहारिक लक्ष्य भी माना जा सकता है.. विश्व-इतिहास की सभी राज्य-कान्तियों के अध्ययन से सुस्पष्ट होगा कि क्रान्ति करने वाले प्रत्येक नए शासक ऩे पराजित शासक की पूरी परम्परा को प्रतिस्थापित कर दिया और पराजित व्यक्ति के किसी पूर्वज के उत्तराधिकारी के रूप में कार्य नहीं किया किन्तु पुष्यमित्र की क्रांति से स्वरुप और उसके अनुवर्ती इतिहास से प्रमाणित है कि उन्होंने वैयक्तिक भौतिक लिप्सा या यश के लक्ष्य से क्रान्ति नहीं की थी अन्यथा अखंड भारत के चक्रवर्ती सम्राट के रूप में नामांकित होने की यश-लिप्सा को कौन त्याग सकता है.. यह शेषावतार महर्षि पतंजलि के शिष्य और निदेशित-सम्राट पुष्यमित्र शुंग ही थे जिन्होंने स्थितप्रग्य के रूप में '' सम्राट '' के परम मूल्यवान विशेषण को, अनायास ही, स्पर्श भी नहीं किया...
यह कहा जाता है कि पतंजलि-निदेशित पुष्यमित्र शुंग ऩे बौद्ध-वर्ग के विरुद्ध एक जन-अभियान संचालित किया जिसमें बौद्ध होने मात्र के आधार प्रताड़ित करने की बात कुछ कथित इतिहास-लेखकों द्वारा कही जाती है वह इस पारंपरिक प्रवाद-अफवाह के आधार पर बिना शोध किये या साक्ष्य प्राप्त किये बिना ही कही गई कि बौद्ध जातकों में पुष्यमित्र की एक सार्वजनिक घोषणा का उल्लेख है जिसमें यह कहा गया था कि - '' जो मुझे श्रमण का एक सर काट कर देगा उसे मैं सौ दीनार दूंगा.. यो मे श्रमणशिरो दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि .,किन्तु पश्चाद्वर्ती शोध से यह साबित हो चुका है कि किसी भी बौद्ध जातक में यह वाक्य प्रामाणिकतया प्राप्त नहीं था.. यह प्रवाद कथित वामपंथी इतिहास से अनभिग्य लेखकों ऩे प्रचारित किया..इन लोगो ऩे इन सारे प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्यों पर विचार ज्ञानपूर्वक नहीं किया कि पुष्यमित्र शुंग पाटलिपुत्र में ही निवास करते थे.वह उनके विशाल साम्राज्य की राजधानी था और नालंदा तथा तक्षशिला विश्व विद्यालय पाटलिपुत्र के सर्वाधिक निकट एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बौद्ध-केंद्र थे किन्तु पुष्यमित्र के शासन-काल में इन विश्व विद्यालयों की महत्ता, प्रगतिशीलता और श्रेष्ठता अपने चरम उत्कर्ष पर थी.. इन दोनों विश्वविद्यालयों सरलता से नष्ट किया जा सकता था यदि शुंग-शासन सम्पूर्ण बौद्ध धर्म के विरुद्ध होता.किन्तु ऐसा था नहीं.. महासेनापति ऩे स्वयं को निरपेक्षभाव से पूर्ववर्ती राष्ट्रवादी सम्राट चन्द्रगुप्त के परमोअरा का वाहक ही समझा .. शुंग-युग ही वह युग है जो आगामी एक हज़ार वर्ष तक अपराजेय रूप से अव्याहत गति से चलने वाले भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग का सशक्त प्रारम्भिक चरण था जिसमें महामात्य चाणक्य के अर्थशास्त्र के सभी सिद्धांतों को क्रियान्वित करते हुए, गंभीर अनुशासन के साथ , अखंड वृहत्तर भारतीय साम्राज्य की अभिकल्पना, अभिरूपण , अभिव्यक्ति एवं अभिसुरक्षा के समग्र उपाय सुनिश्चित किये गए और यह सब कुछ एक सर्वत्यागी सन्यासी पतंजलि के मार्ग दर्शन में हुआ.
भारतीय साम्राज्य में लोक-मुक्ति के दिव्य लक्ष्य से महर्षि ऩे योग सूत्र की प्रस्तुति की जिसका प्रथम सूत्र है -- अथ योगानुशासनं.ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र है -- अथातो ब्रह्मजिज्ञासा.. योगसूत्र के प्रथम सूत्र से यह द्योतित संकेतित है कि महर्षि पतंजलि यद्यपि जागृत संत एवं मंत्रद्रष्टा ऋषि थे किन्तु उनका चिंतन , उस चिंतन की अभिव्यक्ति में शासन-सूत्र धार का का रंग और उसकी सुगंध सपष्ट व्यक्त होती थी..इसीलिये महर्षि के योगसूत्र का प्रारभ अनुशासन शब्द से होता है..
महर्षि ने , पुष्यमित्र को माध्यम बनाकर, जिस प्रकार, नागरिक-अधिकारों की सम्पूर्ण सुरक्षा के लक्ष्य से, एक सशक्त, सर्वतो-सुरक्षित एवं अनुशासित समाज को उसके परम वैभव की ओर अग्रसर करने के लिए एक राजनीतिक शासन प्रणाली को प्रवर्तित किया उसी प्रकार , व्यक्ति के चित्त को सम्पूर्ण रूप से अनुशासित करते हुए , उसकी परम मुक्ति हेतु , योग-साधना प्रणाली का प्रवर्तन भी किया ..
चरकसंहिता, महाभाष्य और योगसूत्र के अनुशीलन से उसमें प्राप्त उत्प्रेक्षाएं, उपमाएं, प्रतीक-प्रयोग इन तीनों महाग्रंथों के एक ही महर्षि द्वारा प्रणीत होने की प्रामाणिकता पुष्ट करते हैं..वास्तव में . योगसूत्र का द्वितीय सूत्र योग की परिभाषा है -- योगश्चित्तवृत्ति निरोधः एवं तृतीय -- तदा द्रष्टु : स्वरूपे अवस्थानं अर्थात चित्तवृत्तियों के निरुद्ध होने से द्रष्टा की स्वरुप-स्थिति हो जाती है..बिल्कुल यही अर्थ चरक संहिता के स्वस्थ शब्द का भी है..स्वस्थ अर्थात स्व में, स्वरुप में , आत्मा में स्थित .. यह आत्मा की ही आत्मा में अवस्थिति, बाधित होती है रोगों से. इसलिए , दोनों शास्त्रों में महर्षि ऩे बाधक-तत्त्वों को क्लेश का नाम दिया.
क्लेश को वर्गीकृत करते हुए महर्षि ऩे सूत्र दिया-अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ..
अविद्या , अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश --ये पांच क्लेश बताये गए . यही पाचों क्लेश आज भी नवीन चिकित्सा शास्त्र के अनुसार शरीर और मन के समस्त रोगों के कारण हैं..राग और द्वेष से ही तनाव उत्पन्न होता है जिससे हृदय-गति.रक्तसंचार आदि की प्राकृतिक प्रणाली अपने स्वरुप से च्युत हो जाती है जिससे शरीर के सारे घातक रोगों का जन्म होता है..यही स्वरुपच्युति ही , देह , मन , और आत्मा तीनों के लिए तीनो संहिताओं में व्याख्यायित की गई...
अविद्या की जो परिभाषा महर्षि ऩे दी उसके आगे का चिंतन मानव-मस्तिष्क के लिए संभव नहीं-- अनित्याशचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या अर्थात अनित्य , अपवित्र , दुःखकारी और अनात्म वस्तुओं में नित्य होने, पवित्र होने , सुखकारी होने तथा आत्मस्वरूप होने का भान ही अविद्या है.. यह सूत्र आज की सारी मनो-समस्याओं एवं तदनुसारी दैहिक-समस्याओं की सकारण व्याख्या करता है..आज भी भौतिक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और चिकित्सावैज्ञानिक यह मान रहे , यह कह रहे कि प्रत्येक ऐसी वस्तु जो सुखकारी प्रतीत हो अंततः सुख या स्वास्थ्य दे ही - यह आवश्यक नहीं.आज की गत्वर जीवन पद्धति के प्रति सतर्क करते हुए स्वास्थ्य संबंधी अनेक मार्ग-दर्शन चिकित्साशास्त्रियों द्वारा दिए जा रहे जिनमें आपाततः , स्वादिष्ट , सुखकारी प्रतीत होने वाले फास्ट फ़ूड , तीक्ष्ण -ध्वनि वाले संगीत, एवं इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के द्वारा लिए जाने अन्य विषयों के स्वादों का सकारण वर्जन किया जाता है..यह वास्तव में , अविद्याग्रस्त व्यवहार एवं जीवन-यापन का ही निवारण है..
राग की परिभाषा महर्षि ऩे दी है - सुखानुशयी रागः ..आज Addiction अर्थात लत विवश आदतों के बारे में आधुनिक मनोविज्ञान ऩे जो बाते कही हैं वे इस सूत्र की ही व्याख्या या भाष्य हैं.. जिस कार्य में आपाततः सुख की अनुभूति होती है उसे मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीव बार बार करना चाहता है..और यहीं से उस कार्य-व्यापार के प्रति राग या उसकी लत या विवश-आदत जन्म लेती है.. महर्षि ऩे इसे भी क्लेश कहा अर्थात यह एक मनोरोग है..
यद्यपि इस लेख में यह कहना कुछ पाठकों को अस्वाभाविक प्रतीत हो सकता है किन्तु उपलब्ध वैयक्तिक साक्ष्यों तथा सामान्य साक्ष्यों से मेरा यह मानना है कि कि महर्षि पतंजलि भगवान बुद्ध के पूर्ववर्ती थे एवं क्योकि वे दीर्घजीवी थे और हैं , इसलिए ,पुष्यमित्र के काल में भी वे वर्तमान थे और उन्होंने लोक-संग्रह के लिए, वृहद्रथ की राष्ट्र-घातक नीतियों के कारण, राजनीतिक स्फोट वाद के माध्यम से उन्हें सत्ताच्युत कराया..
इस प्रकार , भारतीय साम्राज्य के महामात्य के रूप में महर्षि पतंजलि ऩे लोक-स्वास्थ्य, लोक-शिक्षा एवं लोक-मुक्ति के तीन आयामों पर जो व्यावहारिक चिंतन प्रस्तुत किया और जिस शत-प्रतिशत सफलता के साथ उसका क्रियान्वयन पुष्यमित्र शुंग के द्वारा कराया वह विश्व इतिहास में अन्यतम है और अन्यत्र अनुपलब्ध है.
-- अरविंद पाण्डेय