बुधवार, 6 अप्रैल 2011

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़,मधु यावत् पिवाम्यहं.


गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ , मधु यावत् पिवाम्यहं.
मया त्वयि हतेsत्रैव गर्जिश्यन्त्याशु  देवताः 

(श्री दुर्गासप्तशती में  जगन्माता का वचन )
====================
=============
जब ऋत का सुरभित स्वर्ण कमल खिलता है.
जब अजा और अनजा का ध्रुव मिलता है.
जब भेद, ज्ञान-अज्ञान बीच मिटता है.
तब महाकालिका का नर्तन दिखता है.


जब प्रभा पिघलकर, धरा सिक्त करती है.
जब धरा , वाष्प बन शून्य-गगन भरती है.
जब पुष्प-गन्ध, बादल बनकर झरती है.
तब कृष्णा , चिन्मय नृत्य मधुर करती हैं.

जब प्रकृति-पुरुषमय जगत शून्य होता है.
जब निरानन्द , आनन्द-रूप होता है.
जब , अविज्ञान , विज्ञान-तुल्य होता है.
तब. जगदम्बा का कमल-नयन खिलता है.

जब वेद-अवेद-भेद का भ्रम कट जाता 
जब महासिन्धु , बस एक विन्दु बन जाता 
जब एक विन्दु , बन महासिन्धु लहराता.
तब ब्रह्मचारिणी का प्रकाश-घन छाता.


--- अरविंद पाण्डेय 


मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.


द्वितीयं ब्रह्मचारिणी 
=============
करोतु श्रीविन्ध्यनिवासिनी शुभं 
===========

कनक-कमल-किसलय के पुट में,
माँ ! रख,  रवि का अरुणिम रंग.
ह्रदय-पटल पर मैं खीचूँगा ,
तेरा करुणामय मुख - अंग .

विश्व कहेगा तब विस्मय से ,
अहा प्राणमय यह नव-चित्र .
कब, कैसे तुमने खींचा है ,
कहो , कहो,  हे मेरे मित्र.

तब तो अपने विश्व-रूप का
कथन,  सत्य करने के हेतु.
निज-मंदिर से मेरे उर तक.
माँ , तुम रचित करोगी सेतु.

मेरा, चिर- सुषुप्ति से विजड़ित,
शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.
माँ, तेरे चिन्मय विलास का,
बन जाएगा शाश्वत सद्म.




  स्वर्णिम-स्वप्न-मयी कल्पना से सुगन्धित माँ की यह स्तुति मैंने १०/०६/१९८३ को जगन्माता को अर्पित की थी जो मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ '' में प्रकाशित है..आज नवरात्र महापर्व की द्वितीया को पुनः माँ के चरणों में समर्पित करता हूँ..

-- अरविंद पाण्डेय.

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.


प्रथम-दिवस नवरात्र का.

ॐ 

विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां विन्ध्यपर्वतवासिनीं.
योगिनीं योगजननीं  चंडिकां प्रणमाम्यहं .

==============
जब  कण  कण अपने  कारण  में  मिलता  है .
अस्तित्व,  काल का भी,  जिस  क्षण हिलता है.
जब खंड खंड हो , देश, शेष  हो  जाता .
तब, जगदम्बा का मुक्त केश लहराता.

जब सूर्य, शून्य बनकर सत्ता-च्युत होता.
जब महाप्रलय-जल, कृष्ण-चरण को धोता.
जब द्वैत, दृश्य-द्रष्टा का  मिट जाता है.
तब, माँ के मुख पर मधुर हास्य  छाता है.

जब घन-प्रकाश, तम में परिणत होता है.
जब तम भी अपनी सत्ता खो देता है.
जब महाविष्णु भी निद्रित हो जाते हैं.
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.

जब, सारी पृथ्वी,  जल में घुल जाती है.
जब , जल-सत्ता, पावक में मिल जाती है.
जब, पावक भी, पवमान स्वयं बनता है .
तब, महाप्रकृति का कमल-नयन खिलता है.

--  अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 3 अप्रैल 2011

..अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.



इस विश्व-कप का जश्न तब मनेगा मेरे घर.
अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.
अफ़ज़ल,कसाब हैं असल जांबाज़ बल्लेबाज़.
जो, कर सको, करो ज़रा इनको भी कुछ नासाज़ .

===============

एक ''मैच'' था हुआ कारगिल में, पहले कुछ साल.
गिरे पांच सौ ''विकेट'' हमारे, धरती पूरी लाल.
''मैच'' हुआ फिर ''फिक्स'',और दोनों दल थे खुशबख्त .
दिया बहत्तर घंटे तक वापस होने का वक्त.


अफ़ज़ल और कसाब उन्हीं के ऐसे ''बल्लेबाज़''.
''विकेट'',जिन्हें दो सौ तक का,लेने का अब भी नाज़.
मगर उन्हें '' बाहर '' करने के खतरे का जो मोल,
कैसे, कौन चुकाए, हैं खामोश सभी के बोल.


इसी तरह, अक्साईचिन का ''क्रिकेट मैच'' हम हारे.
बासठ में चीनी सेना के हाथों बने बेचारे.
सैन्य-कारखाने में बनना बंद हुआ हथियार .
युद्धाभ्यास छोड़, हमने था किया शांति-व्यापार.


पञ्चशील के भ्रम में, जब हम शान्ति सहित सोते थे.
उसी समय, उनके सैनिक , हथियारों को ढोते थे.
तभी, अचानक ''मैच'' हुआ घोषित चीनी सेना का .
 क्रीडा-दक्ष सजग हो खेला करता सदा शलाका.

हम तो  खुदमुख्तार और आज़ाद वतन कहलाते.
पर, अपनी ही सीमा पर, जब जब भी, हम हैं जाते.
पूछा करते हैं अधिकारी अपने दोस्त वतन के.  
''अरुणाचल में क्यों प्रधानमंत्री आये भारत के .''


यहाँ सभी हैं विकेट,क्रिकेट, बल्लेबाजी में अटके.
ताकतवर बनने का रास्ता छोड़, नौजवां भटके.
और,श्रेष्ठ रहनुमा यहाँ छल-छद्मों में मशगूल.
ताज,मुंबई,कन्दहार,संसद हमले को भूल.
==================

जिस मुल्क में गेंदों से  जीतने पे जश्न हो.
कंधार-कारगिल पे, पर, कोई न प्रश्न हो.
उस मुल्क की मासूमियत को देख, देख कर .
दहशत-पसंद दिल को भला, क्यूँ न तश्न हो.


- अरविंद पाण्डेय        

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

इसी के नूर में श्री कृष्ण ने गीता थी कही..



मिटेगी सल्तनत, फटेगा आसमां इक दिन .
ये  शम्स ,चाँद सितारे बुझे बुझे होंगें. 
अगर बचेगा तो ईमान , आखिरत के दिन.
अगर  बचा सके उसे, तो, बच सकोगे तुम.

इसी के नूर में  श्री कृष्ण ने गीता थी कही.
इसी की रोशनी में आयतें उतरीं थीं कभी.
कुरआन , बाइबिल भी बस इसी से रोशन है.
इसी दरिया से कभी वेद  की ऋचा थी बही 


- अरविंद पाण्डेय

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.




तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.

मृदु वसंत की शांत,सुशीतल पवन का मिले अभिनन्दन.
व्याकुलता-परिपूर्ण हृदय में अब हो ईश्वर का वंदन.
भेद, भीति ,भ्रम से विमुक्त हो सबका शिव-संकल्पित मन.
दिव्य-दीप्ति से दीपित देखे प्रतिजन, प्रतिपल ही प्रतिकण .

- अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 28 मार्च 2011

रहता ज़मीं पे, दास्ताँ, आस्मां की लिखता हूँ.



शायर हूँ मैं , गुज़रे बिना भी देख सकता हूँ.
रहता ज़मीं  पे, दास्ताँ, आस्मां की  लिखता हूँ.
चलते हैं सूरज ,चाँद भी मेरे इशारों पर.
तुमको  मगर इंसान का हमशक्ल दिखता हूँ.


- अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

इस खेल से हर खेल का खिलना है रुक गया.



वंदे मातरं !

इस खेल से हर खेल का खिलना है रुक गया.
एशियाड,ओलैम्पिक्स में ये सर है झुक गया .
जापान, कोरिया को जब मिलता है सौ खिताब.
दो-चार ले, किसी तरह बचता है अपना आब.



- अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 24 मार्च 2011

फंदे को कब चूमा था भगत ने , न उन्हें याद.



23 मार्च . 

जिस कौम की खातिर हुए शहीद, भगत सिंह.
उस कौम के बच्चे ही हैं तारीख से अनजान.
अभिषेक, शाहरुख का जनम दिन है जुबां पे .
फंदे को कब चूमा था भगत ने , न उन्हें याद.

शनिवार, 12 मार्च 2011

तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा ..



प्रकृति की विजिगीषा में आज,
है रमा नव-मानव का लक्ष्य .
मर्त्य-अमरत्व-भवन का एक,
 विलक्षण लगता है यह कक्ष .

प्रकृति का यह प्रदृश्य ब्रह्माण्ड.
कहाँ रखता है अपना अंत.
अल्प प्रश्नोत्तर - अज्ञ मनुष्य ,
प्रकृति-जय में है आशावंत !

उफनते सागर की उत्ताल 
तरंगों का यह भीषण खेल.
रोक सकता है क्या यह मूढ़ 
मनुज अपनी सब शक्ति उड़ेल.

सतत विपरीत क्रिया से त्रस्त
प्रकृति जब होती है अति-क्रुद्ध.
आज की प्रकृति-विजयिनी शक्ति 
भूल जाता है नर-उद्द्बुध.
=============

यह कविता मैंने २/७/१९७९ को लिखी थी..
जब मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी था ..
एवं यह मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ ''में प्रकाशित है तथा मुझे अत्यंत प्रिय भी है.
==============
आज जापान, मानवता की वैज्ञानिक-प्रज्ञा के  सर्वश्रेष्ठ शिखर के रूप में सार्वभौम स्वीकृति प्राप्त कर चुका है..किन्तु वही  जापान, पृथ्वी  के चित्त में पल रहे भीषण क्रोध , महासागर की शीतल तरंगो के संभावित तप्त कोप  का पूर्वानुमान नहीं कर पाया और क्रुद्ध धरती एवं कुपित महासागर के समक्ष उन नगरों और नगरवासियों को दया की भिक्षा माँगने का अवसर भी नहीं मिल पाया जो उस क्रोध के प्रत्यक्ष कारण नहीं थे.
यह परिणाम हमें दुःख के  महासागर में डुबोता ही है मगर डुबोते हुए भी हमें '' सार्वभौम समानुभूति ''  एवं '' सार्वभौम संवेदनशीलता ''   ( Empathy ) का उपदेश भी दे रहा है .. 
समानुभूति सिर्फ मनुष्य या अन्य जीवित प्राणियों से ही नहीं अपितु समस्त प्रकृति से भी ..
 प्रकृति के उन क्षुद्र अवयवों से भी   जिनकी हम  अपने कथित विकास की प्रक्रिया को पूरा करने में उपेक्षा करते रहे है..
प्रकृति को भी कष्ट होता है जब हम उससे दान न मांग कर बलपूर्वक कुछ लेना चाहते हैं..
जिस महासागर ने अपनी प्रकुपित तरंगों से जापान को आहत किया है उसी  महासागर ने देह धारणकर, श्री राम के समक्ष प्रकट होकर , अपने वक्ष पर सेतु - निर्माण की स्वीकृति दी थी..
हम भारत के लोग सम्पूर्ण प्रकृति को चेतन देखते रहें हैं..ये दृष्टि अगर लुप्त होगी तो इसी दृष्टि को पुनः प्राप्त करने के लिए मानवता को भीषण त्रासदी से गुज़रना ना होगा..
मनुष्य के प्रति मनुष्य का संवेदनहीन होकर व्यवहार करना , कर्ता के लिए  संभव है, देर से प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न करे परन्तु महाप्रकृति,अपने  विरूद्ध प्रकट संवेदनहीनता के परिणाम को विलंबित नहीं करेगी..
यह दुखद परिणाम, हमें इसी  संवेदनहीनता के कारण देखना पडा है जिससे बचने का  व्यपदेश उन तथागत बुद्ध ने किया था जिनकी अहिंसा की प्रबल तरंगों के सामने तथा जिनके विकसित कमल सदृश नेत्रों से निकलती हुई करुणा-सलिल-धारा में अभिषेक कर , खद्गोत्थित-हस्त अंगुलिमाल उनके चरणों पर गिर पडा था ..

नास्त्रादेमस ने कहा था जापान के बारे में कुछ .. 
उसका उल्लेख न करते हुए हम सभी परमात्मा से प्रार्थना करे उस सुन्दर, सुरभित, सुललित, सुपुष्पित , सुसलिल पृथ्वी की रक्षा के लिए जो अनंत श्री भगवान् के अवतार के समय उनके श्री चरणों के स्पर्श से  धन्य हुआ करती है ..
===================

प्रार्थना 
========  

तेरे लिए तो मौत-जिंदगी है बराबर.
इंसान के लिए मगर है ज़िन्दगी हसीन.
वैसे भी, जान ले रहा इंसान की इंसान.
तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा

   ----अरविंद पाण्डेय