मंगलवार, 2 जून 2009
मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों..मैं नारी हूँ...3
रविवार, 3 मई 2009
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर संहार
आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार
सुनकर ब्रह्मा ,विष्णु, रुद्र से अपनी जयजयकार
१
जीत लिया है स्वर्ग इन्द्र से, स्वयं इन्द्र है बना हुआ
सूर्य, अग्नि ,यम, वरुण ,रुद्र से उनके हक को छीन लिया
सारे जग में फैल रहा महिषासुर का आतंक घना
धरती क्या , आकाश और पाताल तलक परतंत्र बना
ब्रह्मा को ले साथ गए सब देव, विष्णु, शिव के आगे
पूछा कैसे महिष मरे , कैसे अपनी किस्मत जागे
आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार ...
२
सब देवों से प्रकट हुआ तब , उस पल भारी तेज वहाँ
कुछ पल में ही गरज उठीं जगदम्ब भवानी तभी वहाँ
दिया विष्णु ने चक्र , रुद्र ने शूल किया अर्पण उनको
शंख वरुण ने ,वज्र इन्द्र ने , ब्रह्मा ने माला उनको
क्षीर-सिन्धु ने पायल ,कुंडल , चूडामणि है दान किया
सिंह हिमालय ने सागर ने कमल फूल से मां किया
आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर संहार ....
३
अट्टहास जब किया अम्ब ने दैत्यों की सेना भागी
जीवन-दीप बुझे दैत्यों के , देवों की किस्मत जागी
चंडी नें चक्षुर , चामर असिलोमा का वध किया वहीं
सारे देव और ऋषि-गण भी करते थे स्तुति खड़े वहीं
देख गरजता महिषासुर को,बोलीं मां जगदम्बा यूँ :
बस कुछ पल तू और गरज ले, तब तक मैं मधु पीती हूँ
इतना कह कर , भगवती जगदम्बा , अपनें वाहन सिंह के स्कंध से उछल पड़ीं और उस महिष-रूपधारी महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं । इसके बाद , उन्होंने उसके कंठ पर अपने शूल से प्रहार किया । तब महिष का मस्तक कट गया और उस कटी हुई गर्दन से वह महादैत्य बाहर निकालने लगा । तब देवी ने विशाल कृपाण निकाली और उसका मस्तक काट गिराया । इसके बाद दैत्यों की विशाल सेना हाहाकार करती हुई भाग गयी । सभी देवता अति प्रसन्न हुए और श्री जगदम्बा की स्तुति करने लगे ।
आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार ....
सुनकर ब्रह्मा ,विष्णु, रुद्र से अपनी जयजयकार ..
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
यह गीत मेरे द्वारा २००३ में लिखा और संगीतबद्ध किया गया था और वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा इसे रिकॉर्ड कराकर बाज़ार में प्रस्तुत किया गया था । यह गीत नंदिता के स्वर में है जिसका साथ मैंने भी दिया है । ESNIPS
पर यह गीत उपलब्ध है जिसे डाउन लोड किया जा सकता है । जिसका लिंक नीचे दिया गया है ।
पवित्र नवरात्र के अवसर पर यह भक्ति - गीत सभी मित्रों को सादर समर्पित है ॥
|
----अरविंद पाण्डेय
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
तुम कर दो अब कल्याण,सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
१
तुमने ही तो कृष्ण -रूप में ब्रज में रास रचाया
युगों युगों तक भक्त जनों के मन की प्यास बुझाया
शिव ही तो राधा बनकर ब्रज की धरती पर आए
इस प्यासी धरती पर मीठी रसधारा बरसाए
हम रस के प्यासे लोग, न चाहे भोग, सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
२
सारे ज्ञानी-जन कहते हैं तुम करुणा की सागर
फ़िर कैसे संसार बना है दुःख की जलती गागर
तुम हो स्वयं शक्ति जगजननी फ़िर ये कैसी माया
इस धरती पर पाप कहाँ से किसने है फैलाया
हे माता हर लो पीर, बंधाओ धीर ,सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
३
बिना तुम्हारे शिव शंकर भी शव जैसे हो जाते
तुमसे मिलकर शिव इस जग को पल भर में उपजाते
तुमने स्वयं कालिका बनाकर मधु-कैटभ को मारा
दुःख में डूबे ब्रह्मा जी को तुमनें स्वयं उबारा
हम आए तेरे द्वार, छोड़ संसार, सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
==============================
यह गीत मेरे द्वारा लिखा गया और इसकी धुन तैयार की गयी । वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा इसे अन्य भक्ति गीतों के साथ २००३ में एक एलबम के रूप में रिलीज़ किया गया ।
इस गीत में शिव के श्री राधा रानी के रूप में अवतार लेने तथा महाकालिका के श्री कृष्ण के रूप में अवतार लेने के रहस्य का वर्णन है ।
मंगलवार, 24 मार्च 2009
बहके हुए इस दिल को तुम चुनो या ना चुनो ..
कुछ तो कहेगा दिल ये ,गर तलब इसे हुई
ये बात और है कि तुम सुनो या ना सुनो
मस्ती फिजां की देख के बहकेगा दिल ज़ुरूर
बहके हुए इस दिल को तुम चुनो या ना चुनो
=========================
कुछ मित्रों ने मेरे इस विचार पर प्रतिकूल मत दिया है कि कविता को छंद-मुक्त होना चाहिए । वे तर्क संगत एवं संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसरण में ही यह कह रहे --ऐसा मेरा मानना है। यहाँ उल्लेखनीय है कि संस्कृत-काव्यशास्त्र में छंदोबद्ध लेखन मात्र को काव्य नही कहा गया अपितु कहा गया कि -रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है (पंडित राज जगन्नाथ ) अथवा -काव्यं रसात्मकं वाक्यम् अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है। परन्तु संस्कृत-काव्यशास्त्रीय सिद्धांत के आलोक में यदि शब्द और वाक्य रमणीयार्थ प्रतिपादक या रसात्मक हों तब तो ठीक किंतु इसका सहारा लेकर कुछ भी लिखे जाने और उसे काव्य कहे जाने के प्रवाह को रोकना होगा-ऐसा मेरा मानना है --यदि हिन्दी साहित्य को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाने का संकल्प हो।
----अरविंद पाण्डेय
शनिवार, 21 मार्च 2009
तुझसे ही बनेगी मेरी किस्मत तू जान ले
तुझको ही चुनेगी मेरी किस्मत तू मान ले
अब तू न यूँ खामोश रह कुछ बोल तो ज़रा
गर मान नही दे तो अब मेरी ये जान ले
=============================
श्री मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में -
''कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ''
की स्थिति बन गयी है ..
उर्दू साहित्य ने अपनी गरिमा
को सुरक्षित रखा है ॥
उर्दू के एक शेर पर करतल-ध्वनि से
आकाश गुंजित हो उठता है ॥
यह इसलिए क्योंकि वहाँ छंदमुक्त कविता
को प्रश्रय नहीं मिला ..
...जिससे हर किसी का कवि बनना
सहज संभाव्य नहीं हो पाया ..
----अरविंद पाण्डेय
गुरुवार, 12 मार्च 2009
कृष्ण-प्रेम ही शाश्वत सुमधुर
कृष्ण-प्रेम ही शाश्वत सुमधुर
क्षण-जीवी है लौकिक प्रेम
प्रेम धरा पर कैसे सम्भव
है जिसका क्षण-भंगुर क्षेम
श्री राधा के चरण-चिह्न पर
नतमस्तक हूँ मै - अरविंद
होली पर्व सजा लाया है
मेरे लिए अतुल - आनंद
नीलकमल-श्रीकृष्ण-चरण में
अर्पित किया ह्रदय का फूल
केसरिया हो गया चित्त जब
दिखा कृष्ण का पीत-दुकूल
रंग नहीं , सत्कर्म, शक्ति वह
जो जीवन में रंग भरे
जीवन बहुरंगी करना यदि
आओ हम सत्कर्म करें ..
द्वेष , क्रोध का कलुष नहीं यदि ,
ह्रदय प्रेम से हो परिपूर्ण ..
फिर होली के लिए नहीं
आवश्यक किसी रंग का चूर्ण ..
स्नेह-सलिल में घुला हुआ हो
लाल रंग बन पावन प्रेम
जिह्वा , नयन बनें पिचकारी
बरसे सतत चतुर्दिक प्रेम ..
|
----अरविंद पाण्डेय
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
महाशिवरात्रि : उमा-महेश्वर का विवाह-दिवस ..
===========================================
शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल
पञ्च-मुखी की पन्द्रह आँखों में काजल काल का
दस हांथों में अभय , शूल औ' भिक्षा-पात्र कपाल का
चंदन के बदले शरीर पर चिता-भस्म है लगी हुई
गले में है रुद्राक्ष और सर्पों की माला सजी हुई
माथे पर है चन्द्र , तिलक सी लगे तीसरी आँख है
कमर में बाघम्भर ,हाथों में डमरू और पिनाक है
शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल .....
३
कानो में कुंडल के बदले सर्प लटकते हैं जिनके
सिर पर काली जटा जूट में गंगा बहती हैं जिसके
गले में नरमुंडों की माला गंगा-जल से भीग रही
भक्तों को वर अभय दे रहे आशुतोष भगवान हैं
शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल ...
=================================================
यह भक्ति-गीत मेरे द्वारा २००३ में लिखा गया था ।
यह शिव-पुराण पर आधारित है । शिव-पुराण के अध्याय
में ४० जगन्माता पार्वती और
जगत्पिता शिव के विवाह का वर्णन है । यह गीत , बरात
के समय शिव-पुराण के शिव-स्वरुप-वर्णन की शाब्दिक-छाया है ।
सभी शिव-भक्त जानते हैं कि माता पार्वती ने अति-कठोर तप किया था अपने
परम-प्रिय शिव को प्राप्त करने के लिए ।
इसी क्रम में ६ महीने तक उन्होंने शाक-पत्र खाना भी
छोड़ दिया था . इसीलिये माता पार्वती का नाम "अपर्णा " भी विख्यात हुआ ।
कालिदास ने शिव-तपस्या भंग करने का प्रयास करने वाले
कामदेव के भस्म होने और उस समय माता पार्वती का अपने
अद्वितीय सौन्दर्य के निष्फल हो जाने पर उसकी निंदा करने का विलक्षण वर्णन
"कुमार संभवं " में किया है । सौन्दर्य की जो परिभाषा कालिदास
ने इस श्लोक में की , उसे ही दूसरे शब्दों में , अंगरेजी के महान कवियों
-पी .बी.शेली , जान कीट्स आदि ने बाद में प्रस्तुत किया -
"तथा समक्षं दहता मनोभवं
पिनाकिना भग्नमनोरथा सती
निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती
प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता "
उमा-महेश्वर विवाह प्रकरण का स्वाध्याय करने से किसी प्रेयसी-कन्या
को उसके प्रिय से विवाह का निर्विघ्न अवसर प्राप्त होता है । यह फल-श्रुति
शिव-पुराण में वर्णित है । अविवाहिता यदि इसका स्वाध्याय करे
तो उसे शिव-कृपा-प्राप्त सुंदर और योग्य वर प्राप्त होता है -यह
प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है ।
वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा
इसे नंदिता के एल्बम 'शिव जी हो गए दयालु 'में सम्मिलित करते हुए २००३ में
रिलीज़ किया गया था ।
इस गीत को मेरी पुत्री नंदिता ने गाया था और मैंने भी इसमें अपना स्वर
दिया था।
----अरविंद पाण्डेय
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ..
आज मैनें ख्वाब में देखा तुझे
फूल सी पलकें तेरी भीगी हुई
मैं तेरी जानिब ये घुटने टेक कर
हाथ को कदमों पे तेरे रख दिया
फ़िर करम तूने किया कुछ इस तरह
हाथ में अपने , मेरे हाथों को ले
खींच कर हलके से, मुझको प्यार में
बाजुओं में इस तरह कुछ, भर लिया
मैं तेरे रुखसार के नज़दीक था
देखता पलकें तेरी भीगी हुई
तेज़ साँसों से तेरी खुशबू निकल
मेरे तनमन में समाई जा रही
सुर्ख गालों पर तेरे ढलते हुए
शबनमी उन आंसुओं को पी गया
क्या कहूं उस एक पल के दौर में
इश्क की लाखों सदी मैं जी गया
फ़िर तेरा आगोश, बस, कसता गया
और कुछ बाकी न था उस पल वहाँ
मैं नही था, तू न थी , ना ये ज़मीन , ना आसमां
इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ
----अरविंद पाण्डेय
सोमवार, 26 जनवरी 2009
स्वर्णिम भारत निर्माण करें ..
२६ जनवरी २००९
१
संयम का अविजित खड्ग लिए
विधि , संविधान का अमृत पिए
प्रज्वलित अग्नि सी प्रज्ञा हो
मणि सी संदीप्त प्रतिज्ञा हो
ऐसा भारत निर्माण करें
आओ जग में आलोक भरें
२
वसुधा का वैभव क्षीण न हो
मानवता शक्ति-विहीन न हो
कुसुमों में वर्ण सुगंध बढे
वृक्षों पर विकसित बेल चढ़े
शीतल सुरभित पवमान बहे
अब प्राणि -मात्र में प्रेम रहे
३
गौरव से मस्तक उन्नत हो
श्रद्धा से , किंतु , सदा, नत हो
करुणा से ह्रदय प्रकाशित हो
शुभ,शील,सत्य से प्रमुदित हो
जन-गण में नव-उत्साह भरे
गण-तंत्र सदा ही विजय करे
४
हम भारत की संतान धन्य
मानवता की महिमा अनन्य
जब भी संसार हुआ व्याकुल
जब बढ़ा धरा पर कंटक-कुल
हमने रक्षित की विश्व-शाँति
प्रज्ञा बल से की दिव्य-क्रांति
----अरविंद पाण्डेय