सोमवार, 18 अप्रैल 2011
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
पुष्प से कंटक का संयोग..
पुष्प से कंटक का संयोग =========== |
स्वप्न :पृष्ठ ५
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२१
मनुज का सत्त्व-संवलित कर्म
सतत करता है आत्म-विकास.
तथा गंतव्य दिशा की और
दिखाता है वह अमल प्रकाश.
२२
प्रभा से पा विकास का लाभ,
कर्म होता है परम अमंद.
कर्म-पूर्णत्व-प्राप्ति पश्चात,
मनुज पाता है परमानंद.
२३
पुष्प से कंटक का संयोग,
कर रहा था यह वाणी सिद्ध-
'''मनुज का जीवन यह सुकुमार,
विपुल विघ्नों से है आविद्ध.''
२४
''सभी कंटक का जब कर नाश,
वीर सा करता है सत्कर्म,
प्रकृति करती है तब साहाय्य,
साथ देता है उसका धर्म.''
२५
वहीं पर एक वृक्ष के पास,
रुदन करता था अफल अनंग.
सत्त्व-गुण मध्य गमन से आज,
हो गया था उसका मद-भंग.
--- अरविंद पाण्डेय
क्रमशः
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शब्दार्थ
अनंग=कामदेव.
आविद्ध=घिरा हुआ.
अमंद= बाधा से मुक्त
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
पुष्प-परिमल-सुरभित पवमान
स्वप्न :पृष्ठ ४
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१६
पुष्प-परिमल-सुरभित पवमान ,
ह्रदय में करता था मद-सृष्टि.
अहा , वह मादकता भी आज,
सत्त्व-गुण की करती थी वृष्टि.
१७
एक शुचि-सलिला सरिता शांत,
बही जाती थी वहां सवेग.
हमें देती थी मानो सीख-
कभी मत रोको जीवन-वेग.
१८
फलाशा ईश्वर पर ही छोड़,
सदा हो स्वस्य-कृत्य में लीन.
प्रकृति फल देगी तुम्हें अवश्य,
वह सदा है अन्याय विहीन.
१९
एक धवलाम्बु-सरोवर मध्य,
खिले थे रक्त-सरोज सहस्र.
भक्त के उर में ज्यों प्रभु हेतु,
बह रहा हो अनुराग अजस्र .
२०
पूर्ण- विकसित गुलाब के पुष्प,
प्रकट करते थे यही रहस्य.
''मनुज के जीवन का आनंद ,
नहीं रखता है केवल कश्य.
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
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कश्य = शराब.
धवलाम्बु-सरोवर = स्वच्छ जल वाला तालाब.
अजस्र = निरन्तर
पुष्प-परिमल = फूलों की सुगंध.
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
मन रे जपो जय राम
श्री रामनवमी के महापर्व पर
प्रभु श्री राम की उन्हीं के पुत्र द्वारा
स्वर-सेवा.
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मन रे जपो जय राम.
जय जय राम.
मन रे जपो जय राम.
राम नाम है पाप-विनाशक
देता हरि का धाम
मन रे जपो जय राम
१ .
विमलबुद्धिदायक सुखदायक रघुनायक प्रभु राम.
जय जय राम .
नीलकमल-सम-नयन-समुज्ज्वल .
ध्यान करो शुभ-धाम.
मन रे जपो जय राम.
२
सजल-जलद-सुन्दर-तनु-शोभित, सकल-भुवन-आधार .
शंख-चक्र-वर-अभय लिए जो पालें सब संसार.
मन रे जपो जय राम .
जय जय राम.
मन रे जपो जय राम.
३
नाम लिया तो गया अजामिल भव-सागर के पार .
कलि में राम भजन की साधो .
महिमा अमित अपार.
मन रे जपो जय राम .
जय जय राम.
मन रे जपो जय राम.
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Worship by Voice to My Lord
Shri Ramchandra
on His Birthday :
Ram Navami .
अरविंद पाण्डेय
सोमवार, 11 अप्रैल 2011
स्वप्न-चलचित्र चला तब चारु.
स्वप्न :पृष्ठ 3
११
विश्व-विजयी निद्रा से ग्रस्त,
सो रहे थे कुछ नर, जग भूल.
प्रिया-विरहित कुछ दुखित मनुष्य,
सहन करते थे उर में शूल.
१२
कल्पना का यह सुन्दर लोक,
देखकर मन था अति सानन्द.
कि सहसा, निद्रा-सुख अनुरक्त.
हो गईं मेरी आँखें बंद.
१३
स्वप्न-चलचित्र चला तब चारु,
झर रहा था प्रमोद-पानीय.
दृश्य जो देखा रुचिर नितांत,
नहीं है वह वाणी कथनीय.
१४
एक विस्तीर्ण क्षेत्र के मध्य ,
खडा मैं किंकर्तव्य विमूढ़.
देखता था होकर साश्चर्य,
प्रकृति का वह परिवर्तन गूढ़.
१५
वहां के कण कण में थी व्याप्त,
सत्त्व-गुण सर्जक गैरिक कान्ति.
शून्य में अतुल शून्यता तुल्य,
चतुर्दिक फ़ैली थी शुभ शान्ति.
क्रमशः
-- अरविंद पाण्डेय
रविवार, 10 अप्रैल 2011
सप्तऋषि का प्रशांत आलोक.
स्वप्न :पृष्ठ २
६
धरा का करता था श्रृंगार,
चंद्रिका का सुन्दर विक्षेप.
यथा ,करती है इश्वर-भक्ति,
बुद्धि पर सत्त्व-वृत्ति का लेप.
७
निशा-मंडित अनंत-श्रृंगार
कर रहे थे तारक के पुंज.
वासनामय अंतर के बीच,
खिल रहा हो ज्यों प्रभु-रति-कुञ्ज.
८
कर रहा था विलसित ईशान,
सप्तऋषि का प्रशांत आलोक.
सप्त-सुर ज्यों हों तप में मग्न,
छोड़, सुख का दुरंत निर्मोक.
९
शांत रजनी में सभी मनुष्य ,
चाहते थे सुख का संयोग.
रसिक, रति में थे अति सलग्न ,
सिद्ध करते थे योगी, योग.
१०
जागरण-रत कविवृन्द अजस्र ,
काव्य-रस पीने में थे मस्त.
काममय मर्त्य प्रिया-परिधान,
कर रहे थे नित अस्तव्यस्त .
क्रमशः
यह पांच छंद-समूह, कल से प्रारंभित, मेरी स्वप्न शीर्षक लंबी कविता का द्वितीय प्रक्रम है ..एक बार , स्वामी विवेकानन्द और अपने संबंधो के विषय में चर्चा करते हुए भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस ने बताया था कि स्वामी विवेकानन्द सप्तर्षियों में से एक ऋषि थे जिन्होंने श्री भगवान के आदेश पर, मानव रूप में जन्म लिया था.एवं स्वयं श्री रामकृष्ण परमहंस ईश्वरावतार थे..आज की कविता में सप्तर्षि का उल्लेख था और इससे सम्बंधित छंद लिखते समय स्वामी जी का स्मरण हुआ तो उन्ही का चित्र इस कविता के साथ संसक्त कर दिया है..
-- अरविंद पाण्डेय
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
निशा का मनमोहक सौन्दर्य
स्वप्न :पृष्ठ १
१
ललित रजनी का मृदु परिरंभ,
ले रहे थे समोद शशकांत .
यथा नारी को भोग्या मान,
रमण करता है मानव, भ्रान्त.
२
कुमुद के विकसित सुन्दर पुष्प,
कौमुदी का पाकर संयोग,
मधुर यौवन रस का साह्लाद,
कर रहे थे अशंक उपभोग.
३
भूलकर अपना निकट भविष्य,
वासना के सागर में मग्न.
शीघ्र ही तल-स्पर्श के हेतु,
कुमुद, शशि थे प्रयत्न-संलग्न.
४
निशा का मनमोहक सौन्दर्य,
पी रहे थे रसमय रजनीश .
यथा माया आकर्ष देख,
भूल जाता है नर को ईश.
५
प्रकृति को पाणि-पाश में बाँध ,
चपल शीतल सुरभित पवमान .
प्रणय में अन्य कर्म को भूल,
सतत करता था सुमधुर गान.
क्रमशः
५२ छंदों में लिखी गई '' स्वप्न '' शीर्षक यह कविता मैंने २/४/१९७९ से प्रारम्भ कर ८/४/१९७९ को पूर्ण की थी.यह मेरे एक स्वप्न-दर्शन पर आधारित है..जिसको मैंने अक्षरशः सत्य घटित होते हुए पाया है.उस समय मै , कालिदास , भारवि, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त,पन्त, निराला , महादेवी आदि कवियों का साहित्य नियमित पढ़ रहा था..और मेरे मन में, कविता को उसी रूप में सृजित करने की प्रेरणा होती थी जो संकृत की गंगोत्री से प्रवाहित शास्त्रीय हिन्दी के रूप में अभिरूप पदों से सुमधुर हो ..
इसमे मेरी शैली, मुझे हिन्दी-कविता के उस स्वर्णयुग का स्मरण कराती है जब हम यह कह सकते थे कि हिन्दी कविता भी विश्व-कविता की पंक्ति में , समान स्थिति में, ,स्वाभिमान के साथ, अपनी उपस्थिति का बोध करा सकती है.
यह कविता , प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ '' में सम्मिलित है..
-- अरविंद पाण्डेय
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़,मधु यावत् पिवाम्यहं.
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ , मधु यावत् पिवाम्यहं.
मया त्वयि हतेsत्रैव गर्जिश्यन्त्याशु देवताः
(श्री दुर्गासप्तशती में जगन्माता का वचन )
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जब ऋत का सुरभित स्वर्ण कमल खिलता है.
जब अजा और अनजा का ध्रुव मिलता है.
जब भेद, ज्ञान-अज्ञान बीच मिटता है.
तब महाकालिका का नर्तन दिखता है.
जब प्रभा पिघलकर, धरा सिक्त करती है.
जब धरा , वाष्प बन शून्य-गगन भरती है.
जब पुष्प-गन्ध, बादल बनकर झरती है.
तब कृष्णा , चिन्मय नृत्य मधुर करती हैं.
जब प्रकृति-पुरुषमय जगत शून्य होता है.
जब निरानन्द , आनन्द-रूप होता है.
जब , अविज्ञान , विज्ञान-तुल्य होता है.
तब. जगदम्बा का कमल-नयन खिलता है.
जब वेद-अवेद-भेद का भ्रम कट जाता
जब महासिन्धु , बस एक विन्दु बन जाता
जब एक विन्दु , बन महासिन्धु लहराता.
तब ब्रह्मचारिणी का प्रकाश-घन छाता.
--- अरविंद पाण्डेय
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
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करोतु श्रीविन्ध्यनिवासिनी शुभं
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कनक-कमल-किसलय के पुट में,
माँ ! रख, रवि का अरुणिम रंग.
ह्रदय-पटल पर मैं खीचूँगा ,
तेरा करुणामय मुख - अंग .
विश्व कहेगा तब विस्मय से ,
अहा प्राणमय यह नव-चित्र .
कब, कैसे तुमने खींचा है ,
कहो , कहो, हे मेरे मित्र.
तब तो अपने विश्व-रूप का
कथन, सत्य करने के हेतु.
निज-मंदिर से मेरे उर तक.
माँ , तुम रचित करोगी सेतु.
मेरा, चिर- सुषुप्ति से विजड़ित,
शिव सुन्दर सहस्र - दल पद्म.
माँ, तेरे चिन्मय विलास का,
बन जाएगा शाश्वत सद्म.
स्वर्णिम-स्वप्न-मयी कल्पना से सुगन्धित माँ की यह स्तुति मैंने १०/०६/१९८३ को जगन्माता को अर्पित की थी जो मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ '' में प्रकाशित है..आज नवरात्र महापर्व की द्वितीया को पुनः माँ के चरणों में समर्पित करता हूँ..
-- अरविंद पाण्डेय.
सोमवार, 4 अप्रैल 2011
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.
प्रथम-दिवस नवरात्र का.
ॐ
विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां विन्ध्यपर्वतवासिनीं.
योगिनीं योगजननीं चंडिकां प्रणमाम्यहं .
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जब कण कण अपने कारण में मिलता है .
अस्तित्व, काल का भी, जिस क्षण हिलता है.
जब खंड खंड हो , देश, शेष हो जाता .
तब, जगदम्बा का मुक्त केश लहराता.
जब सूर्य, शून्य बनकर सत्ता-च्युत होता.
जब महाप्रलय-जल, कृष्ण-चरण को धोता.
जब द्वैत, दृश्य-द्रष्टा का मिट जाता है.
तब, माँ के मुख पर मधुर हास्य छाता है.
जब घन-प्रकाश, तम में परिणत होता है.
जब तम भी अपनी सत्ता खो देता है.
जब महाविष्णु भी निद्रित हो जाते हैं.
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.
जब, सारी पृथ्वी, जल में घुल जाती है.
जब , जल-सत्ता, पावक में मिल जाती है.
जब, पावक भी, पवमान स्वयं बनता है .
तब, महाप्रकृति का कमल-नयन खिलता है.
-- अरविंद पाण्डेय
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