रविवार, 21 नवंबर 2010

अक्षर-रमणी के साथ हुआ मेरा विवाह



१ 
मैं महामृत्यु का मित्र, गगन है मेरा पथ.
इस संसृति का मिथ्यात्वज्ञान है मेरा रथ
मैं महाकाल की गति से सत्ता में विचरूं
मैं महाशून्य में सृष्टि-कर्म की प्यास भरूँ.

मैं शुद्ध बुद्धि, मैं शुद्ध सत्य, मैं शुद्ध काम.
मैं नामरूप का सृजन करूं ,रहकर अनाम.
मैं नभ से भू पर उतर रही  गंगा का जल.
प्रक्षालित कर भूतेश-जटा को करूं सरल.
आकाश-चारिणी गंगा सा मेरा प्रवाह.
अक्षर-रमणी के साथ  हुआ मेरा विवाह.

मैं हूँ अनंत का चुम्बन करती अग्निशिखा.
मैंने समस्त संसृति का भावी भाग्य लिखा.
मैं जीव जीव में जीवन भरता सविता हूँ.
मैं महाप्रकृति की सबसे सुन्दर कविता हूँ.
मेरा ही रस पीकर होती संसृति, रसाल.
मेरा दर्शन कर परम क्षुद्र होता विशाल.

मैं प्राण भरूँ तो जीवन पाता पंचभूत.
मेरी सत्ता ही जड़-चेतन में अनुस्यूत .
शत-कोटि सूर्य सा फैल रहा मेरा प्रकाश.
जो पलक गिरे मेरी तो होता सृष्टि-नाश.
इस दृश्य-विश्व की सत्ता का मैं हूँ कारण.
मैं जगद्योनि का सृष्टि-कर्म में करूं वरण.

मैं महापुरातन,चिर-नूतन,प्रतिपल अभिनव.
मैं परम-स्फोट,मैं परम शांत मैं महा-प्रणव. 

यह कविता , वेदान्त-साधना के  सर्वोच्च शिखर  निर्विकल्प समाधि  के ठीक पहले की अवस्था - अखंड ब्रह्माकाराकारित चित्तवृत्ति --  को शब्दांकित करने का प्रयास करती है..
जो इसे मनन कर समझ पाए वे स्वयं भी उस अनुभूति के परमानंद का कण रसास्वादित कर धन्य होगें..

-अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं ..


तत्सुखे सुखित्वं स्यात: उसके सुख में ही सुख हो : नारद भक्ति सूत्र;

तुमने लिया किसी से और उसको कुछ दिया.
फिर इश्क तो नहीं किया, सौदा किया तुमने.
पाए बिना ही दे गए ग़र इश्क किसी को,
समझो, तुम्हें बस इश्क ही बस इश्क हुआ है..


माता रुक्मिणी श्री कृष्ण से अक्सर ये कहतीं थीं कि हम भी तो आपको असीम प्रेम करती हैं फिर प्रेम का प्रसंग आते ही आप श्री राधा और गोपियों की याद करके आखें सजल कर लेते हैं.. ऐसा क्यों ..हर बार श्री कृष्ण चुप हो जाते.. कुछ कह न पाते..अकथनीय को कहें भी कैसे.. जो समस्त सृष्टि के जीवों को वाणी का दान करते हैं, उनकी वाणी अवरुद्ध सी हो जाती..एक बार देवर्षि नारद, श्री द्वारिकाधीश के अतिथि बने..उनकी उपस्थिति में ही श्री कृष्ण को अचानक भयानक शिरोवेदना हुई.. मस्तक, पीड़ा से फटा सा जा रहा था..राजवैद्य आए..औषधि दी.. कोई लाभ नहीं ..श्री नारद ध्यानस्थ हुए ..फिर माता रुक्मिणी से कहा कि अगर श्री कृष्ण के किसी प्रेम करने वाले या भक्त के पैरों की धूल मिल जाए और उसे इन द्वारिकाधीश के मस्तक पर मल दिया जाय तो ये पीड़ा शांत होगी अन्यथा नहीं.ये पीड़ा किसी अनन्य प्रेमी की उपेक्षा के कारण हुई है श्री कृष्ण को .. सभी  पटरानियाँ और वहां उपस्थित सभी लोग स्तब्ध थे..देवर्षि ने रुक्मिणी  जी से कहा , आप तो इन्हें अनन्य प्रेम करतीं हैं..आपकी भक्ति तो विश्व-विख्यात है..आप अपने चरणों की धूल दीजिये तो इन्हें शान्ति मिले..रुक्मिणी जी ने कहा, मैं , प्रेयसी, भक्त, समर्पित, अपने पैरों की धूल दू तो सीधा नरक का द्वार दिख रहा मुझे..मुझसे ये महापाप न होगा...इसी तरह सभी ने वह ''महापाप'' करने से इनकार कर दिया..नारद ने कहा , अब एक ही  मार्ग दिख रहा...व्रज का मार्ग.. वे व्रज गए और यही प्रस्ताव राधा रानी और गोपियों के सामने रखा..राधा जी और गोपियों को तो लगा कि प्राण ही निकल जायेगे. उन्हें शिरो-वेदना..अभी तक शांत नहीं...कहा , देवर्षि , आपने इतनी देर क्यो की ? तुरंत आते..राधा जी ने गोपियों के पैरों धूल इकट्ठी करनी शुरू की.सभी गोपियों ने अपने पैरों की धूल दी.. उनके चरण-रज से नारद की झोली  भर गई..फिर सभी ने कहा , नारद जी, आप ले जाइए .फिर कभी उन्हें वेदना हो तो उसकी चिकित्सा के लिए भी हम अभी से दे रही हैं..हम जानती हैं कि उनके मस्तक पर हमारे पैरो धूल लगेगी तो हमें महापातक होगा..वे तो अनंत , सनातन,परमात्मा हैं..किन्तु हम नरक का कष्ट भोगने के लिए तैयार हैं अनंत काल तक.. उन्हें वेदना हो एक क्षण भी, ये तो हमें उस नरक से भी अधिक वेदानादायी है..नारद आए.. वह धूल की झोली लिए..आंसू बहाते..प्रेम-पारावार में अभिषिक्त हो रोमांचित..द्वारिकाधीश ने उस धूल का एक कण मस्तक पर लगाया ..उनकी देह  प्रेम-पुलकित हो रही थी .. प्रेमाश्रुओं से वक्षस्थल का अभिषेक हो रहा था..बार बार उस धूल का स्पर्श कर वे परमानन्दस्वरूप अनंत , स्वयं आनंदित हो रहे थे.. रुक्मिणी और अन्य सभी उस दृश्य को देख अपूर्व आनंद में मग्न थे .. रुक्मिणी को उनके प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन व्रजराजकिशोर,  द्वारिकाधीश ने जो स्वयं को पीड़ित किया, उसका स्मरण कर वे लज्जित हो रहीं थीं..धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं .. धन्य श्री शुकदेव जिन्होंने इस भागवत रूपी अमृत से संसार को शाश्वत काल के लिए भिगो दिया..
----अरविंद पाण्डेय