वक्त की गहरी परतों में दबे हुए हमारे अतीत
और वक्त की एक एक कर उतरती परतों के बीच से
हसीन सुबह की मानिंद हमें निहारता
और अपने पुरइश्क रुखसार की झलक देने को बेताब
हमारा भविष्य
कह रहा हमसे --
कि वक्त बेपरवाह न था कभी तुमसे
तो तुम भी वक्त से न रहो बेपरवाह
कि इश्क - ए - मिजाजी में डूब कर तो देख लिया
न कुछ ले पाये किसी से, न किसी को कुछ दिया
तो अब इश्क - ए- वक्त में भी तो डूब कर देखो--
फ़िर , अपने ही किए कराए पर,
लब पर तुम्हारे, न होगी कभी आह
दिल को इतना रोशन रखो
कि तुम्हारे होते किसी ज़िंदगी की सुबह ,
न हो कभी स्याह
कि हो कोई बेसहारा
पर तुम्हारी नज़रों के सामने
न हो कभी बेराह
कि गुलशन में खिले हुए गुल
ख़ुद को न समझे कभी बेपनाह
क्योकि,
ये वक्त है हर फूल के खिलने का
ये वक्त है हर बेराह को राह मिलने का
ये वक्त है हर स्याह दिल में रोशनी दिखने का
क्योकि
अब तो सुबह होने को है
अँधेरा ख़ुद ब ख़ुद खोने को है
----अरविंद पाण्डेय