मेरा श्रृंगार , तुम्हें करता हर्षित अपार !
फिर क्यों मेरे सुन्दर मुख से कर रहे रार !
अजीब बात है ...... बंगाल में रहकर भी रवीन्द्रनाथ से अपरिचय .... कैसी विडम्बना है यह .......... अभिजित दा ने शायद गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर को ठीक से नहीं पढ़ा ..... अन्यथा
वे ये बात समझ पाते कि वे जिस डेंट-पेंट की बात कर रहे थे वह स्त्री ही नहीं पुरुष के लिए भी ,, प्रत्येक व्यक्ति के लिए ,, क्यों और कितना आवश्यक है ...........
............एक बार महात्मा गांधी , गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मिलने गए थे .... साथ साथ शान्तिनिकेतन-भ्रमण के लिए निकलने के पूर्व, गुरुदेव ने दर्पण के सामने खड़े होकर, अपने श्वेत कुन्तलों ,, श्वेत श्मश्रु को सौम्यता के साथ संवारा और मुखमंडल को और अधिक दीप्तिमान और निर्दोष बनाने के लिए उसके एक एक अंश को ध्यान से देखा और त्वचा को अपने कोमल कर-स्पर्श और अङ्गुलि-संचालन से और अधिक स्फूर्तिमय बनाते हुए अपने वार्धक्य की भव्यता पर स्वयं ही मुग्ध से होकर, दर्पण के सामने संस्थित से हो रहे थे ..... जब उन्हें लगा कि अब वे भव्य और आकर्षक दिख रहे हैं तब महात्मा की ओर स्मित-मत्त सा होकर देखा ... महात्मा कुछ पल स्तब्ध सा उन्हें देखते रहे और फिर बोले - इस वृद्धावस्था में इतना श्रृंगार !
....... गुरुदेव तो अपने वार्धक्य की भव्य रम्यता की मस्ती में थे ... मुस्कुरा कर देखा महात्मा की ओर फिर कहा -- यौवन होता तब श्रृंगार की इतनी आवश्यकता न थी ... .. किन्तु , वार्धक्य में इतना श्रृंगार न करें तो मेरा अल्प भी असौंदर्य, मुझे देखने वाले को व्यथित कर सकता है ,, सुंदर वस्तु या सुंदर व्यक्ति को देखकर दर्शक प्रसन्न होता है ,, इसलिए ,, अब और अधिक सुन्दर दिखने का प्रयास करता हूँ ,,, असुंदर दिखकर , किसी दर्शक को निराश कैसे करून,, किसी को निराश करना भी तो हिंसा करना ही है ... अहिंसा के लिए ही तो श्रृंगार करता हूँ मैं कि जो मुझे देखे वह प्रसन्न हो जाए ....
.............महात्मा , गुरुदेव की इस अहिंसा-वृत्ति को देख, पुनः स्तब्ध-प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गए थे और शायद यही वह क्षण था जब महात्मा ने रवीन्द्रनाथ को गुरुदेव कहना प्रारम्भ किया था ............
अब अभिजित दा ने यह दृश्य देखा होता तो पता नहीं क्या टिप्पणी करते .............. !!
!! डेंट-पेंट !!
अरविंद पाण्डेय
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