शनिवार, 29 दिसंबर 2012

बंगाल में रहकर भी रवीन्द्रनाथ से अपरिचय ....



मेरा श्रृंगार , तुम्हें करता हर्षित अपार !
फिर क्यों मेरे सुन्दर मुख से कर रहे रार !

अजीब बात है ...... बंगाल में रहकर भी रवीन्द्रनाथ से अपरिचय .... कैसी विडम्बना है यह .......... अभिजित दा ने शायद गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर को ठीक से नहीं पढ़ा ..... अन्यथा 
वे ये बात समझ पाते कि वे जिस डेंट-पेंट की बात कर रहे थे वह स्त्री ही नहीं पुरुष के लिए भी ,, प्रत्येक व्यक्ति के लिए ,, क्यों और कितना आवश्यक है ........... 
............एक बार महात्मा गांधी , गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मिलने गए थे .... साथ साथ शान्तिनिकेतन-भ्रमण के लिए निकलने के पूर्व, गुरुदेव ने दर्पण के सामने खड़े होकर, अपने श्वेत कुन्तलों ,, श्वेत श्मश्रु को सौम्यता के साथ संवारा और मुखमंडल को और अधिक दीप्तिमान और निर्दोष बनाने के लिए उसके एक एक अंश को ध्यान से देखा और त्वचा को अपने कोमल कर-स्पर्श और अङ्गुलि-संचालन से और अधिक स्फूर्तिमय बनाते हुए अपने वार्धक्य की भव्यता पर स्वयं ही मुग्ध से होकर, दर्पण के सामने संस्थित से हो रहे थे ..... जब उन्हें लगा कि अब वे भव्य और आकर्षक दिख रहे हैं तब महात्मा की ओर स्मित-मत्त सा होकर देखा ... महात्मा कुछ पल स्तब्ध सा उन्हें देखते रहे और फिर बोले - इस वृद्धावस्था में इतना श्रृंगार ! 
....... गुरुदेव तो अपने वार्धक्य की भव्य रम्यता की मस्ती में थे ... मुस्कुरा कर देखा महात्मा की ओर फिर कहा -- यौवन होता तब श्रृंगार की इतनी आवश्यकता न थी ... .. किन्तु , वार्धक्य में इतना श्रृंगार न करें तो मेरा अल्प भी असौंदर्य, मुझे देखने वाले को व्यथित कर सकता है ,, सुंदर वस्तु या सुंदर व्यक्ति को देखकर दर्शक प्रसन्न होता है ,, इसलिए ,, अब और अधिक सुन्दर दिखने का प्रयास करता हूँ ,,, असुंदर दिखकर , किसी दर्शक को निराश कैसे करून,, किसी को निराश करना भी तो हिंसा करना ही है ... अहिंसा के लिए ही तो श्रृंगार करता हूँ मैं कि जो मुझे देखे वह प्रसन्न हो जाए .... 
.............महात्मा , गुरुदेव की इस अहिंसा-वृत्ति को देख, पुनः स्तब्ध-प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गए थे और शायद यही वह क्षण था जब महात्मा ने रवीन्द्रनाथ को गुरुदेव कहना प्रारम्भ किया था ............
अब अभिजित दा ने यह दृश्य देखा होता तो पता नहीं क्या टिप्पणी करते .............. !!
!! डेंट-पेंट !!

अरविंद पाण्डेय www.biharbhakti.com

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

माताएं बुला रहीं हैं तुमको सिहर - सिहर



ॐ : आमीन 

हे  शुभ्र- वर्ण, शुभ्राम्बर, सुन्दर,  शुभ्र - नयन
अविरल-अनुकम्पा-अनुरंजित,अपराजित-मन
आओ , अपराधों से कलुषित  अब   धरती पर 
माताएं  बुला  रहीं  हैं   तुमको  सिहर - सिहर

कोलाहल  में   है  दबी  हुई   ॐ कार - ध्वनि
आकुल , अविरल आँसू  से भीगी आज अवनि


अरविंद पाण्डेय 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मगर, जो दूसरों के लब पे तबस्सुम रख दे

कृष्णं वन्दे जगदगुरुं : 

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन 

.............भारत में प्राचीन काल से ही शुद्ध और वास्तविक समाज-सेवा को प्रसन्नता-पूर्ण जीवन जीने के आवश्यक उपायों में बताया गया था .... पञ्च-ऋण से मुक्त होने और प्रतिदिन पञ्च-महायग्य करने का विधान प्रत्येक गृहस्थ के लिए किया गया है...किन्तु अज्ञानता के कारण आज अधिकाँश लोग इन उपायों का अवलंबन नहीं करते..... किन्तु सच ये है कि 

हंसी  हो लब पे तो दुनिया हसीन सजती है .
खिजां, बहार सी ताज़ातरीन लगती है.
मगर, जो दूसरों के लब पे तबस्सुम रख दे,
ज़मीं , फिरदौस से भी बेहतरीन लगती है.

........................अमरीका के मनोवैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में यह पाया है कि जो लोग शुद्ध और वास्तविक समाज-सेवा में स्वयं को व्यस्त रखते है वे अन्य समान-स्थिति वाले व्यक्तियों से अधिक प्रसन्न और तनावमुक्त जीवन जीते हैं......
........................अब पश्चिमी देशों में भी स्वयं को प्रसन्न रखने के लिए समाजसेवा को एक औषधि के रूप में प्रयोग किये जाने का प्रचलन प्रारम्भ हुआ है .....

सभी मित्रों को सुप्रभात और नमस्कार...

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अरविंद पाण्डेय
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