गुरुवार, 22 सितंबर 2011

वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी..

                              
 मुझसे कई मित्रों ने पूछा कि आप प्रेम की कवितायें या नज़्म किसे लक्षित कर लिखते हैं .. क्योंकि लिखते समय लेखक की दृष्टि में कोई व्यक्ति या वस्तु तो रहनी ही चाहिए जिसे लक्षित कर शब्दों के माध्यम से प्रकट भाव, अपनी यात्रा कर सकें .. इन प्रश्नों पर मैंने कई बार सोचा ।

मैनें एक दिन , किसी प्रणयिनी के प्रसन्न-मन की तरह अनंत रूप से विस्तृत और खिलखिलाते हुए आकाश को देख कर, खुद से प्रश्न किया था ---

'वह कौन जिसे देख गुनगुना उठा ये मन .
वह कौन जिसे छूके गमगमा उठा ये तन
वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी,
महकी हुई हवा ये बही सन सनन सनन ..

मैनें जब किसी सांस्कृतिक-कार्यक्रम में - चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल' गाया तो भी यही प्रश्न मुझसे कुछ मित्रों ने किया कि आखिर गाते समय जो भाव, स्वर-लहरियों में पग कर, छलकते हैं, वे किसको भिगोने को बेताब होते हैं ॥

ये प्रश्न मुझे अति प्रासंगिक लगे थे और इन प्रश्नों पर मेरा अपना चिंतन है . मै समझता हूँ कि मेरा यह चिंतन, वैज्ञानिक और यथार्थवादी भी है .
चांदी जैसा रंग - क़तील शिफाई की बेहतरीन खूबसूरत नज़्म, जब मैंने पढा तो मुझे लगा कि ये नज़्म , बज्मे कुदरत के लिए लिखी गयी ..

मगर इश्क की हकीकत से महरूम लोगों नें ये समझा कि ये किसी खूबसूरत, परीजाद जैसी स्त्री के हुस्न की तारीफ़ में लिखी गयी .

सत्य यह है कि दुनियावी खूबसूरती एक ऐसा सितारा है जिसे पाने को जो जितना ही आगे बढे वह सारी कोशिशों के बाद , खुद को उतना ही पीछे महसूस करता है ।

एक कार्यक्रम में मैंने ' चांदी जैसा रंग ' गाने के पहले श्रोताओं से पूछा - ' क्या आपमें से किसी ने कोई ऐसी स्त्री देखी है जिसकी देह का रंग चांदी जैसा चमके और जिसके बाल सोने की तरह कान्तिमान हों ।'

सभी ने एकस्वर से कहा - नहीं देखा ।

तो मैंने गाना शुरू किया और कहा की इस गीत को मैं उस मातृभूमि - धरती माता को समर्पित करते हुए गा रहा हूँ जिसका रंग सचमुच चांदी जैसा है और जिसके बाल . वास्तव में स्वर्णिम कान्ति से विभूषित हैं । तालियाँ बजी लोगों ने गीत का स्वाद लिया , आनंदित हुए ..

नयी दृष्टि ने उन्हें बौद्धिक दृष्टि से भी समृद्ध भी बनाया ..

प्रेम की शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा और लक्षण नारद भक्तिसूत्र में प्राप्त होता है । श्री नारद ने प्रेम का लक्षण निरूपित करते हुए कहा -- तत्सुखे सुखित्वं स्यात् अर्थात जिस पुरूष में यह लक्षण मिले कि वह किसी स्त्री के सुखी हो जाने पर स्वयं सुख का अनुभव करता है । या कोई स्त्री, किसी पुरूष के सुखी होने में स्वयं सुखी होने का अनुभव कर रही तो यह लक्षण प्रेम का है ।

मगर संसार में हो क्या रहा अक्सर ? स्त्री और पुरूष एक दूसरे के अस्तित्व का प्रयोग, स्वयं को सुखी करने में कर रहे । तो यह प्रेम का लक्षण तो है नही । फ़िर , चाँद-फ़िज़ा जैसी कथाएं , प्रेम के नाम पर , आतंक का प्रतीक बन, प्रेम शब्द के प्रति भयग्रस्त बना रहीं लोगों को ।

वस्तुओं के प्रति प्रेम ने समाज को घायल कर रखा है । दहेज़-प्रताड़ना के मामलों में अक्सर मैनें पाया कि पत्नी अत्यन्त रूपवती है फ़िर भी उसके रूप की संपत्ति को न आंक पाने के कारण पति ने पैसे के लिए उसे प्रताडित किया । और जब उसे मैंने इस बात के बारे में समझाया तो उसे गलती का एहसास हुआ और पत्नी-पति के सम्बन्ध सुधर गए ।

एक बात और । संसार में जो आकर्षण है स्त्री -पुरूष का एक दूसरे के प्रति, वह किसी भौतिक -गुण के प्रति आकर्षण है न कि उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति कोई आकर्षित हो रहा । ऐसे आकर्षणों में स्त्री या पुरूष के वे भौतिक गुण यदि अधिक मात्रा में किसी अन्य स्त्री या पुरूष में दिखाई पड़ेंगे तो आकर्षण की दिशा निश्चित रूप से बदल जायेगी । उस ओर जहा वे गुण अधिक दिखाई पड़ रहे । फ़िल्म उद्योग और शोभा डे की सितारों भरी रात्रियों की मस्ती में डूबने वालों के विशिष्ट समुदाय , में इस प्रणय - विचलन की घटनाएँ प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं ।

वास्तव में अनंत प्रेम या तो ईश्वर के प्रति ही हो सकता है या जिसे ईश्वर मान लिया जाय उसके प्रति हो सकता है । क्योंकि इश्वर में ही अनंत मात्रा में सौन्दर्य, माधुर्य, कोमलता , ऐश्वर्य , पौरुष, यशस्विता , श्री , उपलब्ध है जिसके कारण कोई भी किसी के प्रति संसार में आकर्षित होता है ।

अनेक प्रेम-अपराधों के अनुसंधान में मैंने यही पाया कि अपराध इसलिए हुआ क्योंकि श्री नारद की परिभाषा के अनुरूप वहाँ प्रेम था ही नही मात्र प्रेम का आभास था जिसे प्रेम कहा जा रहा था । लोग स्वयं को सुखी बनाने के लिए दूसरों की ताकत का प्रयोग कर रहे थे और यह स्वयमेव एक अपराध है ।

समाज को समृद्ध , शांत और सुंदर बनाने के लिए यह ज़रूरी है की लोग प्रेम का प्रशिक्षण प्राप्त करें , उसे समझें और यह देखें कि वे जिसे प्रेम करते हैं उसे कितना सुखी बना रहे । दूसरों को सुखी करने वाले में ही प्रेम घटित हो सकता है वरना इश्के मिजाजी का तो यही हाल देखा और लिखा -

इस इश्के मिजाजी की तो है बस इतनी दास्तान
इक तीर चुभा , खून बस बहता ही जा रहा
हर शख्स की ज़ुबान , आँख , कान बंद है
इक मैं हूँ जो बस दर्दे दिल कहता ही जा रहा


----अरविंद पाण्डेय