बुधवार, 4 अप्रैल 2012

इश्क ही लिखता हर इक इंसान की तकदीर है


इश्क होता है न महलों में न तख़्त-ओ-ताज में.
इश्क तो अल्लाह के बन्दे की इक जागीर है.
क्या मिला है, क्या मिलेगा बादशाहत से किसे,
इश्क ही लिखता हर इक इंसान की तकदीर है.

अनेक मित्रों ने मुझे  इश्क और मानवीय रिश्तों पर भी कवितायें लिखने को कहा है..
                    यहाँ मैं बता दूं कि एक पुलिस अधिकारी के रूप में मैंने सैकड़ों मामले ऐसे देखे हैं जिसमें शिकायत-कर्ता और आरोपित मामला पुलिस या अदालत में दर्ज होने के पहले प्रेमी-प्रेमिका थे.. और , बस. छोटे छोटे अहंकारों, छोटी जिद, छोटे स्वार्थों के कारण एक दूसरे के दुश्मन बन गए और अपनी सारी ताकत लगाकर, यहाँ तक कि खुद को नुक्सान पहुचाकर भी उसी कथित प्रेमी या कथित प्रेमिका के पीछे पद गए जिसे कभी प्रेम की कवितायें , प्रेम के गीत सुनाया करते / करती थीं..
            वास्तव में प्रेम सिर्फ ईश्वर से हो सकता है या यूँ कहें कि प्रेम सिर्फ ईश्वर ही कर सकते हैं .. यह मनुष्य के वश का नहीं.. यदि कहीं कोई मनुष्य प्रेम में हो तो वह देवता बन चुका होता है..
              प्रेम मनुष्य से देवता बनने की प्रक्रिया का दूसरा नाम है -- यूँ कहें इसे और समझें तो शायद बेहतर होगा,, 


© अरविंद पाण्डेय..

शनिवार, 31 मार्च 2012

श्री राम,लोक-अभिराम,सतत-निष्काम,सर्व-नयनाभिराम




जय जय श्री रामनवमी 


१ 

श्रीराम,लोकअभिराम,सततनिष्काम,सर्वनयनाभिराम.
शीतल-तुषार-सिंचित-इन्दीवर-दीपित-शुभ-सर्वांग वाम.
मर्यादा-पुरुषोत्तम,निकाम-पौरुष-परिपूर्ण,पवित्र-नाम .
शतकाम-सदृश सौन्दर्यधाम,वरदान करें-मन हो अकाम.

२ 

अम्बर निरभ्र, तरणि-किरणों से संदीपित.
पवन , सुकोमल मधु-गंध से सुवासित है.
नवमी - मध्याह्न भौमवासर शुभंकर -तिथि ,
जन-मानस प्रमुदित, पशु-पक्षि-दल पुलकित है. 
जिनके चरण-तल में शत-कोटि सूर्य-चन्द्र ,
शत शत ब्रह्माण्ड भी अनादि काल-कल्पित हैं.
वे ही अनंत, अव्यक्त अपरिमेय राम,
कौशल्या-अंक में बालक बन प्रफुल्लित हैं.

(यह सवैया छंद में रचित है )



© अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 28 मार्च 2012

तुम्हें कौन सा कुसुम चढाऊं..

कृष्णं वंदे 

तुम ही पुष्पों में परिमल बन महक रहे हो,
तुम्हें कौन सा कुसुम चढाऊं..
जिसकी सुरभि न तुम्हें मिली हो,
ऐसा फूल कहाँ से लाऊं.


तुम भास्कर बन सकल जगत को भासित करते,
तुम्हें कौन सा दीप दिखाऊं,
जो तुमको प्रकाश से भर दे ,
ऐसा दीप कहाँ से लाऊं..


श्रीजगदम्बार्पणमस्तु 


© अरविंद पाण्डेय

तेरे दोनों चारु - चरण को चर्चित करूं , सजाऊँ.

शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुनौ !


अपने हृदय-कमल के कोमल किसलय की माला मैं,
माँ तेरी सुन्दर ग्रीवा में आज मुदित पहनाऊँ,
मन्त्र-पूत प्रज्ञा का सुरभित चन्दन-राग बनाकर 
 तेरे दोनों  चारु - चरण को चर्चित करूं , सजाऊँ.


श्रीजगदम्बार्पणमस्तु 


© अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

किताब-ए-कौम में रोशन जो निशाँ रहते हैं.

वन्दे मातरं ! 

23 मार्च ! 

जेहन में जोश हो, पर , फिर भी होश पूरा हो.
न जिसका सोज़, निशाना कभी अधूरा हो.
किताब-ए-कौम में रोशन जो निशाँ रहते हैं.
उसी को राजगुरु , सुखदेव , भगत कहते हैं.

© अरविंद पाण्डेय 

महाकाल को भी मथकर जो महाप्रलय में करतीं नृत्य.

प्रथमं शैलपुत्री च !

जागृत-जन के लिए सतत जो प्रतिकण में हैं प्रतिपल दृश्य.
कितु,  वही  कालिका , सुप्त को अप्रतीत हैं और  अदृश्य.
महाकाल को  भी  मथकर  जो महाप्रलय में  करतीं नृत्य.
मुझे बोध है मैं उनका प्रिय - पुत्र, और  अनुशासित भृत्य.

© अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 22 मार्च 2012

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.

कृष्णं वन्दे !!

मुझे पता नहीं कि रात है या दिन है अभी, 

बस एक आग है जो खाक किये जाती है .


किसी पहर जो पलक खोल के जहां देखूं,

तो बस लहर सी इक,फलक पे लिए जाती है.


कभी कोयल की कूक सामगान लगती है ,

कभी महकी हवा कुरआन गुनगुनाती हैं .


ये किस मक़ाम पे लाया है मुझे इश्क मेरा ,

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.


© अरविंद पाण्डेय

रविवार, 18 मार्च 2012

बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम ..


शिशु की स्वतःप्रफुल्ल हंसी में दिखे आज तुम श्याम .
स्वतः-सुगन्धित सौम्य सुमन में भी तुम थे अभिराम.
किन्तु, दीन कृश-काय पुरुष में तुम निराश से क्यूँ थे,
बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम !!

© अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.

वासुदेवः सर्वं ! 

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.
मिलीं जो ठोकरें उनसे भी मिला इल्म नया.
बहुत  सी  कोशिशें  हुईं  मुझे   हराने   की,
करम खुदा का, कि शैतान मुझसे हार गया.



सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार...




© अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,.


प्रीस्ट वैलेंटाइन का मृत्यु-दिवस ! 



मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,
खुल कर जो खड़े होते क्लाडिअस के तुम खिलाफ.
ज़ालिम हो सल्तनत तो ज़रा जोर से कहो.
छुप छुप के इन्कलाब कोई इन्कलाब है.


© अरविंद पाण्डेय




सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार ..

मैं प्रीस्ट वैलेंटाइन द्वारा क्लादिअस के मानवता-विरोधी क़ानून का छुप कर उल्लंघन किये जाने को नापसंद करता हूँ.. उन्हें गांधी जी की तरह खुल कर सिविल नाफरमानी -- सविनय अवज्ञा करनी चाहिए थी..

 अरविंद पाण्डेय