गुरुवार, 22 मार्च 2012

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.

कृष्णं वन्दे !!

मुझे पता नहीं कि रात है या दिन है अभी, 

बस एक आग है जो खाक किये जाती है .


किसी पहर जो पलक खोल के जहां देखूं,

तो बस लहर सी इक,फलक पे लिए जाती है.


कभी कोयल की कूक सामगान लगती है ,

कभी महकी हवा कुरआन गुनगुनाती हैं .


ये किस मक़ाम पे लाया है मुझे इश्क मेरा ,

कि जिंदगी भी जश्न-ए-मौत अब मनाती है.


© अरविंद पाण्डेय

रविवार, 18 मार्च 2012

बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम ..


शिशु की स्वतःप्रफुल्ल हंसी में दिखे आज तुम श्याम .
स्वतः-सुगन्धित सौम्य सुमन में भी तुम थे अभिराम.
किन्तु, दीन कृश-काय पुरुष में तुम निराश से क्यूँ थे,
बोलो क्या रहस्य है इस मायामय - जग का , राम !!

© अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.

वासुदेवः सर्वं ! 

हर एक गम जो मिला वो मुझे तराश गया.
मिलीं जो ठोकरें उनसे भी मिला इल्म नया.
बहुत  सी  कोशिशें  हुईं  मुझे   हराने   की,
करम खुदा का, कि शैतान मुझसे हार गया.



सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार...




© अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,.


प्रीस्ट वैलेंटाइन का मृत्यु-दिवस ! 



मैं खुद भी साथ चल रहा होता तुम्हारे, प्रीस्ट,
खुल कर जो खड़े होते क्लाडिअस के तुम खिलाफ.
ज़ालिम हो सल्तनत तो ज़रा जोर से कहो.
छुप छुप के इन्कलाब कोई इन्कलाब है.


© अरविंद पाण्डेय




सभी मित्रों का स्वागत और नमस्कार ..

मैं प्रीस्ट वैलेंटाइन द्वारा क्लादिअस के मानवता-विरोधी क़ानून का छुप कर उल्लंघन किये जाने को नापसंद करता हूँ.. उन्हें गांधी जी की तरह खुल कर सिविल नाफरमानी -- सविनय अवज्ञा करनी चाहिए थी..

 अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

तू ही तू बस रहा है दिल के आशियाने में

वासुदेवः सर्वं


हुए हैं रहनुमा बहुत से इस ज़माने में,
सजे हैं शेर नाज़नीं कई , अफसाने में.
मगर तू राह भी,मंजिल भी, रहनुमा भी है .
तू ही तू बस रहा है दिल के आशियाने में.

  अरविंद  पण्डेय 

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

फिरदौस की महकी फिजा जैसी.


वासुदेवः सर्वं 

तेरे  तन  पर  तो  बस  परियां  ही परियां उड़ रही है.
तू  अब तो  हो गई फिरदौस की महकी  फिजा जैसी.
ज़मीन-ओ-ख़ाक  पर  तेरा उतरना है बहुत मुश्किल,
ये कैसा हुआ ये फासला कैसे , हुई  ये इब्तदा  कैसी.

© अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

रोशन चिरागों को बचाता हूँ...



कभी खुद मैं ही बन कर आँधियां दीपक बुझाता हूँ.
कभी फानूस बन, रोशन चिरागों को बचाता हूँ.
अंधेरा भी कभी बनकर सुलाता हूँ जहाँ को मैं,
मैं ही बन रोशनी सूरज की,गुलशन को सजाता हूँ.


© अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं



महात्मा गांधी के साथ श्री सुभाषचंद्र बोस  तथा जवाहर लाल नेहरू 


मैं गांधी, जिसको लोग महात्मा कहते हैं.
मैं रहा यूँ कि ज्यूँ आम नागरिक रहते हैं.
डरते थे  मुझको देख, फिरंगी बेचारे. 
जैसे बकरी का झुण्ड, शेर को देख डरे.

चंपारण मे है गाँव एक साठी नामक.
करते खेतों में वहां परिश्रम,लोग, अथक.
पर,अंग्रेजों के क्रूर लोभ का पार नहीं..
अपनी ज़मीन पर खेती का अधिकार नहीं.

मैंने बिहार के लोगो को संगठित किया.
पौरुष-परिपूर्ण अहिंसा का अभिमन्त्र दिया.
फिर, झारखंड के सिद्धो-कान्हो  के जैसा.
था असहयोग सब ओर, कड़कती बिजली सा.

 अंग्रेजों की दहशतगर्दी की नींव हिली. 
चंपारण के तूफां से रानी भी दहली.
भितिहरवा में आश्रम लोगो ने बना दिया.
छः माह वहीं मैंने आन्दोलन-यज्ञ किया.

मैंने चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन से.
सीखा था सविनय-अवज्ञान, अर्पित मन से.
नदिया में कोतवाल की आज्ञा को ठुकरा.
कीर्तन करता, प्रभु जी का था जुलूस निकला.

मैंने सीखा श्री रामायण - पारायण से.
सत्याग्रह का रणनीति-ज्ञान, रामायण से.
थे तीन दिनों तक राम स्वयं सत्याग्रह पर.
प्रार्थना-निरत सागर से, सागर के तट पर.

जब विनय नहीं माना समुद्र अभिमानी ने.
जब मार्ग नहीं छोड़ा सागर के पानी ने.
तब कमल-नयन के नयन,अग्नि से दहक उठे.
कोमल-शरीर श्री राम,सूर्य से भभक उठे.

मैं जीवन भर था रहा अहिंसा का साधक.
पर, कभी नहीं था शौर्य-प्रदर्शन में बाधक.
जो भय के कारण हिंसा को अपनाते हैं.
वे कभी वास्तविक वीर नहीं कहलाते हैं.

मैंने सुखदेव, भगत से अतिशय प्यार किया.
पर, उनकी हिंसा को भी अस्वीकार किया.
मैंने चाहा सुभाष, नेहरू के साथ चलें.
पर, दुःख ! सुभाष, रास्ते पर एकाकी निकले. 

चंपारण से जो शुरू हुआ था अश्वमेध.
वह पूर्ण हुआ सैंतालिस में कर,लक्ष्य-वेध.
भारत,स्वतंत्र हो उगा, सूर्य सा चमक उठा.
अपने हांथो में ही अब अपना शासन था.

 मैं एक बात अब दुःख से कहना चाहूंगा.
भितिहरवा के बारे में यह बतलाउगा.
वह दुनिया का पर्यटन केंद्र बन सकता था.
पिछड़ा बिहार, मुद्रा अर्जित कर सकता था.

अपने भारत के सफल राजनीतिग्य सभी.
भितिहरवा की यात्रा करते हैं नहीं कभी.
सबके मन में है भरा अंधविश्वास यही.
जो गया वहां,सत्ता-च्युत होगा शीघ्र वही.

मैंने सुन रखा है बिहार कुछ बदल रहा.
ईमान भरा है  एक व्यक्ति, इस वक्त वहां.
कोई उस तक मेरा सन्देश अगर दे दे.
विश्वास मुझे , शायद वह कुछ ना कुछ कर दे.
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मैं वर्ष  २००५  में चंपारण क्षेत्र का डी आई  जी था.
भितिहरवा आश्रम की तीर्थयात्रा पर मैं जब जाने लगा तो मुझसे मेरे एक सहकर्मी ने कहा ,
 'सर, वहां कोई साहब लोग नहीं जाते .कोई नेता भी नहीं जाता.वहां जाने से कुर्सी चली जाती है ..'
मै कुछ मुस्कुराया .फिर,कुछ रूककर कहा ,' चलो गांधी जी से ही पूछेंगे कि वे क्यों कुर्सी ले लेते हैं भितिहरवा दर्शनार्थियों की..वैसे मेरी कुर्सी भी छोटी ही है .चली भी जायेगी तो गांधी जी से जिद करके इससे बड़ी कुर्सी ले लेगे.'
मैंने वहां  की आगंतुक-पंजी में कुछ लिखा और देखा तो बरसों बरस तक के पृष्ठों मे किसी अधिकारी का आगंतुक के रूप में हस्ताक्षर नहीं मिला..
किसी राजनीतिग्य का भी..
श्री चंद्रशेखर जी का मैं सादर स्मरण कर रहा इस प्रसंग में क्योंकि वे भितिहरवा आश्रम गए थे और वहां कुछ निर्माण कार्य भी कराया था.
एक बात का उल्लेख ज़रूरी है..भितिहरवा आश्रम की यात्रा के कुछ ही दिनों बाद चंपारण क्षेत्र के डी आई जी पद से मेरा स्थानान्तरण हुआ. किन्तु , महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से, मैं मगध क्षेत्र (गया ) के डी आई जी पद पर पदस्थापित किया गया.. महात्मा गांधी की  अहिंसा-साधना की विचार-गंगोत्री बोधगया .. अमिताभ बुद्ध.. मेरा स्वप्न पूरा हुआ-बुद्ध के निकटतम रहने का..उस भूमि को प्रतिदन स्पर्श करने का जहां कभी राजकुमार सिद्धार्थ, ज्ञान-पिपासा से विकल होकर आये थे और परम ज्ञान प्राप्त कर सर्वव्यापी बुद्ध होकर लौटे थे..
मेरा चंपारण से बोधगया जाना  महात्मा गांधी का हस्तक्षेप ही था .क्योंकि बाद में मुझे बताया गया कि प्रस्तावक ने मुझे मुख्यालय  में रखने का प्रस्ताव दिया था किन्तु जिसे निर्णय लेना था, उनके शब्द थे-''इन्हें यहाँ रखने का प्रस्ताव क्यों  दे रहे हैं.ये तो टफ आफिसर हैं.इन्हें गया मे कीजिये..''
और इस तरह मैं गया का डी आई जी बना.
चंपारण से मैंने  अहिंसक पुलिसिंग का अपना अभियान तेज़ किया.दोनों विवाद-ग्रस्त पक्षों को प्रेरणा देकर अब तक  हज़ारों भूमि-विवाद के मुकदमे ख़त्म कराये..झूठे मुकदमों में उलझे हुए दोनों पक्षों को गले मिलाया...

और अंत में, भितिहरवा  आश्रम और कामनवेल्थ गेम मे खर्च हो रहे धन और निवेश की गई रूचि की तुलना करना उपलक्षणीय है..
तथास्तु !!!!!

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 18 जनवरी 2012

दीख रहा है सांत, अनंत.


देश-काल से परिच्छिन्न हो,
दीख रहा है सांत, अनंत.
समय-चक्र का सतत चक्रमण ,
बना रहा आवरण दुरंत .

घूर्णित-पृथ्वी संग मनुज यह,
नियति-विवश होता है अस्त.
किन्तु,तरणि-दर्शन में अक्षम ,
कहता , सूर्य हुए हैं अस्त .
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सभी मित्रों को सुप्रभात .. 

आज की कविता मनुष्य द्वारा कहे जाने वाले उस सबसे प्रचलित किन्तु अशुद्ध प्रयोग के मिथ्यात्व को दर्शित करती है जिसमें कहा जाता है कि सूर्य अस्त हो गए.. वास्तविकता यह है कि हम स्वयं, पृथ्वी की परिधि में विवश , पृथ्वी के साथ घूर्णन कर रहे होते हैं और एक विन्दु पर, सूर्य का दर्शन निरुद्ध हो जाता है .. वातव में, हम स्वयं पृथ्वी के साथ अस्त हो जाते हैं किन्तु कहते है कि सूर्य अस्त हो गए.. चिंतन का विषय... 


--  अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मैं हूँ नरेन्द्र, भारत का चिर जागृत विवेक !

१.
मैं हूँ नरेन्द्र, भारत का चिर-जागृत विवेक.
मैं कण कण में प्रतिभास रहा, हूँ किन्तु एक.

मैं काल-पाश से परे अमृत, अक्षर, अकाल.
आकाश,  नाभि है, स्वर्ग, वक्ष मेरा विशाल.

मैं रामकृष्ण का पुत्र, राम मेरा विराम.
मैं नाम-रूप सा दीख रहा,पर हूँ अनाम.

२.
इस्लाम, देह मेरी , आत्मा हिंदुत्व प्रखर .
जीसस की करूणा रक्त बनी मेरे अन्दर.

मैं अग्नि यहोवा का, नानक का अमृत सबद.
शास्त्रार्थ-दीप्त शंकराचार्य का सात्विक मद.

मैं कृष्ण-प्रेयसी   मीरा का मादक नर्तन,
मैं ही कबीर ,चैतन्यदेव  का संकीर्तन 
३.
मैं हिंद-महासागर का हूँ घन-घन गर्जन.
मैं ही देवात्म हिमालय का नंदन कानन.

मैं काली की कृष्णता, शुभ्रता, शिव की  हूँ.
मैं पञ्च-प्राण बन, प्राणी में अनवरत  बहूँ.

मैं नित्य, त्रिकालाबाधित,शाश्वत सत्ता हूँ.
मैं महाविष्णु के  मन की मधुर महत्ता हूँ.



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स्वामी विवेकानन्द  अंगरेजी साहित्य की कक्षा में, एकाग्र मन से, अपने प्राध्यापक श्री हेस्टी का वक्तव्य सुन रहे थे..श्री हेस्टी उस समय विलियम  वर्ड्सवर्थ की प्रकृति संबंधी कविताओं की वास्तविक दिव्यता को व्यक्त करने का प्रयास करते हुए यह कह रहे थे की प्रकृति के सान्निध्य में , मनोरम उपवनों, वन-प्रान्तरों ,लता-गुल्मों के मध्य अपनी ध्वनि-सुगंध विस्तीर्ण करती हुई कोयल जैसी सुरीली प्राणवती  पुष्प-कलिकाओं  को देख कर वर्ड्स वर्थ  समाधिस्थ हो जाते थे और उस समाधि से वापस आने पर वे कवितायें लिखते थे.इसीलिये उनकी कवितायें इतना गहन प्रभाव डालती हैं.........
श्री हेस्टी ने यह भी कहा कि अगर इस भाव् -समाधि को प्रत्यक्ष देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण परमहंस को जाकर देखो.......................................
और यही से नरेन्द्रनाथ का मन श्री रामकृष्ण के दर्शन , उनकी भाव् -समाधि के प्रत्यक्षीकरण के लिए व्याकुल होता है..
वे अवसर देखते है कि कैसे उनसे मिला जाय.. जिस सत्य का ,, निरपेक्ष सत्य का, अतीन्द्रिय सत्य का , अज्ञेय सत्य का ज्ञान वे करने के लिए तड़प रहे थे , उन्हें लगा कि अब वह क्षण निकट है..और अंततः वह क्षण आता है जब वे श्री रामकृष्ण के निकट जाते हैं और नरेन्द्रनाथ  से स्वामी विवेकानन्द के रूप में उनका जन्म होता है ..


In my adolescence , I used to study Shri Ramkrishna Vachanaamrit every night before sleep and used to dream to be A Sanyaasi like Swami Vivekanand but Alas ! I failed to be ... 
Destiny Dragged me into Indian Police Service.
My Lust to be A Sanyasi will be alive until it happens..
I know I have to come to this earth again to meet my desire..!! 
हरिः शरणं 

----अरविंद पाण्डेय