सोमवार, 20 जून 2011

नयन पी रहे श्री राधा जी के होठों की लाली


मंद पवन है,यमुना तट है,पुलकित हैं वनमाली.
नयन  पी रहे श्री राधा जी के होठों की लाली.
देख,देख कर उन्हें, पुलक में, वंशी मधुर बजाते.
उनको छू, जो धूल उड़ रही, माथे उसे लगाते.



गीतगोविन्दं : जयदेव 
नामसमेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुं.
बहु मनुतेsतनु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुं ....

-- अरविंद  पाण्डेय



शनिवार, 18 जून 2011

Here, suddenly, silent sun disappeared..


Here, suddenly, silent sun disappeared,
Chirping birds astonished abruptly and feared.

Wild winds came to welcome weary woods.
And, returned to me with dusty goods.

Roaring clusters of clouds are dropping,
Dashing pellets of rain with a sound of throbbing. 

I witness, how darkness draggles and leaves the light behind,
If clumsy clusters of clouds, cover the human mind.

Aravind Pandey


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गुरुवार, 16 जून 2011

त्याग गुरुत्वाकर्षण,मन,अम्बर में तैर रहा है.


१ 
पूर्ण चन्द्र हैं , शुभ्र चंद्रिका नृत्य-निरत अविराम.
अम्बर में अशेष तारक-गण हैं विकसित अभिराम.
त्याग गुरुत्वाकर्षण , मन, अम्बर में तैर रहा है .
धरती और गगन में कोई अंतर नहीं रहा है.

२ 
घन-प्रकाश अब ,पिघल,ज्योति-सरिता बन,बह निकला है.
कल कल करती कला चन्द्र की , परमानंद-फला है.
दृश्य, श्रव्य, संस्पर्श-योग्य, सब एक तत्त्व में परिणत.
शुद्ध,  एकरस सत्ता दीपित,  है  अभेद अव्याहत.

३ 
टूट गया देहाभिमान, अब द्वैत मिटा माया का.
शुष्क-पत्र सा गिरा,उड़ गया भान,मृषा छाया का.
सत्य,सत्त्व-घन ब्रह्म शेष,चिन्मय,चिद्घन,निष्कल है 
एकमेव है, अद्वितीय है , अप्रमेय , अविकल है.





रविवार, 12 जून 2011

तोड़ेगा,अब,इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को.


स्वामी  जी  के  साथ अरविंद पाण्डेय .
मुजफ्फरपुर.बिहार.२००८
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१ 
तोड़ेगा अब, इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को .
इस बार हिरन का बच्चा भी पटकेगा पागल हाथी को.
तुम मत समझो जनता अब आंसू-गैस देखकर रो देगी .
इस बार तिरंगा लेकर फिरते नौजवान की जय होगी.

2
अब और न होगा फिर शहीद अनशन से यहाँ जतीन्द्र नाथ.
हम तुम्हे करायेगें अनशन,रिश्वत को,गर,फिर बढे हाँथ. 
है समय अभी,अब बदलो तुम, अपने अपवित्र विचारों को.
अब सहन नहीं कर पाओगे, अपनी कृपाण की धारों को.

3
हम जिएं गरीबी रेखा के नीचे , तुम पांच सितारा में,
हर रोज़ शाम को नहलाते खुद को, मदिरा की धारा में.
हमको अपना चेहरा धोने को स्वच्छ-सलिल के लाले हैं.
तुम अपने चेहरों को रंगते जो भ्रष्ट-कर्म से काले हैं.

४ 
हम पैदल चलते जब सडकों में, दुर्घटना में मरते हैं.
तुम उड़कर जाते हो विदेश,स्विस-बैंक तुम्हीं से भरते हैं.
चीनी,जापानी मालों से भरता बाज़ार हमारा है.
काला-सफ़ेद जो भी धन है , वह बाहर जाता सारा है.

५ 
अब परदे के पीछे से शासन नहीं चलेगा भारत का. 
यह है अशोक-अक़बर की धरती,छोडो शौक़ तिजारत का.
तुमने,भारत में ही रहकर,गांधी का है अपमान किया.
अब छोड़ चले जाओ खुद, रहना है तो सीखो नौलि-क्रिया.

६ 
ईमान सहित जीने की खातिर सीखो प्राणायाम यहाँ.
तुम सांस ले रहे यहाँ,किन्तु ,क्यूँ भेज रहे संपत्ति वहां.
कुछ डरो क़यामत के दिन से,जब न्याय करेगा परमेश्वर.
उस वक़्त तुम्हारे साथ न  होगी. साथ यहाँ  है जो लश्क़र.

७.
हर प्रश्न वहां  बेरोक-टोक, तुमसे ही  पूछा जाएगा .
उत्तर देने को कोई प्रवक्ता, वहां नहीं फिर आयेगा.
बेलौस कुफ्र करने वाले पहले से दोज़ख में होगें.
जो यहाँ नेक-नीयत हैं वे जन्नत में घूम रहे होंगे. 
  

गुरुवार, 9 जून 2011

''सेना'' की आवश्यता क्या ,सेनाएं सभी हमारी हैं.


''सेना'' की आवश्यता क्या  ,सेनाएं सभी हमारी हैं.
जल,थल,अम्बर में शान्ति हेतु अपनी पूरी  तैयारी है.
ये पुलिस,अर्ध-सैनिक बल भी अपनी रक्षा के लिए बने  .
तुम बढ़ो अहिंसा के पथ पर , नेतृत्व इसे अपना देने .

निज संविधान में,हम भारत के लोगों ने उपबंध किए.
जो विधि-विधान का अनुसारी,वह जन,बिलकुल स्वच्छंद जिए.
निर्वाचन अपना कुरुक्षेत्र, मतदान शस्त्र अपना घातक . 
फिर, करो प्रतीक्षा धीर,बढ़ो पथ पर,विवेक के साथ,अथक.

यह  देश, कृष्ण के कर्मयोग की श्वास लिए जीवन जीता .
अमिताभ बुद्ध के आर्य-सत्य का जल,प्रतिदिन सुख से पीता.
इस्लाम हमारा है शरीर ,  वेदान्त हमारी आत्मा है.
इस  दुनिया में हमने देखा जन-जन में बस,परमात्मा है.

हमलोग मनुज में प्रकट हुए परमात्मा का पूजन करते .
अस्तेय,अहिंसा ,सत्य ,शौच ,अपरिग्रह को धारण करते.
कण-कण,जन-जन हो भय-विमुक्त,बस यही हमारी  निष्ठा है.
बस, इन्हीं गुणों से विश्व-मंच पर अपनी दीप्त प्रतिष्ठा है.


-- अरविंद   पाण्डेय     

रविवार, 5 जून 2011

हर लाठी जो सत्याग्रह पर चलती,गांधी को लगती है.


फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.
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इतिहास साक्षी है इसका ,
सत्ता की लाठी से अक्सर, 
जागा करता है शेष-नाग,
होकर, पहले से और प्रखर .


पर, हर भ्रष्टाचारी खुद को,
बस अपराजेय समझता है.
लाठी-बंदूकों के बल पर 
उठ कर, मिट्टी में मिलता है.


जो संविधान स्वीकार किया 
था हम भारत के लोगो ऩे.
उसको ही लाठी से घायल 
है किया,निडर,फिर से,तुमने.


हर लाठी जो सत्याग्रह पर 
चलती ,गांधी को लगती है.
गांधी जब घायल होता है,
भारत की आत्मा जगती है.


तुमने तो अब अनजाने ही ,
सोए भारत को जगा दिया.
अब तुम्हें भगा, दम लेगें हम,
अंग्रेजो को ज्यूँ भगा दिया.


भारत के पैसों को जब तुम,
स्विस बैंकों में रख आते हो.
हम उसे माँगने निकले हैं,
तो हमको ही धमकाते हो  .


हमने तुमसे अनुमति लेकर ,
सत्याग्रह था प्रारम्भ किया.
जब तुम इतना डरते थे,फिर,
दिल्ली क्यूँ आने हमें दिया.


जब शस्त्र-हीन सम्मलेन का  ,
मौलिक अधिकार हमारा है.
फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.

दुनिया के देशो से भारत
 जो  कर्ज़ मांगता फिरता है .
तब , तुम जैसे गद्दारों के ,
चेहरों  पर फूल महकता है.


तुम लाठी गोली रखते हो ,
हम अपना सीना रखते है.
रौंदों जितना तुम रौंद सको,
है शपथ तुम्हें, हम कहते हैं.

सीने पर गोली अगर चली ,
वह लौट तुम्हीं को छेदेगी
अपना सीना लोहे का है,
गोली अपना क्या कर लेगी.

अब देख, भयंकर शेषनाग 
से भारत ने  ललकारा  है -
जो धन रक्खा स्विस बैंकों में,
वह सारा, सिर्फ हमारा है.


-- अरविंद पाण्डेय 

शुक्रवार, 3 जून 2011

हरिक लड़की,अगर ताकत है,फिर देवी सी दिखती है.



अकेले वो पडा करता है जो कमज़ोर होता है.
ये जो कमज़ोर,वो लड़की या फिर लड़का नहीं होता.
हमारे मुल्क में ही हैं करोड़ों लडकियां ऐसी .
कि जिनके सामने ''लड़का'' हो पर,''लड़का'' नहीं होता.

हरिक लड़की, अगर ताकत है, फिर देवी सी दिखती है.
अगर ''औरत'' का हो कुछ फख्र,फिर,तकदीर लिखती है.
हरिक चौराह पर लडके उसी का ज़िक्र करते हैं.
हरिक महफ़िल में बस उसकी हसीं  तस्वीर सजती है.

शनिवार, 28 मई 2011

सावरकर को शत बार नमन.




अंग्रेजों के वक्षस्थल पर जो गरज उठा - हम हैं स्वतंत्र .
''अत्याचारों के नाश हेतु अब क्रांति उचित''-का दिया मन्त्र.
अपनी बन्दूको से फिर तो थी बरस  उठी गोली घन घन.
उस अमर विनायक दामोदर सावरकर को शत बार नमन.

-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 24 मई 2011

I honored them with my lips.



Today, in the warm noon,
You touched me with powerful innocence.
I feel embraced by summer flowers ,
 full of sweet essence.

I looked at your sandal colored feet,
enriched by rosy strips.
And, in my fancy, 
I honored them with my lips. 

-- Aravind Pandey 

शुक्रवार, 6 मई 2011

जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया...


पृष्ठ - दो 

५ 
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.

६ 
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब  मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.

काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत  पडी हो.

८ 
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.

(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)

-- अरविंद पाण्डेय .

शब्दार्थ:

मृषा = मिथ्या 
अवगुंठ=घूँघट