रविवार, 12 जून 2011

तोड़ेगा,अब,इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को.


स्वामी  जी  के  साथ अरविंद पाण्डेय .
मुजफ्फरपुर.बिहार.२००८
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१ 
तोड़ेगा अब, इस बार, लाजपत राय, तुम्हारी लाठी को .
इस बार हिरन का बच्चा भी पटकेगा पागल हाथी को.
तुम मत समझो जनता अब आंसू-गैस देखकर रो देगी .
इस बार तिरंगा लेकर फिरते नौजवान की जय होगी.

2
अब और न होगा फिर शहीद अनशन से यहाँ जतीन्द्र नाथ.
हम तुम्हे करायेगें अनशन,रिश्वत को,गर,फिर बढे हाँथ. 
है समय अभी,अब बदलो तुम, अपने अपवित्र विचारों को.
अब सहन नहीं कर पाओगे, अपनी कृपाण की धारों को.

3
हम जिएं गरीबी रेखा के नीचे , तुम पांच सितारा में,
हर रोज़ शाम को नहलाते खुद को, मदिरा की धारा में.
हमको अपना चेहरा धोने को स्वच्छ-सलिल के लाले हैं.
तुम अपने चेहरों को रंगते जो भ्रष्ट-कर्म से काले हैं.

४ 
हम पैदल चलते जब सडकों में, दुर्घटना में मरते हैं.
तुम उड़कर जाते हो विदेश,स्विस-बैंक तुम्हीं से भरते हैं.
चीनी,जापानी मालों से भरता बाज़ार हमारा है.
काला-सफ़ेद जो भी धन है , वह बाहर जाता सारा है.

५ 
अब परदे के पीछे से शासन नहीं चलेगा भारत का. 
यह है अशोक-अक़बर की धरती,छोडो शौक़ तिजारत का.
तुमने,भारत में ही रहकर,गांधी का है अपमान किया.
अब छोड़ चले जाओ खुद, रहना है तो सीखो नौलि-क्रिया.

६ 
ईमान सहित जीने की खातिर सीखो प्राणायाम यहाँ.
तुम सांस ले रहे यहाँ,किन्तु ,क्यूँ भेज रहे संपत्ति वहां.
कुछ डरो क़यामत के दिन से,जब न्याय करेगा परमेश्वर.
उस वक़्त तुम्हारे साथ न  होगी. साथ यहाँ  है जो लश्क़र.

७.
हर प्रश्न वहां  बेरोक-टोक, तुमसे ही  पूछा जाएगा .
उत्तर देने को कोई प्रवक्ता, वहां नहीं फिर आयेगा.
बेलौस कुफ्र करने वाले पहले से दोज़ख में होगें.
जो यहाँ नेक-नीयत हैं वे जन्नत में घूम रहे होंगे. 
  

गुरुवार, 9 जून 2011

''सेना'' की आवश्यता क्या ,सेनाएं सभी हमारी हैं.


''सेना'' की आवश्यता क्या  ,सेनाएं सभी हमारी हैं.
जल,थल,अम्बर में शान्ति हेतु अपनी पूरी  तैयारी है.
ये पुलिस,अर्ध-सैनिक बल भी अपनी रक्षा के लिए बने  .
तुम बढ़ो अहिंसा के पथ पर , नेतृत्व इसे अपना देने .

निज संविधान में,हम भारत के लोगों ने उपबंध किए.
जो विधि-विधान का अनुसारी,वह जन,बिलकुल स्वच्छंद जिए.
निर्वाचन अपना कुरुक्षेत्र, मतदान शस्त्र अपना घातक . 
फिर, करो प्रतीक्षा धीर,बढ़ो पथ पर,विवेक के साथ,अथक.

यह  देश, कृष्ण के कर्मयोग की श्वास लिए जीवन जीता .
अमिताभ बुद्ध के आर्य-सत्य का जल,प्रतिदिन सुख से पीता.
इस्लाम हमारा है शरीर ,  वेदान्त हमारी आत्मा है.
इस  दुनिया में हमने देखा जन-जन में बस,परमात्मा है.

हमलोग मनुज में प्रकट हुए परमात्मा का पूजन करते .
अस्तेय,अहिंसा ,सत्य ,शौच ,अपरिग्रह को धारण करते.
कण-कण,जन-जन हो भय-विमुक्त,बस यही हमारी  निष्ठा है.
बस, इन्हीं गुणों से विश्व-मंच पर अपनी दीप्त प्रतिष्ठा है.


-- अरविंद   पाण्डेय     

रविवार, 5 जून 2011

हर लाठी जो सत्याग्रह पर चलती,गांधी को लगती है.


फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.
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इतिहास साक्षी है इसका ,
सत्ता की लाठी से अक्सर, 
जागा करता है शेष-नाग,
होकर, पहले से और प्रखर .


पर, हर भ्रष्टाचारी खुद को,
बस अपराजेय समझता है.
लाठी-बंदूकों के बल पर 
उठ कर, मिट्टी में मिलता है.


जो संविधान स्वीकार किया 
था हम भारत के लोगो ऩे.
उसको ही लाठी से घायल 
है किया,निडर,फिर से,तुमने.


हर लाठी जो सत्याग्रह पर 
चलती ,गांधी को लगती है.
गांधी जब घायल होता है,
भारत की आत्मा जगती है.


तुमने तो अब अनजाने ही ,
सोए भारत को जगा दिया.
अब तुम्हें भगा, दम लेगें हम,
अंग्रेजो को ज्यूँ भगा दिया.


भारत के पैसों को जब तुम,
स्विस बैंकों में रख आते हो.
हम उसे माँगने निकले हैं,
तो हमको ही धमकाते हो  .


हमने तुमसे अनुमति लेकर ,
सत्याग्रह था प्रारम्भ किया.
जब तुम इतना डरते थे,फिर,
दिल्ली क्यूँ आने हमें दिया.


जब शस्त्र-हीन सम्मलेन का  ,
मौलिक अधिकार हमारा है.
फिर भी, तुमने हमसे डर कर ,
हिंसा का कहर उतारा है.

दुनिया के देशो से भारत
 जो  कर्ज़ मांगता फिरता है .
तब , तुम जैसे गद्दारों के ,
चेहरों  पर फूल महकता है.


तुम लाठी गोली रखते हो ,
हम अपना सीना रखते है.
रौंदों जितना तुम रौंद सको,
है शपथ तुम्हें, हम कहते हैं.

सीने पर गोली अगर चली ,
वह लौट तुम्हीं को छेदेगी
अपना सीना लोहे का है,
गोली अपना क्या कर लेगी.

अब देख, भयंकर शेषनाग 
से भारत ने  ललकारा  है -
जो धन रक्खा स्विस बैंकों में,
वह सारा, सिर्फ हमारा है.


-- अरविंद पाण्डेय 

शुक्रवार, 3 जून 2011

हरिक लड़की,अगर ताकत है,फिर देवी सी दिखती है.



अकेले वो पडा करता है जो कमज़ोर होता है.
ये जो कमज़ोर,वो लड़की या फिर लड़का नहीं होता.
हमारे मुल्क में ही हैं करोड़ों लडकियां ऐसी .
कि जिनके सामने ''लड़का'' हो पर,''लड़का'' नहीं होता.

हरिक लड़की, अगर ताकत है, फिर देवी सी दिखती है.
अगर ''औरत'' का हो कुछ फख्र,फिर,तकदीर लिखती है.
हरिक चौराह पर लडके उसी का ज़िक्र करते हैं.
हरिक महफ़िल में बस उसकी हसीं  तस्वीर सजती है.

शनिवार, 28 मई 2011

सावरकर को शत बार नमन.




अंग्रेजों के वक्षस्थल पर जो गरज उठा - हम हैं स्वतंत्र .
''अत्याचारों के नाश हेतु अब क्रांति उचित''-का दिया मन्त्र.
अपनी बन्दूको से फिर तो थी बरस  उठी गोली घन घन.
उस अमर विनायक दामोदर सावरकर को शत बार नमन.

-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 24 मई 2011

I honored them with my lips.



Today, in the warm noon,
You touched me with powerful innocence.
I feel embraced by summer flowers ,
 full of sweet essence.

I looked at your sandal colored feet,
enriched by rosy strips.
And, in my fancy, 
I honored them with my lips. 

-- Aravind Pandey 

शुक्रवार, 6 मई 2011

जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया...


पृष्ठ - दो 

५ 
धीरे धीरे श्रान्त सोम ने ढीला किया करों को.
करके समुपभोग सरिता का, वह चल पड़ा क्षितिज को.
तभी, उषा-मुख दर्शन को रवि ने अवगुंठ उठाया.
वह आरक्त हो उठी पाकर , मधु-स्पर्श प्रियतम का.

६ 
चारु-चन्द्र प्रतिबिम्ब मात्र अब पड़ता था सरिता में.
किन्तु,चित्र ही पाकर, वह,उसको शशि समझ रही थी.
होता है प्रतिबिम्ब  मृषा ही,पर , विपरीत यहाँ है.
प्रतिबिम्बों को सत्य मान सब, अनुधावन करते हैं.

काम-विमोहित सरिता प्रतिपल तन को तनिक उठाकर.
रजनीपति-प्रतिबिम्ब पकड़ कर,आलिंगन करती थी.
मानों,कामासक्त कामिनी, मात्र चित्र लिपटाए.
प्रिय की मधुर याद में सुध-बुध खोए,शांत  पडी हो.

८ 
स्वाभाविक गति भूल, आज प्रतिबिम्बों के ही पीछे.
किंकर्तव्य-विमूढ़, विश्व का नर भागा जाता है.
किन्तु,अंत में जब विनष्ट हो जाएगी यह छाया.
पश्चात्ताप मात्र रह जाएगा मनुष्य के कर में.

(यह कविता मैंने सत्रह वर्ष की आयु में लिखी थी..अब , इसे पढ़कर , साश्चर्य मंद-स्मित, मुझे विमुग्ध सा करता है..)

-- अरविंद पाण्डेय .

शब्दार्थ:

मृषा = मिथ्या 
अवगुंठ=घूँघट

सोमवार, 2 मई 2011

मंद मंद बह चला समीरण..


(यह कविता १४/०७/१९८० को लिखी गई थी जो आठ छंदों में है और मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ'' में प्रकाशित है..)
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पृष्ठ - एक
१ 

सरिता का आलिंगन करने नील, सुदूर गगन से.
उस प्रशांत रजनी में शशि, धरती पर उतर पडा था.
अतुलनीय,अमिताभ देह की शुभ्र कांति बरसाकर.
उसने गतिमय सरिता को भी शाशिमय बना दिया था.

२ 

मुक्ति प्राप्त कर रवि की शोषक,संतापक किरणों से.
विहँस रही थी मंद मंद वह अपनी प्राकृत विजय में.
वर्तमान-सुख के सागर में डूबी - उतराई सी.
विगत दुखों को भूल, एक विस्मय सी बनी हुई थी.

३ 

अहं भूलकर, प्रिय के आलिंगन के सुख में डूबी.
उसके चंचल मृदुल करों से मस्त केलि करती थी.
कुमुद-वृन्द के वस्त्र हो रहे अस्त-व्यस्त प्रतिपल थे.
सकल सलिल अनुरागानिल से उर्मिल , अनुकंपित था.


मंद मंद बह चला समीरण उनको कम्पित करता .
लगा गान करने सरिता का रोम-रोम कल स्वर में .
शुभ्र कौमुदी के प्रकाश में उस रसमय रमणी का  .
अंग अंग परिरम्भ-राग से अनुरंजित दिखता था.


( क्रमशः )


--अरविंद पाण्डेय 




सलिल = पानी 
 अनुरागानिल = प्रेम की हवा 
 उर्मिल = लहराता हुआ 
परिरम्भ-राग = आलिंगन का रंग 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति..


स्वप्न :पृष्ठ ९ 
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४५ 
''पूर्ण वसुधा में है परिकीर्ण,
दुःख-सम्मिश्रित सुख का जाल.
अतः,इनमे रहता जो तुल्य,
लांघता वह संसृति का जाल.''

४६ 
''सतत निस्पृहता से जो व्यक्ति,
नित्य करता रहता सत्कर्म.
वही है योगी की प्रतिमूर्ति,
उसी में बसा वास्तविक धर्म.''

४७ 
''हलाहल पीने के भी बाद,
बना रहता है जिसका स्वत्व.
महायोगी पशुपति के तुल्य,
प्राप्त करता है वही शिवत्व.''


४८ 
''कामना का आच्छादन भेद,
प्राप्त करता है नर,सत्त्व.
शीघ्र ही ताज माया निर्मोक,
जान लेता वह मेरा तत्त्व.''

४९  
''चतुर्दश विद्याओं के बीच,
एक मेरा स्वरुप है व्याप्त.
सतत विद्यार्जन में संलग्न,
मनुज मुझको करता है प्राप्त.''

५० 
''मात्र मैं ही हूँ जग की शक्ति,
शक्त जो होता है निष्काम.
सूर्य-मंडल को भी वह भेद,
देख लेता मत्पथ उद्दाम .''

५१ 
''याद रखना ये मेरे शब्द,
वत्स, हे मेरे प्रियतम शिष्य.
देख मचला जाता प्रत्यक्ष,
मोदमय तेरा कान्त भविष्य.''

५२ 
तभी वह मृदुला वत्सल मूर्ति,
हो गई सहसा अंतर्धान.
दानकर मुझे प्रेम-संलिप्त,
एक पावक समदृश  शुचि ज्ञान.

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स्वप्न शीर्षक  ५२ छंदों की इस काव्यमाला का यह अंतिम पुष्प था..

-- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

पान करता था, रूप-मरंद .


मुख-कमल का बस, मैं, बन, भृंग ,
पान करता था, रूप-मरंद .
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स्वप्न :पृष्ठ ८ 
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३७
खडा था मैं आनंद-विभोर,
चपल मन के सब पट थे बंद.
मुख-कमल का बस, मैं, बन, भृंग ,
पान करता था, रूप-मरंद .

३८
 तभी, माँ,मधुराधर को खोल,
मृदु वचन बोलीं, मुझे निहार.
बह उठी थी मानों सर्वत्र,
सुधाकर से अमृत की धार--

३९  
'' क्रांत-दर्शी कवि-दृष्टि समान,
नहीं है मेरा कोई अंत.
व्यापता है बस जग में नित्य,
एक मेरा ही रूप अनंत.

४० 
''गगन के ये सुन्दर श्रृंगार,
सूर्य,तारक,एवं शशकांत.
प्राप्त कर, मेरी एक मरीचि,
सदा हंसते हैं, होकर कान्त.''

४१ 
''मधुर मेरे विहसन के संग,
मुदित हँसने लगती है सृष्टि.
तनिक, यदि',  मुझको आता क्रोध,
प्रलय की होने लगती वृष्टि .''

४२
''देखकर मेरा दिव्य-स्वरुप,
भक्ति में परिणत होता ज्ञान.
सिद्ध योगी में भी तत्काल,
सृष्ट होता मेरा संधान .''

४३
''बुद्धि-अनुशासित-मानस बीच,
सतत, मैं करती मोहक लास्य.
क्रोध-विरहित-मानव ही मात्र,
देख सकता है मेरा हास्य.''

४४
''काम-आसक्त मनुज को शीघ्र,
नष्ट करता है उसका क्रोध.
काम से मानव का राहित्य,
दान करता है उसे सुबोध .''

क्रमशः 

-- अरविंद पाण्डेय