शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

यहाँ भी रात, सितारों से इश्क करती है.

शेक्सपीयर की मिरांडा 

तुम्हें  निहारने को खिल के हंस रहे हैं गुल .
गुलों के दिल का  कुछ ख़याल तो करना होगा.
मेरे लिए न सही, मैं तो यूँ ही कहता हूँ.
तुम्हें इनके ही लिए अब यहाँ आना होगा.

सुबह यहाँ भी तो मदहोश हवा बहती है.
सुबह यहाँ भी शम्स आसमां पे खिलता है.
यहाँ भी रात, सितारों से इश्क करती है.
यहाँ भी शाम से शर्मा के चाँद मिलता है.

तुम्हारे दिल सा  समंदर यहाँ लहराता है.
तुम्हारे हुस्न सी हसीं यहाँ  फिजाएं हैं.
तुम्हारी ज़ुल्फ़ सा महका हुआ चमन भी है.
तुम्हीं सी शोख यहाँ रुत की कुछ अदाएं हैं.

--- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 21 नवंबर 2010

अक्षर-रमणी के साथ हुआ मेरा विवाह



१ 
मैं महामृत्यु का मित्र, गगन है मेरा पथ.
इस संसृति का मिथ्यात्वज्ञान है मेरा रथ
मैं महाकाल की गति से सत्ता में विचरूं
मैं महाशून्य में सृष्टि-कर्म की प्यास भरूँ.

मैं शुद्ध बुद्धि, मैं शुद्ध सत्य, मैं शुद्ध काम.
मैं नामरूप का सृजन करूं ,रहकर अनाम.
मैं नभ से भू पर उतर रही  गंगा का जल.
प्रक्षालित कर भूतेश-जटा को करूं सरल.
आकाश-चारिणी गंगा सा मेरा प्रवाह.
अक्षर-रमणी के साथ  हुआ मेरा विवाह.

मैं हूँ अनंत का चुम्बन करती अग्निशिखा.
मैंने समस्त संसृति का भावी भाग्य लिखा.
मैं जीव जीव में जीवन भरता सविता हूँ.
मैं महाप्रकृति की सबसे सुन्दर कविता हूँ.
मेरा ही रस पीकर होती संसृति, रसाल.
मेरा दर्शन कर परम क्षुद्र होता विशाल.

मैं प्राण भरूँ तो जीवन पाता पंचभूत.
मेरी सत्ता ही जड़-चेतन में अनुस्यूत .
शत-कोटि सूर्य सा फैल रहा मेरा प्रकाश.
जो पलक गिरे मेरी तो होता सृष्टि-नाश.
इस दृश्य-विश्व की सत्ता का मैं हूँ कारण.
मैं जगद्योनि का सृष्टि-कर्म में करूं वरण.

मैं महापुरातन,चिर-नूतन,प्रतिपल अभिनव.
मैं परम-स्फोट,मैं परम शांत मैं महा-प्रणव. 

यह कविता , वेदान्त-साधना के  सर्वोच्च शिखर  निर्विकल्प समाधि  के ठीक पहले की अवस्था - अखंड ब्रह्माकाराकारित चित्तवृत्ति --  को शब्दांकित करने का प्रयास करती है..
जो इसे मनन कर समझ पाए वे स्वयं भी उस अनुभूति के परमानंद का कण रसास्वादित कर धन्य होगें..

-अरविंद पाण्डेय