रविवार, 18 अक्तूबर 2009

आओ कुछ दीप-पुंज , ऐसा प्रज्ज्वलित करें ,

ऋषियों के ज्ञान के प्रकाश में ,

आओ कुछ दीप-पुंज ,

ऐसा प्रज्ज्वलित करें ,

जो इस धरती माँ का ,

घना अन्धकार हरे ...



----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 2 जून 2009

मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों..मैं नारी हूँ...3







श्री दुर्गा पूजा के महापर्व पर विश्व की सभी शक्ति-स्वरूपिणी नारियों को समर्पित.3
६ .
मैंने अपनी निजता का निर्भय किया दान.
प्रज्ज्वलित-अग्नि में कर प्रवेश, मैं थी अम्लान.

मैं नहीं चाहती थी निन्दित रघुनन्दन हों.
था स्वप्न - राम का सार्वभौम अभिनन्दन हो.

इसलिए, सहज निर्वासन था स्वीकार मुझे.
अन्यथा, राम क्या करते अस्वीकार मुझे?
७.
मैंने तमसा-तट पर लक्ष्मण से कहा -तात !
श्री राम बनें आदर्श चक्रवर्ती सम्राट .

वे करें प्रजा-पोषण सोदर भाई समान.
जीवन उनका, यश,धर्म,कीर्ति का हो निधान.

कहना उनसे- मैथिली नहीं हैं व्यथा-विद्ध.
बस एक कामना, राघव हों अतुलित प्रसिद्द.
७.
श्री राम-राज्य की नारी भी थी मैं, प्रबुद्ध.
मैंने चाहा था- रावण से हो महायुद्ध.

राक्षसी हिंस्र-संस्कृति का जिससे हो विनाश.
बंधुता तथा समता,स्वतन्त्रता का प्रकाश-

प्रत्येक मनुज के अंतर में उद्भासित हो.
वसुधा, करूणा से कुसुमित और सुवासित हो..
८.
यदि राम-सभा में जा,मैं करती अभिवेदन.
तब निश्चित ही निरस्त हो जाता निर्वासन.

श्री राम और मैं करते वैयक्तिक-विलास.
पर उस आदर्श-परिस्थिति का रुकता विकास.

जिसमें शासक त्यागा करते हैं पद अपना .
पर,जो आसक्त पदों में,उनसे क्या कहना !
९.

वास्तव में, मैंने साम्राज्ञी-पद त्यागा था.
क्या कहूं ,राज्य का जन-समुदाय अभागा था.

पुट-पाक सदृश वेदना राम को बींध गई.
जीवन भर मैं श्री राम-विरह में दग्ध हुई.

इस अग्नि-सिधु मंथन से बस यह अमृत मिला.
राघव के अक्षर यश का सुरभित पुष्प खिला.
१०.
मैं वही जबाला, जिसने नहीं विवाह किया.
पर, सत्यकाम जाबाल-पुत्र को जन्म दिया.

प्रारंभ किया जिसने परम्परा गुरुकुल में
है पिता-नाम अनिवार्य नहीं नामांकन में

गरिमामय नारी -स्वतन्त्रता का प्रथम घोष
था समय एक , मैं मानी जाती थी अदोष
८ .
मैं वही अपाला , कुष्ठ -रोग से जो पीड़ित.
थी देह नही रमणीय , पुरूष सब थे परिचित.

सौन्दर्य नहीं था छलक रहा मुझसे बाहर
पर, प्रज्ञा का सागर लहराता था अन्दर

मेरे मंत्रों से प्रथम वेद है आलोकित
मेधा-बल से मैनें समाज को किया विजित..
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स्त्री के प्रति भारत की विलक्षण, शाश्वत और यथार्थवादी दृष्टि के विरोध में, बुद्धि-दरिद्रों द्वारा, माता मैथिली के निर्वासन का उदाहरण दिया जाता है..किन्तु यह उदाहरण उनके द्वारा ही दिया जाता है जिन्होंने एक बार भी वाल्मीकीय रामायण का पारायण नहीं किया.वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के पैंतालीसवें सर्ग के सत्रहवें श्लोक में श्री राम का लक्ष्मण को दिया गया आदेश अंकित है--
गंगायास्तु परे पारे वाल्मीकेस्तु महात्मनः .
आश्रमो दिव्यसंकाशः तमसातीरमाश्रितः
श्री राम ने लक्ष्मण से कहा था -'' गंगा के पार स्थित तमसा नदी के तट पर, महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है..लक्ष्मण ! तुम कल प्रातः सीता को उसी आश्रम के निकट पहुचाकर वापस आना.''
अर्थात श्री सीता को निर्जन वन में छोड़ने का आदेश श्री राम का नहीं था.
इसी तरह,जब श्री मैथिली को वाल्मीकि आश्रम के निकट ले जाकर निर्वासन की राजाज्ञा लक्ष्मण द्वारा सुनाई गई तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा-
यच्च ते वचनीयम स्यादपवादः समुत्थितः
मया च परिहर्तव्यम त्वम् हि मे परमा गतिः
अर्थात श्री मैथिली ने लक्ष्मण से श्री राम के लिए अपना सन्देश भेजा था- ''जनसमुदाय के बीच जो आपकी निंदा कुछ घटनाओं के कारण हो रही है उसे समाप्त करना मेरा भी कर्तव्य है..आप धर्मपूर्वक जनसमुदाय का पालन वैसे ही कीजिये जैसे अपने सगे भाइयों का करते हैं.मुझे आपके धर्मानुकूल शासन की चिंता है , अपने शरीर की नहीं. ''
इस प्रकार श्री मैथिली ने निर्वासन स्वीकार करके, वास्तव में, राज्य-हित में अपना साम्राज्ञी का पद त्यागा था.
मानव-मन की इस सर्वोत्कृष्ट अवस्था को हृदयंगम कर पाना लोभ,मोह,मद से कलुषित चित्त के लिए संभव नहीं.
श्री मैथिली द्वारा साम्राज्ञी-पद का स्वेच्छया किये गए त्याग की परम्परा का ही निर्वाह आज भी तब होता है जब कोई लाल बहादुर शास्त्री या कोई नीतीश कुमार किसी रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के वशीभूत, निजी रूप से दोषी न होते हुए भी, पद से त्यागपत्र देता है.

..पश्चिम में , महान नारीवादी चिन्तिका - सिमोन द बउआर एवं अन्यों द्वारा प्रारंभ किया गया नारी मुक्ति आन्दोलन , पश्चिमी समाज के लिए पूर्णतः हानिकारक रहा। .क्योंकि यह प्रतिक्रया में, पुरूष - द्वेष के साथ , प्रारंभ किया गया था ..
प्रतिक्रया या द्वेष में प्रारंभ किया गया कोई भी कार्य अपने परिणाम के साथ अप्रिय अंश भी लेकर आता है ..
वही हुआ..
पश्चिमी समाज में , नारी-वादी स्त्रियों ने, पुरूष द्वेष में ,पुरुषों से बचने के लिए, ऐसी विकृतियों को आत्मसात् किया जिसनें वहाँ की परिवार -प्रणाली का सर्वनाश कर दिया ।
माता , पिताके प्रारम्भिक प्रेम और वात्सल्य से वंचित युवा ,
सहजात मनोवृत्तियों के वशीभूत और मनोविकृतियों से पीड़ित स्त्री -पुरूष,
और खंडित परिवारों का विशाल खँडहर ॥
परिणाम यह भी हुआ कि भारत का कोई संत वहाँ जाए तो लाखों की संख्या में स्त्री -पुरूष उसके अनुयायी बनने के लिए तैयार , समर्पित ॥
आज सारा पश्चिम भारत की ओर आशा के साथ देख रहा कि भारत, उसके सामाजिक -अस्तित्व की रक्षा, अपने पुरातन किंतु चिर-नवीन संस्कारों के साथ कर पायेगा !
हम भारत के लोगों ने कभी किसी विषय पर खंडित अथवा अपूर्ण दृष्टि के साथ विचार नहीं किया ।
स्त्री - स्वतन्त्रता हमारे यहाँ जितनी वैज्ञानिकता के साथ उपलब्ध थी , वैसी कहीं नही थी, न है ।
इन कविताओं में मैंने भारत की उन महान स्त्रियों की स्तुति की है जिन्होनें अपनी प्रज्ञा के बल से स्त्री - मूलक सामाजिक क्रान्ति का नेतृत्व किया था जो आज की स्त्रियों के लिए भी अति कठिन है ।
आज ऋग्वेद के आकार लेने के हजारों साल बाद , भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि किसी बच्चे का विद्यालय में नामांकन कराते समय , यह अनिवार्य नही होगा कि उसके पिता का नाम बताया जाय ।
विद्यालय में यदि सिर्फ़ माता अपना ही नाम बताती है तो भी नामांकन किया जाएगा।
इस निर्णय को हम ऋग्वेद में वर्णित माता जबाला की कथा के प्रकाश में देखें तो लगेगा कि माता जबाला नें अपने आत्मबल से जो कार्य उस समय अकेले किया था उस कार्य को कराने के लिए आज सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पडा ।
माता जबाला नें अपने पुत्र जाबाल को को गुरुकुल में नामांकन के लिए भेजा ।
वहा कुलपति ने जाबाल से पिता का नाम पूछा और कहा कि पिता के नाम के साथ ही नामांकन होगा ।
जाबाल को पिता का नाम माँ ने कभी बताया नही था न ही वह अपने पिता से कभी मिला था .
उदास जाबाल माँ के पास आया और सारी बातें बताईं ..
माँ ने कहा कि तेरे पिता का नाम मैं भी नहीं जानती । मैं आश्रम में रहती थी । विवाह नही किया ।
किंतु प्रेम - पूर्ण स्थिति में किस ऋषि से तेरा जन्म हुआ , नही मालूम ।
तू जा गुरुकुल और आचार्य से कह दे कि मेरी माता का नाम जबाला है और मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है .वे मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं । किस ऋषि से मेरा जन्म हुआ , यह उन्हें भी नही मालूम .
बालक जाबाल जाता है गुरुकुल माँ के वचन दुहराता है वहाँ आचार्य से।
कुलपति, सत्यकाम जाबाल और माता जबाला की सत्यनिष्ठा का सम्मान करते हैं और जाबाल का नामांकन गुरुकुल में हो जाता है ।
इसी प्रकार माता अपाला कुष्ठ -रोग से पीड़ित थीं । किंतु, उन्होंने अपने प्रग्याबल से उस रोग को समाप्त किया । और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि बनीं ।
समस्त पुरुषों के लिए सम्माननीय ।
भारतीय - संस्कृति में स्त्री-स्वातंत्र्य सार्वभौम रूप से उपलब्ध किए जाने का संकल्प है ।
किंतु यह स्वातंत्र्य अपने इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति के लिए नही अपितु सत्यकाम जाबाल जैसा महान पुत्र उत्पन्न कराने के उद्देश्य से संकल्पित है ।
स्त्री अपने प्रग्याबल से समाज को सशक्त, सुबुद्ध , सुंदर , सुनम्र बना सकती हैं ।
स्त्री की सृष्टि ही इस हेतु हुई ।
किंतु ऐसा करने के लिए स्त्री को स्वयं प्रग्यावती , सशक्त , सुबुद्ध और अंतःकरण से सुंदर बनना होगा ।
सौन्दर्य स्त्री की नियति है --
पुरूष को वश में करने के लिए और उससे समाज की सार्वभौम सेवा कराने के लिए ।
पुरूष के समस्त कर्मों की प्रेरक स्त्री है --
स्त्री है तो पुरूष है --
स्त्री - पुरूष हैं तो समाज और प्रकृति सुरक्षित हैं ।
समस्त प्रकृति की रक्षा के लिए स्त्री का सुन्दरीकरण ,सशक्तीकरण और समरस स्त्री-पुरूष संबंधों का विकास आवश्यक है.

----अरविंद पाण्डे

रविवार, 3 मई 2009

तुम मेरे सपनों की सीमा ...



मैं तुम्हारी देह को , खुशबू बनूँ , फ़िर छू के महकूँ ,
मैं तुम्हारे ह्रदय को, संगीत बन , , छूकर के बहकूँ ,

अब यही सपना मेरी आंखों में
हर पल तैरता है ,


तुम मेरे सपनों की सीमा
पर तुम्हें क्या ये पता है


----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर संहार



आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार
सुनकर ब्रह्मा ,विष्णु, रुद्र से अपनी जयजयकार


जीत लिया है स्वर्ग इन्द्र से, स्वयं इन्द्र है बना हुआ
सूर्य, अग्नि ,यम, वरुण ,रुद्र से उनके हक को छीन लिया
सारे जग में फैल रहा महिषासुर का आतंक घना
धरती क्या , आकाश और पाताल तलक परतंत्र बना

ब्रह्मा को ले साथ गए सब देव, विष्णु, शिव के आगे
पूछा कैसे महिष मरे , कैसे अपनी किस्मत जागे

आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार ...



सब देवों से प्रकट हुआ तब , उस पल भारी तेज वहाँ
कुछ पल में ही गरज उठीं जगदम्ब भवानी तभी वहाँ
दिया विष्णु ने चक्र , रुद्र ने शूल किया अर्पण उनको
शंख वरुण ने ,वज्र इन्द्र ने , ब्रह्मा ने माला उनको
क्षीर-सिन्धु ने पायल ,कुंडल , चूडामणि है दान किया
सिंह हिमालय ने सागर ने कमल फूल से मां किया

आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर संहार ....


अट्टहास जब किया अम्ब ने दैत्यों की सेना भागी
जीवन-दीप बुझे दैत्यों के , देवों की किस्मत जागी
चंडी नें चक्षुर , चामर असिलोमा का वध किया वहीं
सारे देव और ऋषि-गण भी करते थे स्तुति खड़े वहीं
देख गरजता महिषासुर को,बोलीं मां जगदम्बा यूँ :
बस कुछ पल तू और गरज ले, तब तक मैं मधु पीती हूँ

इतना कह कर , भगवती जगदम्बा , अपनें वाहन सिंह के स्कंध से उछल पड़ीं और उस महिष-रूपधारी महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं । इसके बाद , उन्होंने उसके कंठ पर अपने शूल से प्रहार किया । तब महिष का मस्तक कट गया और उस कटी हुई गर्दन से वह महादैत्य बाहर निकालने लगा । तब देवी ने विशाल कृपाण निकाली और उसका मस्तक काट गिराया । इसके बाद दैत्यों की विशाल सेना हाहाकार करती हुई भाग गयी । सभी देवता अति प्रसन्न हुए और श्री जगदम्बा की स्तुति करने लगे ।

आज करेंगीं मां जगदम्बा महिषासुर-संहार ....
सुनकर ब्रह्मा ,विष्णु, रुद्र से अपनी जयजयकार ..
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यह गीत मेरे द्वारा २००३ में लिखा और संगीतबद्ध किया गया था और वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा इसे रिकॉर्ड कराकर बाज़ार में प्रस्तुत किया गया था । यह गीत नंदिता के स्वर में है जिसका साथ मैंने भी दिया है । ESNIPS
पर यह गीत उपलब्ध है जिसे डाउन लोड किया जा सकता है । जिसका लिंक नीचे दिया गया है ।
पवित्र नवरात्र के अवसर पर यह भक्ति - गीत सभी मित्रों को सादर समर्पित है ॥

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----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी




तुम कर दो अब कल्याण,सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी


तुमने ही तो कृष्ण -रूप में ब्रज में रास रचाया
युगों युगों तक भक्त जनों के मन की प्यास बुझाया
शिव ही तो राधा बनकर ब्रज की धरती पर आए
इस प्यासी धरती पर मीठी रसधारा बरसाए

हम रस के प्यासे लोग, न चाहे भोग, सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी


सारे ज्ञानी-जन कहते हैं तुम करुणा की सागर
फ़िर कैसे संसार बना है दुःख की जलती गागर
तुम हो स्वयं शक्ति जगजननी फ़िर ये कैसी माया
इस धरती पर पाप कहाँ से किसने है फैलाया

हे माता हर लो पीर, बंधाओ धीर ,सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी



बिना तुम्हारे शिव शंकर भी शव जैसे हो जाते
तुमसे मिलकर शिव इस जग को पल भर में उपजाते
तुमने स्वयं कालिका बनाकर मधु-कैटभ को मारा
दुःख में डूबे ब्रह्मा जी को तुमनें स्वयं उबारा

हम आए तेरे द्वार, छोड़ संसार, सुनो कल्याणी
हम शरणागत है माँ विंध्याचल -रानी
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यह गीत मेरे द्वारा लिखा गया और इसकी धुन तैयार की गयी । वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा इसे अन्य भक्ति गीतों के साथ २००३ में एक एलबम के रूप में रिलीज़ किया गया ।
इस गीत में शिव के श्री राधा रानी के रूप में अवतार लेने तथा महाकालिका के श्री कृष्ण के रूप में अवतार लेने के रहस्य का वर्णन है ।



----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 24 मार्च 2009

बहके हुए इस दिल को तुम चुनो या ना चुनो ..





कुछ तो कहेगा दिल ये ,गर तलब इसे हुई
ये बात और है कि तुम सुनो या ना सुनो
मस्ती फिजां की देख के बहकेगा दिल ज़ुरूर
बहके हुए इस दिल को तुम चुनो या ना चुनो
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कुछ मित्रों ने मेरे इस विचार पर प्रतिकूल मत दिया है कि कविता को छंद-मुक्त होना चाहिए । वे तर्क संगत एवं संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसरण में ही यह कह रहे --ऐसा मेरा मानना है। यहाँ उल्लेखनीय है कि संस्कृत-काव्यशास्त्र में छंदोबद्ध लेखन मात्र को काव्य नही कहा गया अपितु कहा गया कि -रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है (पंडित राज जगन्नाथ ) अथवा -काव्यं रसात्मकं वाक्यम् अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है। परन्तु संस्कृत-काव्यशास्त्रीय सिद्धांत के आलोक में यदि शब्द और वाक्य रमणीयार्थ प्रतिपादक या रसात्मक हों तब तो ठीक किंतु इसका सहारा लेकर कुछ भी लिखे जाने और उसे काव्य कहे जाने के प्रवाह को रोकना होगा-ऐसा मेरा मानना है --यदि हिन्दी साहित्य को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाने का संकल्प हो।



----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 21 मार्च 2009

तुझसे ही बनेगी मेरी किस्मत तू जान ले

तुझसे ही बनेगी मेरी किस्मत तू जान ले
तुझको ही चुनेगी मेरी किस्मत तू मान ले
अब तू न यूँ खामोश रह कुछ बोल तो ज़रा
गर मान नही दे तो अब मेरी ये जान ले


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आजकल कविता के लोकतांत्रिकीकरण के कारण ,
श्री मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में -
''कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ''
की स्थिति बन गयी है ..
उर्दू साहित्य ने अपनी गरिमा
को सुरक्षित रखा है ॥
उर्दू के एक शेर पर करतल-ध्वनि से
आकाश गुंजित हो उठता है ॥Align Left
यह इसलिए क्योंकि वहाँ छंदमुक्त कविता
को प्रश्रय नहीं मिला ..
...जिससे हर किसी का कवि बनना
सहज संभाव्य नहीं हो पाया ..

----अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 12 मार्च 2009

कृष्ण-प्रेम ही शाश्वत सुमधुर




कृष्ण-प्रेम ही शाश्वत सुमधुर
क्षण-जीवी है लौकिक प्रेम
प्रेम धरा पर कैसे सम्भव
है जिसका क्षण-भंगुर क्षेम

श्री राधा के चरण-चिह्न पर
नतमस्तक हूँ मै - अरविंद
होली पर्व सजा लाया है
मेरे लिए अतुल - आनंद

नीलकमल-श्रीकृष्ण-चरण में
अर्पित किया ह्रदय का फूल
केसरिया हो गया चित्त जब
दिखा कृष्ण का पीत-दुकूल


रंग नहीं , सत्कर्म, शक्ति वह
जो जीवन में रंग भरे
जीवन बहुरंगी करना यदि
आओ हम सत्कर्म करें ..

द्वेष , क्रोध का कलुष नहीं यदि ,
ह्रदय प्रेम से हो परिपूर्ण ..
फिर होली के लिए नहीं
आवश्यक किसी रंग का चूर्ण ..

स्नेह-सलिल में घुला हुआ हो
लाल रंग बन पावन प्रेम
जिह्वा , नयन बनें पिचकारी
बरसे सतत चतुर्दिक प्रेम ..


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----अरविंद पाण्डेय


सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

महाशिवरात्रि : उमा-महेश्वर का विवाह-दिवस ..


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शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल
भूत- प्रेत सब बने बराती, लगते हैं विकराल

सब देवों के बीच विष्णु , ब्रह्मा की शोभा कौन कहे
पीछे इन्द्र , कुबेर , वरुण से देव खुशी में झूम रहे


उनके पीछे भूत - प्रेत - वेताल मंडली नाच रही
किसी का डमरू डिम डिम करता, किसी की भेरी गूँज रही


किसी प्रेत को आँख नही कोई दस दस आंखों वाला
हर कोई बस झूम रहा है मस्ती में हो मतवाला


शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल .


पञ्च-मुखी की पन्द्रह आँखों में काजल काल का

दस हांथों में अभय , शूल औ' भिक्षा-पात्र कपाल का


चंदन के बदले शरीर पर चिता-भस्म है लगी हुई

गले में है रुद्राक्ष और सर्पों की माला सजी हुई


माथे पर है चन्द्र , तिलक सी लगे तीसरी आँख है
कमर में बाघम्भर ,हाथों में डमरू और पिनाक है


शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल .....


कानो में कुंडल के बदले सर्प लटकते हैं जिनके

सिर पर काली जटा जूट में गंगा बहती हैं जिसके


गले में नरमुंडों की माला गंगा-जल से भीग रही

नंदी जी पर हैं सवार अद्भुत शोभा ना जाय कही



भक्तों को वर अभय दे रहे आशुतोष भगवान हैं

शिव-बरात की कथा सुने, उसका होता कल्याण है



शंकर अपने सज धज करके आज चले ससुराल ...

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यह भक्ति-गीत मेरे द्वारा २००३ में लिखा गया था ।

यह शिव-पुराण पर आधारित है । शिव-पुराण के अध्याय

में ४० जगन्माता पार्वती और

जगत्पिता शिव के विवाह का वर्णन है । यह गीत , बरात

के समय शिव-पुराण के शिव-स्वरुप-वर्णन की शाब्दिक-छाया है ।

सभी शिव-भक्त जानते हैं कि माता पार्वती ने अति-कठोर तप किया था अपने

परम-प्रिय शिव को प्राप्त करने के लिए ।

इसी क्रम में ६ महीने तक उन्होंने शाक-पत्र खाना भी

छोड़ दिया था . इसीलिये माता पार्वती का नाम "अपर्णा " भी विख्यात हुआ ।

कालिदास ने शिव-तपस्या भंग करने का प्रयास करने वाले

कामदेव के भस्म होने और उस समय माता पार्वती का अपने

अद्वितीय सौन्दर्य के निष्फल हो जाने पर उसकी निंदा करने का विलक्षण वर्णन

"कुमार संभवं " में किया है । सौन्दर्य की जो परिभाषा कालिदास

ने इस श्लोक में की , उसे ही दूसरे शब्दों में , अंगरेजी के महान कवियों

-पी .बी.शेली , जान कीट्स आदि ने बाद में प्रस्तुत किया -

"तथा समक्षं दहता मनोभवं

पिनाकिना भग्नमनोरथा सती

निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती

प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता "


उमा-महेश्वर विवाह प्रकरण का स्वाध्याय करने से किसी प्रेयसी-कन्या

को उसके प्रिय से विवाह का निर्विघ्न अवसर प्राप्त होता है । यह फल-श्रुति

शिव-पुराण में वर्णित है । अविवाहिता यदि इसका स्वाध्याय करे

तो उसे शिव-कृपा-प्राप्त सुंदर और योग्य वर प्राप्त होता है -यह

प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है ।

वीनस म्यूजिक कंपनी द्वारा

इसे नंदिता के एल्बम 'शिव जी हो गए दयालु 'में सम्मिलित करते हुए २००३ में

रिलीज़ किया गया था ।

इस गीत को मेरी पुत्री नंदिता ने गाया था और मैंने भी इसमें अपना स्वर

दिया था।

----अरविंद पाण्डेय

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ..


आज मैनें ख्वाब में देखा तुझे
फूल सी पलकें तेरी भीगी हुई

मैं तेरी जानिब ये घुटने टेक कर
हाथ को कदमों पे तेरे रख दिया

फ़िर करम तूने किया कुछ इस तरह
हाथ में अपने , मेरे हाथों को ले

खींच कर हलके से, मुझको प्यार में
बाजुओं में इस तरह कुछ, भर लिया

मैं तेरे रुखसार के नज़दीक था
देखता पलकें तेरी भीगी हुई

तेज़ साँसों से तेरी खुशबू निकल
मेरे तनमन में समाई जा रही

सुर्ख गालों पर तेरे ढलते हुए
शबनमी उन आंसुओं को पी गया

क्या कहूं उस एक पल के दौर में
इश्क की लाखों सदी मैं जी गया

फ़िर तेरा आगोश, बस, कसता गया
और कुछ बाकी न था उस पल वहाँ

मैं नही था, तू न थी , ना ये ज़मीन , ना आसमां
इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ

----अरविंद पाण्डेय