रविवार, 15 फ़रवरी 2009

इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ..


आज मैनें ख्वाब में देखा तुझे
फूल सी पलकें तेरी भीगी हुई

मैं तेरी जानिब ये घुटने टेक कर
हाथ को कदमों पे तेरे रख दिया

फ़िर करम तूने किया कुछ इस तरह
हाथ में अपने , मेरे हाथों को ले

खींच कर हलके से, मुझको प्यार में
बाजुओं में इस तरह कुछ, भर लिया

मैं तेरे रुखसार के नज़दीक था
देखता पलकें तेरी भीगी हुई

तेज़ साँसों से तेरी खुशबू निकल
मेरे तनमन में समाई जा रही

सुर्ख गालों पर तेरे ढलते हुए
शबनमी उन आंसुओं को पी गया

क्या कहूं उस एक पल के दौर में
इश्क की लाखों सदी मैं जी गया

फ़िर तेरा आगोश, बस, कसता गया
और कुछ बाकी न था उस पल वहाँ

मैं नही था, तू न थी , ना ये ज़मीन , ना आसमां
इश्क था, बस इश्क था, बस इश्क था उस पल वहाँ

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 26 जनवरी 2009

स्वर्णिम भारत निर्माण करें ..


२६ जनवरी २००९
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संयम का अविजित खड्ग लिए
विधि , संविधान का अमृत पिए

प्रज्वलित अग्नि सी प्रज्ञा हो
मणि सी संदीप्त प्रतिज्ञा हो

ऐसा भारत निर्माण करें
आओ जग में आलोक भरें


वसुधा का वैभव क्षीण न हो
मानवता शक्ति-विहीन न हो

कुसुमों में वर्ण सुगंध बढे
वृक्षों पर विकसित बेल चढ़े

शीतल सुरभित पवमान बहे
अब प्राणि -मात्र में प्रेम रहे

गौरव से मस्तक उन्नत हो
श्रद्धा से , किंतु , सदा, नत हो

करुणा से ह्रदय प्रकाशित हो
शुभ,शील,सत्य से प्रमुदित हो

जन-गण में नव-उत्साह भरे
गण-तंत्र सदा ही विजय करे

हम भारत की संतान धन्य
मानवता की महिमा अनन्य

जब भी संसार हुआ व्याकुल
जब बढ़ा धरा पर कंटक-कुल

हमने रक्षित की विश्व-शाँति
प्रज्ञा बल से की दिव्य-क्रांति


----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

विश्वास सर्व-व्यापक है, विभु..


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विश्वास , श्वास का प्रकृत-रूप ,
यह अन्तरतम की लय-झंकृति
स्रष्टा से इसका साम्य और
स्रष्टा की यह सुन्दरतम कृति

विश्वास, विभाजक-रेखा ,वह
जो पशु - मनुष्य में करे भेद
विश्वास-युक्त जो ,वह मनुष्य
विश्वास- हीन, पशु में अभेद

विश्वास अगर, तो अन्धकार
भी बन जाता उज्जवल प्रकाश
विश्वास अगर तो तीक्ष्ण वेदना
बन जाती उन्मुक्त हास

विश्वास अगर तो पुष्प कंटकित,
दिखता है सुरभित , सुंदर
विश्वास अगर, श्री कृष्ण-सदृश
दिखता है यह नीला अम्बर

विश्वास अगर तो केशराशि
प्रिय की प्रतीत होती सुरभित
विश्वास अगर तो क्षुद्र-देह
में भी अनंतता की प्रतीति

विश्वास
वही जब श्वास श्वास में
छलक उठे प्रिय की सुगंध
आकर्षण इतना प्रबल कि
सारे,छिन्न भिन्न हो जांय, बंध

विश्वास वही जब लैला भी
बस दिखे अप्सरा सी सुंदर
क्षण-जीवी पुरूष दिखे नारी को
कालजयी एवं ईश्वर

विश्वास वही जो धरती पर ही
रच दे स्वर्णिम स्वर्ग - सरणि
विश्वास वही जब धूमकेतु भी
हो प्रतीत ज्यों तरुण तरणि

विश्वास शक्ति, विश्वास भक्ति
विश्वास ,सर्व-सत्तामय प्रभु
विश्वास एक आराध्य देव
विश्वास सर्व-व्यापक है ,विभु


----अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

अब तो सुबह होने को है ..



वक्त की गहरी परतों में दबे हुए हमारे अतीत
और वक्त की एक एक कर उतरती परतों के बीच से
हसीन सुबह की मानिंद हमें निहारता
और अपने पुरइश्क रुखसार की झलक देने को बेताब
हमारा भविष्य
कह रहा हमसे --

कि वक्त बेपरवाह न था कभी तुमसे
तो तुम भी वक्त से न रहो बेपरवाह

कि इश्क - ए - मिजाजी में डूब कर तो देख लिया
न कुछ ले पाये किसी से, न किसी को कुछ दिया

तो अब इश्क - ए- वक्त में भी तो डूब कर देखो--
फ़िर , अपने ही किए कराए पर,
लब पर तुम्हारे, न होगी कभी आह

दिल को इतना रोशन रखो
कि तुम्हारे होते किसी ज़िंदगी की सुबह ,
न हो कभी स्याह

कि हो कोई बेसहारा
पर तुम्हारी नज़रों के सामने
न हो कभी बेराह

कि गुलशन में खिले हुए गुल
ख़ुद को न समझे कभी बेपनाह

क्योकि,
ये वक्त है हर फूल के खिलने का
ये वक्त है हर बेराह को राह मिलने का
ये वक्त है हर स्याह दिल में रोशनी दिखने का

क्योकि

अब तो सुबह होने को है
अँधेरा ख़ुद ब ख़ुद खोने को है



----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 7 जनवरी 2009

सारा कश्मीर हमारा है--कारगिल-युद्ध के समय लिखित





हमने समझा दोस्त उन्हें
वे दुश्मन हमें समझते हैं
नही फिक्र है उन्हें अमन की
बारम्बार उलझते हैं ।


जब जब हमने हाथ मिलाया
उनसे सरल दोस्त बनकर
तब तब उनने घात किया है
सदा पीठ पीछे हम पर ।

नही याद है उन्हें इखत्तर
का वह अमर युद्ध - संदेश
जो टकराएगा हमसे
हो जायेगा वह खंडित देश ।


क्षमा किया था हमने उनको
धूल चटाने के ही बाद
यही सोच कर कि अब उन्हें
आयेगी बुद्धि , न हों बरबाद ।


पर उनकी तो बुद्धि भ्रष्ट है
चढ़ आए फ़िर सीमा पर
फ़िर ललकार रहे हैं हमको
विगत पराजय विस्मृत कर ।


विश्व-शाँति अब रहे सुरक्षित -
यही सोच कर हम सबने
संयम से संघर्ष किया है
बलि दी हैं कितनी जानें।

न लो परीक्षा अब वर्ना,
इच्छा सुन लो यह जन जन की
मिट जाए वह झूठी रेखा
वर्षों पूर्व विभाजन की ।




सौ करोड़ कंठों ने अब यह 
घोर नाद हुंकारा है

कारगिल से गिलगित तक
सारा कश्मीर हमारा है । 

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आइए , करें आराधन हम नव -वर्ष में...

जनवरी २००९
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आइए करें आराधन हम नव -वर्ष में ,
हिमगिरि की अखंड - गरिमा का ,
अम्बर की अनंत - महिमा
का ,
पक्षी के कलरव से गुंजित
स्वर्णप्रभा - मंडित प्रभात का ,

किन्तु रहे यह ध्यान हमें ---

इस जीवन का एक वर्ष फिर फिसल गया ।

क्या बीते वर्षों में हमने वही किया जो करना था ?
क्या हमने जो
लिए फैसले ,
वे उतरेंगे खरे , समय की
शाश्वत कठिन कसौटी पर .?

क्या हमने जो रचे जाल शब्दों , वाक्यों के ,
वे थे दीपित सतत - सत्य से , महिमा से , ऊर्जा से ?

यदि हाँ , तो फिर एक वर्ष ही नहीं ,
इस जीवन का प्रतिपल होगा सुरभित , सुन्दर ,
उत्सव से , ऊर्जा से ..


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अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

यदि तुम मेरे आलिंगन में मुग्ध नही हो..

तटिनी के तरंग - मंडल में
परम - तृप्ति पाता है निर्झर
सिन्धु - समालिंगन से पुलकित
आप्त - काम होती पयस्विनी

सहज मृदुल अन्योन्य - घात से
स्वर्पवने परिनंदित होतीं
संसृति के समस्त बिम्बों का
जीवन ही सापेक्ष - सत्य है

संसृति में प्रतिपल संगम से
सकल वस्तुए मत्त हो रहीं
ईश्वरीय यह विधि, शाश्वत ,
पर विप्रयुक्त , हा, हंत हमीं हैं

देख , स्वर्ग के आलिंगन से
परिशिखरी -पशु -दल पुलकित है
आनंदित ये जलधि -वीचियाँ
आलिंगन कर रहीं परस्पर

कलिकाओं का ह्रदय प्रफुल्लित
पुष्पों का सम्मान कर रहा
अवनि - वक्ष का परिस्पर्श कर
सूर्य - रश्मियाँ नृत्य - निरत हैं

शशि - मयूख सहसा ही आकर
जलधि - चुम्ब कर रही निरंतर
किंतु , निरर्थक , यदि तुम मेरे
आलिंगन में मुग्ध नही हो ।
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यह कविता महान अंगरेजी कवि
पी बी शेली की कविता " LOVE'S PHILOSOPHY "
पर आधारित है । यह मैंने वर्ष १९८८५ में
लिखी थी जब मैं B.A. का विद्यार्थी था ।

हिन्दी कविता की जो दुर्दशा इस समय हो रही
वह अत्यन्त कारुणिक है । छंद - मुक्त कविता
का प्रारंभ श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने किया था
तो उनकी लेखनी में ऐसी शक्ति थी कि वह छंद - मुक्त
होते हुए भी कविता में रस - पूर्ण सौन्दर्य और गेयता बनाए
रखती थी । परन्तु आज हिदी कविता को उस स्तर पर
ला दिया गया है कि इस समय रामधारी सिंह दिनकर ,
महादेवी वर्मा , सुमित्रानंदन पन्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे
कवि अनुपलब्ध हो चुके हैं ।
उर्वशी की सौन्दर्य - धारा और कुरुक्षेत्र के प्रचंड - पौरुष से
परिपूर्ण कविता की गंगा प्रवाहित करने वाले दिनकर
आज स्मृति - शेष हैं ।
इस स्थिति में मेरा प्रयास है की हिन्दी कविता प्रेमी
उस स्वर्ण युग की स्मृतियों से आनंदित हों जब हिदी
कविता विश्व की समस्त भाषाओं और साहित्य की गंगोत्री -
संस्कृत - कविता से अनुप्राणित और अनुसिंचित होती
अपने स्वर्ण - शिखर पर विराजमान होकर रस - धारा प्रवाहित
कर रही थी ।




---अरविंद पाण्डेय

रविवार, 28 दिसंबर 2008

तू समझना मैंने तुझे चुपके से छुआ है..

ये कुरबतें ये दूरियां तो दिल की जानिब हैं
दिल है करीब तो करीब , दूर है तो दूर ,

दिल में तेरे जो बात मेरी याद से उठे
तू समझना मैंने करीब होके कुछ कहा

गर ,सामने महका हुआ इक गुल दिखाई दे
तू समझना वो महक मेरे दिल से उठी है

गर , मनचला सा कोई झकोरा हवा का हो
तू समझना बेताब मेरा दिल मचल उठा

गर, आसमां में चाँद , कुछ शर्मा के खिला हो ,
तू समझना मैंने तुझे चुपके से छुआ है

जब तू नही हो पास तो कुछ और पास से ,
दिल , दिल से मरासिम हो -यही मेरी दुआ है



----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

तुम मेरे दिल से गुजरना ..



तुम मेरे दिल से गुजरना
जब कभी मायूस होना
ये तुम्हारे पाँव का
मुझ पर बड़ा एहसान होगा ।

ये मेरी साँसे अभी, अक्सर
बड़ी बोझिल सी लगतीं
इनका आना और जाना
कुछ ज़रा आसान होगा ।

----अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

अब वतन में ये तमाशा बंद होना चाहिए ..




तुम रखा करते हो अक्सर,जिनके सर सोने का ताज
कह रहा है मुल्क उनका सर कुचलना चाहिए

हो जिन्हें अब फिक्र अपनी औ ' वतन के शान की
सोनेवाले उन सभी को जाग उठाना चाहिए

दिल में हो ईमान ,बाजू में हो लोहे की खनक
ऐसे ही रहवर के सर पर ताज रखना चाहिए

जिनके आगे तुम खड़े हो सर झुकाए , कांपते
उनका सर , फांसी के फंदे पर लटकाना चाहिए

आज जिनके सर की कीमत सिर्फ़ कौडी भर बची
उनके आगे अब कभी ये सर झुकना चाहिए

इक तरफ़ हो घुप अँधेरा इक तरफ़ दरिया- ए- नूर
अब वतन में ये तमाशा बंद होना चाहिए


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अरविंद पाण्डेय